शीतयुद्ध वाले दिनों के फ़रवरी 1963 से दक्षिणी जर्मनी के म्यूनिक शहर में हर वर्ष एक ऐसा अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन होता है, जिस में दुनिया भर के देशों के प्रमुख नेता और प्रतिनिधि अंतरराष्ट्रीय शांति से जुड़ी समस्याओं पर विचार विमर्श करते हैं। यह एक ऐसा सम्मेलन है, जिसमें राष्ट्रपतियों और प्रधानमंत्रियों से लेकर सभी स्तर के मंत्री, राजनय, सैन्य अधिकारी, आर्थिक विशेषज्ञ और सुरक्षा विश्लेषक भाग लेते हैं।
रूस-यूक्रेन युद्ध के कारण 17 से 19 फ़रवरी तक चले इस बार के सम्मेलन का अपना एक अलग ही सामयिक महत्व बन गया था। सम्मेलन के आयोजकों ने इस बार पहली बार, यूक्रेन पर आक्रमण करने के कारण रूस के और अपनी जनता का निर्दय दमन कर रहे ईरान के किसी नेता को निमंत्रण पत्र नहीं भेजा। आयोजकों का कहना था कि वे इन दोनों देशों को अपने झूठे राजनीतिक प्रचार और दुनिया को भरमाने का कोई मंच नहीं देना चाहते। दोनों देश अपने बचाव में जो कुछ कहते, उसे सभी लोग पहले से ही जानते हैं।
भारत की ओर से कोई मंत्री या बड़ा नाम इस बार म्यूनिक में नहीं था। किंतु दीवालिया हो गए पाकिस्तान के पास अब भी इतने डॉलर हैं कि वहां के विदेशमंत्री बिलावल भुट्टो अपने साथ अपनी सहायक हिना रब्बानी और गुप्तचर सेवा ISI के महानिदेशक जनरल नदीम अहमद अंजुम को लेकर इस सम्मेलन में पहुंचे हुए थे। बिलावल भुट्टो विदेश जाने का कोई मौक़ा हाथ से जाने नहीं देते, देश का हाल चाहे जैसा भी हो। भारत के विदेशमंत्री एस जयशंकर पिछले वर्ष म्यूनिक के इस सम्मेलन में थे। इस बार वे म्यूनिक में नहीं थे, लेकिन उनका नाम फिर भी गूंज रहा था।
जर्मनी के चांसलर ने एस जयशंकर को याद किया : जर्मनी के चांसलर (प्रधानमंत्री) ओलाफ़ शुल्त्स ने सम्मेलन के पहले दिन, शुक्रवार 17 फ़रवरी को, अपने संबोधन में एस जयशंकर के एक ऐसे चुटीले ताने को दुहाराया, जो उन्होंने पिछले वर्ष, एक इंटरव्यू देते हुए कहा था। उनसे पूछा गया था कि चीन के साथ समस्या होने पर भारत की सहायता कोई क्यों करना चाहेगा जब रूसी-यूक्रेनी विवाद में भारत, यूक्रेन का पक्ष नहीं लेता। जयशंकर ने तमक कर उलाहने के स्वर में कहा, 'यूरोप को अपनी इस संकुचित मानसिकता से ऊपर उठना होगा कि यूरोप की समस्याएं तो पूरी दुनिया की समस्याएं हैं, पर पूरी दुनिया की समस्याएं यूरोप की समस्याएं नहीं हैं। दुनिया की 20 प्रतिशत जनसंख्या के बराबर भारत की जनता को अपना मत स्वयं बनाने का अधिकार है।'
जर्मनी के चांसलर ओलाफ़ शोल्त्स ने इन शब्दों को दुहराते हुए कहा कि जयशंकर का यह उलाहना सही है। इसीलिए हम उत्तर वाले अब दुनिया के दक्षिणी देशों की समस्याओं को भी बेहतर ढंग से जानना-समझना और उनके साथ मिलकर काम करना चाहते हैं। पृथ्वी के दक्षिणवर्ती देशों को पहले की अपेक्षा इस बार अधिक संख्या में आमंत्रित किया गया है।
यही नहीं, जर्मन चांसलर बहुत जल्द ही स्वयं भारत भी जा रहे हैं। वे 25 और 26 फ़रवरी को भारत में होंगे। जर्मनी के चांसलर के तौर पर यह उनकी पहली भारत यात्रा होगी। शायद इस कारण भी भारत ने म्यूनिक के सुरक्षा सम्मेलन के लिए अपने किसी मंत्री को नहीं भेजा। सम्मेलन की आधिकारिक सूची में केवल दो ही भारतीय नाम थेः राष्ट्रीय सुरक्षा के उपसलाहकार विक्रम मिस्री और गुप्तचर सेवा RAW के अधिकारी समन्त कुमार गोयल।
