अच्छी नौकरी चाहिए तो जर्मनी जाइए, नर्स से लेकर कसाई तक की बड़ी मांग

राम यादव
सोमवार, 2 जनवरी 2023 (19:53 IST)
यूरोप की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था वाला देश जर्मनी तेज़ी से बूढ़ा हो रहा है। लगभग हर क्षेत्र में कुशलकर्मियों के अभाव से लड़ रहा है। अब तक यूरोप के ही अन्य देशों के कर्मियों को वरीयता देता रहा है। पर अब उसे लग रहा है कि भारतीय उसकी समस्या का बेहतर समाधान बन सकते हैं।  
 
2014 से 2019 के बीच भारत से जर्मनी आए उच्च शिक्षा प्राप्त लोगों की संख्या दोगुनी से भी अधिक हो गई। 2020 में कोरोना वायरस का प्रकोप शुरू होने के बाद से इस वृद्धि दर में गिरावट ज़रूर आई है। लेकिन, अब स्थित बदल रही है। जर्मन सरकार अब भारत से सूचना तकनीक वाले आइटी (IT) सेक्टर के अलावा अन्य कार्यों के कुशलकर्मियों को भी आकर्षित करने के उपाय कर रही है। जर्मनी के सरकारी सांख्यिकी कार्यालय के अनुसार, 2004 के अंत में केवल 39,000 भारतीय नागरिक जर्मनी में रह रहे थे। 
 
10 साल बाद, 2014 के अंत में उनकी संख्या बढ़कर 76,000 हो गई। 2019 का अंत आने तक यह संख्या एक बार फिर लगभग दोगुनी होकर 1,44,000  पर पहुंच गई। उस समय जर्मनी में रह रहे 64 प्रतिशत प्रवासी भारतीय अकादमिक स्तर की उच्च शिक्षा प्राप्त लोग थे। इसके विपरीत, दुनिया के अन्य देशों से जर्मनी में आए प्रवासियों के बीच अकादमिक शिक्षा का उनुपात केवल 20.6 प्रतिशत था।
 
भारतीय सबसे अधिक पढ़े-लिखे : जर्मनी में रह रहे 59 प्रतिशत भारतीय 2019 में ऐसे काम-धंधे कर रहे थे, जिनके लिए विश्वविद्यालय स्तर की शिक्षा या उच्चकोटि का प्रशिक्षण मिला होना चाहिए। अन्य सभी लोगों के मामले में यह अनुपात केवल 26.2 प्रतिशत था। इसी तरह आइटी और विज्ञान संबंधी पेशों में 26.6  प्रतिशत भारतीय हैं, जबकि अन्य देशों से आए लोगों का अनुपात केवल 4 प्रतिशत है।
 
शिक्षा और योग्यता में जर्मनी में रहने वाले भारतीय सबको मात भले ही देते हों, संख्या बल में वे दूसरों से बहुत कम हैं। इस कमी का सबसे बड़ा कारण भारतीयों का अंग्रेज़ी भाषा के प्रति अनन्य मोह है। जर्मनी में जर्मन भाषा अनिवार्य है। अंग्रेज़ी की तुलना में काफ़ी कठिन भी है। इसलिए, छूटते ही हर भारतीय इंगलैंड-अमेरिका या कैनडा-ऑस्ट्रेलिया की दौड़ लगाता है, जहां केवल अंग्रेज़ी चलती है।
 
सबसे अधिक औसत वेतन भारतीयों का : जर्मनी के आर्थिक शोध-संस्थान (IW) ने नौकरी-पेशा लोगों की आय के एक विश्लेषण में पाया कि देश में सबसे अधिक औसत मासिक वेतन भारतीय पाते हैं। पूर्णकालिक नौकरी-पेशे वाले भारतीयों की औसत मासिक आय 4,824 यूरो है, जो स्वयं जर्मनों की औसत मासिक आय से 1,300 यूरो अधिक है। एक यूरो इस समय लगभग 87 रुपए के बराबर है। इस तुलना में भारतीय, जर्मनी में रह रहे उसके पड़ोसी नॉर्डिक देशों, स्विट्ज़रलैंड, ऑस्ट्रिया, ब्रिटेन और समुद्रपारीय अमेरिका तथा चीन के नागरिकों को भी पीछे छोड़ देते हैं।  
 
देर से ही सही, पर इन्हीं सब कारणों से, जर्मनी की सरकार अब और अधिक भारतीयों को जर्मनी की तरफ़ आकर्षित करना चाहती है। मोटे-मोटे वेतनों वाले कामों के लिए ही नहीं, ऐसे दूसरे कामों के लिए भी, जिन से जीवन जीने लायक बनता है। जर्मनी को डॉक्टर, इंजीनियर और कंप्यूटर माहिरों से लेकर बस, ट्रक, ट्रेन ड्राइवरों तथा बढ़ई, मिस्त्री, राजगीर, बिजलीसाज़, नर्सों-कसाइयों तक लगभग हर तरह के पेशों के ऐसे लोग चाहिए, जो अच्छे हस्तकर्मी या अपने काम के कुशलकर्मी हों। जिनके पास अपने शिक्षण-प्रशिक्षण और अनुभव के विश्वसनीय प्रमाणपत्र (सर्टिफिकेट) हों, ताकि जर्मनी पहुंचने पर उन्हें उनका काम सिखाने-समझाने की कम से कम ज़रूरत पड़े।
 
