बॉन। क़तर में संपन्न हुए फ़ुटबॉल विश्वकप के अंतिम चरणों में दुनिया ने देखा कि हर हार - जीत के बाद, विशेष कर पश्चिमी यूरोपीय देशों में, जम कर दंगे हुए। हर दंगे में एक ग़ैर-यूरोयूरोपीय नाम बार-बार सुनाई पड़ा –– मोरक्कन। यानी, दंगों की आग यूरोप में रहने वाले मोरक्कन लगा रहे थे।
समस्या यह है कि फुटबॉल भद्रजनों के क्रिकेट जैसा सुस्त खेल नहीं है। क्रिकेट में शायद ही कभी कोई किसी को स्पर्श करता है, धक्का-मुक्की तो भूल ही जाएं। फुटबॉल ऐसी भद्रता से कोसों दूर का एक घमासानी फुर्तीला खेल है। बॉल को हथियाने के लिए छीना-झपटी, धक्का-मुक्की और तेज़-तर्रारी न हो, तो दर्शकों के लिए खेल का सारा मज़ा ही किरकिरा हो जाता है। फुटबॉल पूरे डेढ़ घंटे तक दम-ख़म की पराकाष्ठा के साथ-साथ निःसंकोच चतुराई, निर्मम चपलता और ज़ोर-ज़बर्दस्ती की मांग करता है।
दर्शक एक ऐसे निष्ठुर खेल के मैदान पर चल रहे टकराव से विरक्त नहीं रह पाते। वे किसी टीम के चहेते तो किसी टीम के विरोधी होते हैं। उनके बीच शराबी-कवाबी और गुंडे-बदमाश भी बैठे होते हैं। स्टेडियम में शोर-शराबा गूंज रहा होता है। जो लोग स्टेडियम में नहीं होते, घरों में टेलीविज़न पर, या बाहर कहीं किसी बार, रेस्त्रां अथवा 'पब्लिक व्यूइंग' वाले किसी बड़े स्क्रीन पर मैच देख रहे होते हैं, वे भी इतने उद्वेलित हो जाते हैं कि अपनी चहेती टीम के बचाव में तोड़-फोड़ और मार-पीट पर उतर आते हैं।
फुटबॉल के दीवाने देशों की सरकारें जानती हैं कि हर महत्वपूर्ण मैच के बाद यही होगा। तब भी, कोई सरकार फुटबॉल पर रोक-टोक लगाने की नहीं सोचती। रोक-टोक लगाने से सरकारें खुद ही हिंसा का निशाना बन सकती हैं। वे चाहती हैं कि लोगों का ध्यान मूल समस्याओं से कहीं दूर भटकता रहे।
तोड़-फोड़ का तांडव : हज़ारों यूरो ख़र्च कर क़तर गए यूरोपीय दर्शकों ने अपनी खुशी-खुशी या नाराज़गी वहां की सड़कों पर नहीं उतारी। जो हुड़दंगी तांडव हुए, वे पश्चिमी यूरोप के उन देशों में हुए, जहां उत्तरी अफ्रीका के अरबी देश मोरक्कों से आए लोग अच्छी-ख़ासी संख्या में रहते हैं। वे भी दंगे-फ़साद, आगज़नी और तोड़-फोड़ का तांडव नहीं करते, यदि फुटबॉल की विश्व चैंपियनशिप के इतिहास में उनका देश पहली बार, एक के बाद एक, कई यूरोपीय टीमों को हराकर सेमी फ़ाइनल तक नहीं पहुंच गया होता।
मोरक्को की टीम की अप्रत्याशित सफलता ने यूरोपीय देशों को शर्म से इतना सन्न और इन देशों में रहने वाले मोरक्कनों को गर्व से इतना टन्न कर दिया कि वे आपे में नहीं रहे। अब तक उपेक्षित-तिरस्कृत होते रहे मोरक्कनों को लगा कि, अरे! हमने तो उन्हें नीचा दिखा दिया, जो अपने आप को हम से कहीं श्रेष्ठ और अपराजेय समझते थे। हमें गंभीरता से नहीं लेते थे। खेल, खेल ही नहीं होते। उनमें मिली हार-जीत धार्मिक और राष्ट्रवादी भावनाओं को भड़काती भी है। यूरोप में रह रहे मोरक्कनों के दंगे इन्हीं उन्मादों से प्रेरित थे।
दंगाई मोरक्कन परिवारों के युवा थे : मोरक्को के खिलाड़ियों ने पश्चिमी यूरोप की नामी टीमों के विरुद्ध अपना विजय-अभियान 27 नवंबर को बेल्जियम को 2-0 से हरा कर शुरू किया। उसी दिन बेल्जियम और यूरोपीय संघ की राजधानी ब्रेसेल्स सहित देश के कई अन्य शहरों में भी दंगे हुए। ब्रसेल्स के दंगाई मुख्यतः वहां रहने वाले मोरक्कन परिवारों के युवा थे।