यूक्रेन की सहायता सर्वोपरि विषय रहा : ठीक एक वर्ष पूर्व, 24 फ़रवरी 2022 को यूक्रेन पर रूसी आक्रमण और यूक्रेन की सहायता के उपाय इस बार के सुरक्षा सम्मेलन का सर्वोपरि विषय बना रहा। अमेरिका और चीन वे दो देश रहे, जिनके प्रतिनिधियों के हर शब्द को पूरी बारीक़ी से नापा-तौला गया। अमेरिका के विदेशमंत्री एंटनी ब्लिंकन का मानना था कि सारी दुनिया यूक्रेन को लेकर चिंतित है। उसे आत्मरक्षा के लिए हथियार आदि दे रही है, जबकि चीन आक्रमणकारी रूस को हथियार आदि देकर उसके हाथ मज़बूत करना चाहता है। अमेरिकी उपराष्ट्रपति कमला हैरिस ने भी इस सम्मेलन को संबोधित किया।
विदेशमंत्री ब्लिंकन ने सम्मेलन के अंतिम दिन अमेरिकी टीवी चैनल CBS को इंटरव्यू देते हुए कहा कि रूस को हर तरह का हथियार दिया जाना बहुत ही गंभीर समस्याएं पैदा करेगा। हमारे पास इस समय जो सूचनाएं हैं, उनके आधार पर सबसे बड़ी चिंता यही है कि चीन प्राणघातक हथियार देने की सोच रहा है। ब्लिंकन का कहना था कि चीन, गोले-बारूद से ले कर हर तरह के हथियार रूस को देना चाहता है। राष्ट्रपति जो बाइडन ने पिछले वर्ष मार्च में ही चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग को चेतावनी दी थी कि रूस को हथियार देने के परिणाम अच्छे नहीं होंगे। तब से चीन संयम का परिचय दे रहा था।
अमेरिका-चीन तनाव अपने शिखर पर : अमेरिका और चीन के बीच तनाव इस समय अपने शिखर पर हैं। आरोपों-प्रत्यारोपों की झड़ी लग गई है। किसकी बात को कितनी गंभीरता से लिया जाए, यह एक पहेली बन गई है। अमेरिकी विदेशमंत्री के उपरोक्त आकलन से एक ही दिन पहले, 18 फ़रवरी को, चीनी विदेशनीति के सबसे बड़े नियामक वांग यी ने म्युनिक में अमेरिकी सरकार पर ''आक्रामक आचरण'' और चीन के विरुद्ध एक ''गंदा अभियान'' छेड़ देने का आरोप लगाया। अमेरिका द्वारा मार गिराए गए कथित जासूसी गुब्बारे का उल्लेख करते हुए वांग यी ने कहा कि अमेरिका 'बौरा गया है'। अमेरिका को चाहिए कि वह ''ऐसे बेहूदे काम करने के बदले अपना ध्यान अपनी घरेलू समस्याओं पर लगाए...आकाश में गुब्बारे तो बहुत से देशों के बहुत सारे हैं। क्या तुम हर-एक को चुन-चुन कर गिराते रहोगे?''
उसी 18 फ़रवरी की शाम ब्लिंकन और वांग यी के बीच बातचीत भी हुई। ब्लिंकन ने फिर दोहराया कि चीन का जासूसी गुब्बारा एक 'अनुत्तरदायित्वपू्र्ण कार्य' था। ऐसा फिर कभी नहीं होना चाहिए। साथ ही यह धमकी भी दी कि चीन ने रूस को यदि हथियार वगैरह दिए, तो उसे तुरंत नए प्रतिबंधों का सामना करना पड़ेगा।
पर उपदेश कुशल बहुतेरे : वांग यी ने कुछ ऐसी उपदेशात्मक बातें भी कहीं, जिनका पालन चीन यदि स्वयं करता, तो दुनिया को उससे कोई शिकायत नहीं होती। उन्होंने कहा कि 'मानव समाज को आपसी शत्रुता में नहीं पड़ना चाहिए', देशों की क्षेत्रीय अखंडता का आदर करना चाहिए, दूसरे देशों के घरेलू मामलों में हस्तक्षेप स्थापित मूल्यों का अनादर है। साथ ही इस पर भी ज़ोर दिया कि ताइवान चीन का हिस्सा है। चीनी नेता ऐसे उपदेश देते समय हमेशा जानबूझ कर भूल जाते हैं कि मंचूरिया, सिक्यांग और तिब्बत को हड़पते समय और 1962 में भारत पर हमला करते समय चीन क्या दूसरे देशों की क्षेत्रीय अखंडता का ही आदर कर रहा था?