थोड़ी-बहुत जर्मन भाषा भी आती हो, तो और भी अच्छा है। जर्मनी में लंबे समय तक रहने के लिए जर्मन भाषा भी कभी न कभी सीखनी ही पड़ेगी। जर्मन सरकार अपने नागरिकता क़ानून को नौकरी-धंधे में लगे विदेशियों के लिए और अधिक सरल बनाने जा रही है। जर्मन भाषा सीख जाने और जर्मनी में 5 वर्ष रहने के बाद ऐसे विदेशी, जर्मन नागिरकता के लिए आवेदन कर सकेंगे। जर्मनी की नागिरकता पाने के लिए अपनी वर्तमान नागरिकता वाले पासपोर्ट को त्यागना अनिवार्य नहीं होगा। दूसरे शब्दों में, जर्मनी दोहरी नागरिकता भी स्वीकार करेगा। लेकिन भारतीय संविधान दोहरी नागरिकता की अनुमति नहीं देता।
 
हमें रसोइए चाहिए, बैरे चाहिए... : जर्मनी की विदेश मंत्री अनालेना बेअरबॉक दिसंबर के आरंभ में जब दिल्ली में थीं, तो उन्होंने कहा कि हमें रसोइए चाहिए, बैरे चाहिए, इंजीनियर और आईटी के माहिर चाहिए... इसके लिए हमें वीसा देने की प्रक्रिया में तेज़ी लानी होगी। अगले साल यह हमारे लिए एक बड़ा काम होगा। उन्होंने माना कि दिल्ली में जर्मन दूतावास वीसा के आवेदनों के ढेर तले दबा जा रहा है। आवेदकों को जर्मनी का वीसा पाने के लिए लंबी प्रतीक्षा करनी पड़ती है।
 
ठीक इस समय जर्मनी में सबसे बड़ी तंगी घरों, अस्पतालों और वृद्धावस्थ आश्रमों में नर्सों की भयंकर कमी से है। देश को 2 लाख अतिरिक्त नर्सें चाहिए। कोरोना ने स्त्री-पुरुष नर्सों की कमी को बुरी तरह बढ़ा दिया है। अनुमान है कि 2030 तक जर्मनी को 5 लाख ऐसे लोगों की ज़रूरत पड़ेगी, जो घरों, अस्पतालों और वृद्धावस्था आश्रमों में सेवा-परिचर्या का काम कर सकें।
 
जर्मनी भारत की अपेक्षा बहुत मंहगा देश है। हर नौकरी-पेशा व्यक्ति के लिए चार बीमे अनिवार्य हैं- पेंशन बीमा, बेरोज़गारी बीमा, स्वास्थ्य बीमा और नर्सिंग बीमा। रिटायर होने पर मासिक पेंशन, नौकरी छूटने पर बेरोज़गारी भत्ता, बीमार होने पर डॉक्टर और अस्पताल का बिल और शारीरिक अक्षमता या बुढ़ापे में सेवा-सुश्रुषा का ख़र्च इन्हीं बीमों द्वारा चुकाया जाता है। आयकर की तरह ही इन बीमों की फ़ीस भी वेतन से काट ली जाती है।
 
चारों बीमों का कुल योग, वेतन के 40 प्रतिशत के बराबर है, जिसका आधा बीमाधारक देता है और दूसरा आधा उसका नियोक्ता। इससे कोई फ़र्क नहीं पड़ता कि नियोक्ता कोई छोटी-मोटी या बड़ी कंपनी है या सरकारी विभाग। परिवार के बच्चों के लिए सरकार बाल भत्ते के रूप में एक अलग करमुक्त अनुदान देती है। 2023 से यह अनुदान पहले तीन बच्चों तक हर बच्चे के लिए 250  यूरो होगा।
जर्मनी भारतीय नर्सें चाहता है : जर्मनी की सरकारी रोज़गार एजेंसी ने भारत से नर्सें लाने के लिए केरल की सरकार से 2021 में एक समझौता किया है। केरल से इसलिए, क्योंकि केरल की कई सौ नर्सें पहले से ही जर्मनी में अपनी सेवाएं दे रही हैं। जनसंख्या के अनुपात में भारत में केरल में ही सबसे अधिक नर्सें हैं और उन्हें ही सबसे बेहतर प्रशिक्षित भी माना जाता है। समझौते के अनुसार, केरल की नर्सें 2023 से जर्मनी पहुंचने लगेंगी। जर्मनी की रोज़गार एजेंसी की इंटरनेट साइट के द्वारा (https://www.arbeitsagentur.de/en) दूसरे राज्यों की प्रशिक्षित नर्सें व स्वस्थ्यकर्मी भी आवेदन करने के लिए अंग्रेज़ी में आवश्यक जानकारी प्राप्त कर सकते हैं।
 
