माँ, मैं यहाँ मजे में हूँ

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दिलीप चिंचालकर

सन् 1974 के श्रावण महीने का पहला सोमवार था। शिव और पार्वती विमान में बैठकर इंदौर के स्नेहलतागंज क्षेत्र के ऊपर से विहार कर रहे थे। पार्वतीजी ने नीचे झाँककर देखा तो एक उदास महिला दोनों हाथों में राशन से लदी भारी थैलियाँ उठाए चली जा रही थी। उसकी मन की बात ताड़कर शिवजी ने स्वयं बताया कि जल्दी ही उसका बेटा पढ़ाई के लिए बहुत दूर जाने वाला है। तब पार्वतीजी जिद करने लगीं कि भगवान उस महिला का अकेलापन दूर करने के लिए कुछ उपाय कीजिए। शिवजी ने कहा, ठीक है। मैं उसके बेटे को सुबुद्धि देता हूँ कि वह प्रतिदिन अपनी माँ को एक पोस्टकार्ड लिखेगा।

मेरे पिता को अपने काम में खोए रहने की आदत थी। बड़े से घर के किसी हिस्से में खोए रहना माँ की मजबूरी थी। पढ़ाई के लिए घर से बाहर जाने का मेरा यह पहला ही मौका था और मैं सिटपिटाया हुआ था। अचानक मेरे मन में यह खयाल आया कि मैं प्रतिदिन एक पत्र लिखूँ तो घर से जुड़ा रहूँगा और मैंने यही किया।

पंतनगर (नैनीताल) से मेरा पहला पत्र था- प्यारी माँ, मैं यहाँ सकुशल आ पहुँचा हूँ। रास्ता लंबा था फिर भी कोई परेशानी नहीं हुई। वगैरा-वगैरा। पिताजी को चरण स्पर्श। बीना को दुलार (बीना हमारी पालतू कुतिया थी)।

दूसरा पत्र- मैंने कक्षा में जाना शुरू कर दिया है। मुझे होस्टल में कमरा मिल गया है। तुम चिंता न करना, यहाँ मेस में अच्छा खाना मिलता है वगै र ह-वगै रह। अगले कुछ पत्रों में सहपाठियों, शिक्षकों वगैरा की बारी आई। विश्वविद्यालय का परिसर, नैनी का ताल और पहाड़ों का वर्णन हुआ। फिल्में देखने, साइकल से गिरने-पड़ने, मेस में गुलाब जामुन मिलने और हाजमा बिगड़ने का ब्योरा हुआ।

अब लिखने लायक बातों का टोटा पड़ने लगा। पत्र तो मुझे रोज लिखना था। तब मैं अपने आसपास घटनाएँ ढूँढने लगा। अगले कुछ दिनों में माँ को पता चल गया कि मेरे कमरे के बाहर एक बुलबुल ने घोंसला बनाया है। चाय वाले की गुमटी के पीछे कुतिया ने सात पिल्ले दिए हैं। हफ्ते में किस-किस दिन देहात से गधे चरने के लिए आते हैं। राणा सर "स" को "श" कहते हैं वगैरा।
एक दिन यह भी खुट गया मगर मेरा लिखना जारी रहा।

मेरी कल्पना दिनभर यहाँ-वहाँ डोलती, लिखने का मसाला ढूँढती रहती। कभी कोई ऐसी बात हाथ लगती कि मैं पूरे हफ्ते टीवी धारावाहिक की तरह सिलसिलेवार लिखते जाता। पढ़ने-लिखने में कमजोर माँ के लिए सरल भाषा में लिखना पहली शर्त थी। मन बहलाने वाला तो उसे होना ही था।

हफ्ते, महीने, साल गुजर गए। मेरा लिखना चलता रहा। इस बीच शिवजी ने मुझे पंतनगर से दिल्ली भेजा फिर वहाँ से समंदर पार ऑस्ट्रेलिया उड़ा दिया ताकि मैं खूब देखूँ और खूब लिखूँ। अब मेरे किस्से-कहानियों में हाथ के बने रेखाचित्र, रंगीन पिक्चर पोस्टकार्ड और नक्शे शामिल हो गए। साथ ही बस के टिकट, होटलों के मेनू, पार्किंग के चालान भी रहते जिससे मामला समझने में कोई कसर न छूट जाए। अब पत्र पोस्टकार्ड से निकलकर कई-कई पन्ने रंगने लगे। लिफाफे सुंदर लगे इसलिए उन पर नए-नए खूबसूरत डाक टिकट लगाता और अपने ही फर्स्टडे कवर भी बनाता। पढ़ाई से ज्यादा समय मैं पैदल-कार-मोटरसाइकल-ट्रक से घुमक्कड़ी को देने लगा ताकि दिलचस्प रिपोर्टिंग कर सकूँ।

इस बीच एक मजेदार बात हुई। मैंने माँ को लिखा था कि यहाँ चार-पाँच वर्ष के बच्चे भी अच्छी अँगरेजी बोल लेते हैं। उस पर चुटकी लेते हुए पिताजी ने मुझे लिखा कि बरखुरदार, समझने की बात यह है कि तुम अपनी भाषा कितनी साफ लिखते-बोलते हो? तब मैंने तय कर लिया कि अँगरेजी तो ठीक है, हिन्दी और मराठी भी आनी चाहिए।

उन दिनों इंदौर के घर में पिताजी के मित्र और आसपास की मंडली भी जमने लगी। घर में माँ तो इन पत्रों को पढ़ती ही, उन दिनों घर में टेलीविजन तो होते न थे, तो मेरे पत्रों का सामूहिक वाचन होने लगा। 'नईदुनिया' के संपादक राहुल बारपुते ने भी इनको देखा। फिर उन्होंने कुछ पत्रों को जोड़कर एक लेख बना डाला और 1978 के दीपावली अंक में छाप दिया।

अरे गजब! मैंने कहा, मेरे पत्रों से लेख बन सकता है मैं तो खुद ही लेख लिख सकता हूँ। और मैं छोटा-मोटा लेखक बन बैठा। शुरुआत में साल के दो-तीन लेख लिखता लेकिन फिर खासा अभ्यास हो गया। अब लिखते-लिखते पैंतीस वर्ष हो गए। डिग्री के लिए जो कुछ पढ़ा था वह धरा रह गया। माँ को पत्र लिखने के लिए जो कलम उठाई थी वही रोजी-रोटी कमाने के‍ लिए काम आ रही है। माँ तुम्हारा आशीर्वाद ही है यह।

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