प्रेक्षकों का मानना है कि यूक्रेन पर रूसी आक्रमण वास्ताव में दुनिया पर अपने रोबदाब की एक नई विश्व-व्यवस्था निरूपित करने की खींचतान है। चीन इस खींचतान का स्वयं एक बड़ा खिलाड़ी बनना चाहता है। रूस की सहायता चीन कर तो रहा है, लेकिन इस तरह बचते-बचाते करता रहा है कि उसे अपने विरुद्ध यूरोप-अमेरिका के किन्हीं नए, कड़े प्रतिबंधों का सामना न करना पड़े।
यूक्रेन में शांति-स्थापना की चीनी योजना : पश्चिमी देशों के गुस्से का का पारा उतारने और और उन्हें किसी हद तक लुभाने के लिए वांग यी ने म्यूनिक में एक ऐसी घोषणा का पटाखा फोड़ा, जो एक झांसा भी हो सकता है। उन्होंने कहा कि उनकी सरकार ने यूक्रेन में शांति-स्थापना के लिए एक योजना तैयार की है। 24 फ़रवरी को, यानी रूसी-यूक्रेनी युद्ध की पहली वर्षगांठ के दिन, वे इस योजना को लेकर मॉस्को जाएंगे।
उनकी योजना क्या है, कैसी ही, इस बारे में उन्होंने कुछ नहीं बताया। लेकिन, पश्चिम में बहुत से लोग इस घोषणा भर से ही गदगद हैं। कुछ दूसरे, जो चीन पर विश्वास नहीं कर पा रहे हैं, वे रूस के साथ किसी भी प्रकार की शांति-वार्ता नहीं चाहते। उनका कहना है कि पुतिन आक्रमणकारी हैं। जब तक वे सत्ता में हैं, तब तक उनसे कोई बातचीत नहीं हो सकती। वे यूक्रेन में जनसंहार करने और वहां अपनी तोपों, टैंकों और ड्रोनों से सब कुछ भूमिसात कर देने के दोषी हैं, इसलिए उनकी जगह केवल किसी जेल की कोठरी में ही हो सकती है, न कि किसी वार्ता की मेज़ पर।
अमेरिकी राष्ट्रपति अचानक पहुंचे कीव : म्यूनिक सम्मेलन के अंतिम दिन सुनने में आया कि अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडन 20 फ़रवरी को यूक्रेन के पश्चिमी पड़ोसी पोलैंड की यात्रा करेंगे। किंतु, 20 जून की सुबह यह समाचार आया कि अमेरिकी राष्ट्रपति कीव में हैं। वहां वे यूक्रेनी राष्ट्रपति वोलोदिमीर जेलेंस्की से मिले और उन्हें 50 करोड़ डॉलर की नई सहायता देंने का वचन दिया। बाइडन, पोलैंड से 10 घंटे की गोपनीय ट्रेन यात्रा के बाद कीव पहुंचे थे। रूस को इसकी सूचना शायद दे दी गई थी, ताकि वह बाइडन की यात्रा के समय कीव पर कोई हवाई हमला न करे।
कीव का हवाई अड्डा रूसी बमबारी से बहुत पहले ही ध्वस्त हो चुका है। अमेरिका ही यूक्रेन की सरकार, उसके कर्मचारियों और सैनिकों के वेतन आदि का ख़र्च उठता है। अब तक100 अरब डॉलर दे चुका है। यूरोपीय संघ के सभी देश और ब्रिटेन भी अरबों डॉलर और तोप-टैंक जैसे भारी हथियार भी दे चुके हैं और आगे भी देते रहेंगे। यूक्रेन अब युद्धक विमानों एवं मिसालों की मांग कर रहा है। आग लगाने वाले ऐसे फ़ॉस्फोररस बम भी चाहता है, जिन पर अंतरराष्ट्रीय प्रतिबंध है। कमाल तो यह है कि यूक्रेन की सहायता के लिए पश्चिमी देशों के पास पैसों की कोई कमी नहीं दिखती, पर मंहगाई से परेशान हड़ताल और प्रदर्शन कर रहे अपने देशवासियों के वेतन बढ़ाने के लिए पैसे नहीं हैं।