उदाहरण के लिए, केरल की 32 वर्षीय जीशा जॉय 2021 की गर्मियों में जर्मनी पहुंचीं। उन्होंने भारत में नर्सिंग का कोर्स किया था। भारत में ही 8 महीने का जर्मन भाषा का कोर्स भी पूरा किया और अब पूर्वी जर्मनी में थ्युरिंगिया राज्य के एक वृद्धावस्था आश्रम में वृद्धजनों की सेवा-परिचर्या करती हैं। नर्सिंग वाले कामों के लिए वेतन इस समय 2,100 से 3,700 यूरो तक है।
 
वेतन की ऊंचाई के अनुसार, आयकर 14 प्रतिशत से शुरू हो कर 42 प्रतिशत तक जाता है। इसमें यदि पूर्वचर्चित अनिवार्य 'सामाजिक सुरक्षा बीमों' के 20 प्रतिशत को भी जोड़ दें, तो वेतन का कम से कम 34 प्रतिशत हिस्सा पहले ही कट जाता है। मकानों के किराए भी बहुत अधिक होते हैं। इसलिए नर्सिंग सेवाओं वाले वेतनों को बढ़ाकर कम से कम 4,000 यूरो कर देने की मांग हो रही है। बहुत से वृद्धजन किसी वृद्धावस्था आश्रम में जाने के बदले अपने घर में ही रहना और किसी नर्स की सेवाएं पाना पसंद करते हैं। ऐसे लोगों के लिए नर्सें ढूंढने वाली बहुत-सी निजी एजेंसियां हैं।
 
नर्सें ही नहीं, कसाई भी चाहिए : जर्मनी की प्रसिद्ध राइन नदी के दोनों तटों पर बसे, देश के चौथे सबसे बड़े शहर कोलोन के सर्वाधिक बिक्री वाले दैनिक 'एक्सप्रेस' ने, 9 दिसंबर को ख़बर दी कि कोलोन के क़साईख़ानों और मांस विक्रेता-मालिकों का संघ, कर्मचारियों के भारी अकाल का सामना कर रहा है। संघ को पता चला कि दक्षिणी जर्मनी के बाडेन-व्युर्टेमबेर्ग राज्य में स्थित ल्यौराख़ नाम के ज़िले को भारत में नौकरी दिलाने वाली एक ऐसी एजेंसी मिली है, जो 13 नौजवानों को क़साईगिरी का काम सीखने के लिए जर्मनी भेज सकती है। 
 
'एक्सप्रेस' के अनुसार,  इस जानकारी के बाद कोलोन के क़साईख़ानों और मांस विक्रेता-मालिकों के संघ ने भारत की इस एजेंसी से संपर्क किया। संघ के एक पदाधिकारी का कहना है कि यह एजेंसी अब उनके संघ के लिए भी 'पुरुषों और महिलाओं को भर्ती करेगी।'
 
जर्मन भाषा भी सीखनी पड़ेगी : 'एक्सप्रेस'  ने लिखा कि मांस उद्योग के लिए कुशलकर्मियों की तंगी इतनी बढ़ गई है कि भारत से यदि जल्दी ही मदद नहीं आई, तो कोलोन के कई विक्रेताओं को अपना धंधा बंद कर देना पड़ेगा। कुछ शर्तें फिर भी मनवानी पड़ेंगी। भारतीय प्रशिक्षुओं को अन्य बातों के साथ-साथ, जर्मन भाषा भी सीखनी पड़ेगी। उनके हवाई टिकट और रहने की व्यवस्था जर्मन नियोक्ता करेंगे।
 
संघ की 'मास्टर ट्रेनर' अस्ट्रिड श्मित्स ने दैनिक 'एक्सप्रेस' को बताया कि भारत से आने वाले 7 नौजवान जल्द ही उनसे प्रशिक्षण पाना शुरू करेंगे। जर्मन भाषा का एक कोर्स उन्होंने भारत में ही कर लिया है। उनके पास भारत की स्नातकीय (बैचलर) डिग्री है। उन्हें पता है कि उन्हें गोमांस भी बेचना पड़ेगा।
 
'एक्सप्रेस' ने अपने पाठकों को सुझाव दिया है कि नए वर्ष में जब वे इन भारतीयों को कोलोन में मांस बेचते देखें, तो उन्हें 'नमस्ते' कहें। यह भारतीय अभिवादन, जर्मन शब्द 'गूटन टाग (शुभ दिवस)' के समान है, लेकिन रात-दिन हर समय बोला जा सकता है। अख़बार ने ऐसा इसलिए कहा, क्योंकि जर्मन भाषा में दिन के प्रहर के अनुसार सुबह 'गूटन मोर्गन,' 11-12 बजे के बाद 'गूटन टाग,' शाम के समय 'गूटन आबन्ड' और रात में 'गूटे नाख्त' कहने का नियम है।
Edited by: Vrijendra Singh Jhala
 
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