मैच के अंत से पहले ही, स्थानीय समय के अनुसार, तीसरे पहर 3 बजे दंगे शुरू हो गए। आगज़नी के साथ-साथ खूब तोडफोड़ की गई और पुलिस पर पथराव भी हुए। एक पुलिस स्टेशन की खिड़कियों के शीशे तोड़ दिये गए। दो पुलिस कारें भी क्षतिग्रस्त कर दी गईं। एक बस स्टॉप, तीन नाइट क्लबों और सड़कों पर की बत्तियों को भी नुकसान पहुंचाया गया। क़रीब 100 पुलिसकर्मी ड्यूटी पर लगाए गए थे। दंगाइयों को तितर बितर करने के लिए अश्रुगैस के गोलों और पानी की तोपों वाले वाहनों का उपयोग करना पड़ा। ब्रसेल्स की कई सड़कों पर यातायात रोक देना पड़ा। रात 8 बजे के आस-पास यह दंगा शांत हुआ। 119 लोगों की धरपकड़ हुई।
तोड़-फोड़ बना जश्न का पर्याय : लगभग यही हाल बेल्जियम के दूसरे सबसे बड़े शहर अंटवेर्प का भी रहा। वहां भी आगज़नी, तोडफोड़ और पुलिस पर पथराव देखने में आया। पुलिस को पानी की तेज़ धार वाली तोपें इस्तेमाल करनी पड़ी। 20 लोग गिरफ्तार हुए। 27 नवंबर वाले उसी दिन, बेल्जियम के उत्तरी पड़ोसी नीदरलैंड में भी मोरक्कन टीम के चहेतों ने एम्स्टर्डम, रोटरडम और हेग जैसे शहरों में उत्पात मचा कर मोरक्कन टीम की विजय का जश्न मनाया। पुलिस पर पटाखे, कांच के टुकड़े और बोतलें फेंकीं।
पुर्तगाल को 1-0 से मात देकर 10 दिसंबर को मोरक्को की टीम ने क्वार्टर फ़ाइनल में प्रवेश किया। यह पहली बार था कि अफ्रीकी महाद्वीप की कोई फुटबाल टीम विश्व चैंपियनशिप के क्वार्टर फ़ाइनल में पहुंची थी। अफ्रीका ही नहीं, पूरे अरब और इस्लामी जगत की भी छाती गर्व से फूल गई। इसी के साथ यूरोपीय देशों में दंगों - उत्पातों का दायरा भी बढ़ गया।
इटली में गला काटने का प्रयास : उस दिन फ्रांस में पेरिस और उसके आस-पास रहने वाले मोरक्कन व दूसरे लोग, पेरिस की सबसे आलीशान सड़क 'शौंज़ेलीज़े' पर जमा हुए। वहां खूब पटाखे फोड़े, नगाड़े बजाए और मोरक्कन झंडे लहराए। 1 करोड़ 75 लाख की जनसंख्या वाले नीदरलैंड में 2 लाख 60 हज़ार मोरक्कन रहते हैं। नीदरलैंड की पुलिस को भी एक बार फिर प्रमुख शहरों की सड़कों पर उतरना पड़ा। एक बार फिर कई गिरफ्तारियां हुईं। इटली के मिलान शहर में एक व्यक्ति का गला काटने का प्रयास हुआ। उसे तुरंत अस्पताल ले जाकर उसकी जान बचाने के लिए ऑपरेशन करना पड़ा। इटली की 5 करोड़ 90 लाख की आबादी में 5 लाख मोरक्कन हैं।
बेल्जियम की राजधानी ब्रसेल्स में भी पुनः तोड़-फोड़ हुई। इस बार 60 लोग गिरफ्तार हुए। केवल 1 करोड़ 50 लाख की जनसंख्या वाले बेल्जियम में 4 लाख 50 हज़ार मोरक्कन हैं। जर्मनी में रहने वाले मोरक्कनों और अरबों ने भी देश के प्रमुखमु शहरों में पटाखे फ़ोड़कर और सड़कों पर हॉर्न बजाती कारों के काफिले दौड़ाकर जश्न मनाए। जर्मनी में हालांकि कोई दंगे-फ़साद नहीं हुए।
दंगों की पराकाष्ठा : दंगों की पराकाष्ठा तब होने लगी, जब फ्रांस ने 14 दिसंबर के सेमीफ़ाइनल में 2-0 से हराकर मोरक्को को आगे बढ़ना रोक दिया। उस दिन फ्रांस के प्रमुख शहरों में कुल क़रीब 10 हज़ार पुलिसकर्मी तैनात करने पड़े। 5 हज़ार तो अकेले राजधानी पेरिस में ही तैनात थे। अकेले पेरिस और उसके आस-पास के इलाकों में 167 गिरफ्तारियां हुईं। दक्षिणी फ्रांस के मोंपेयेर शहर में 14 साल के एक लड़के की मृत्यु भी हो गई। उसे एक कार ने कुचल दिया। कार-चालक तुरंत फ़रार हो गया। बताया जाता है कि कई लोग कार पर से फ्रांस का झंडा खींच कर उतारना चाहते थे। इससे क्रुद्ध हो कर कार चालक ने अपनी कार और तेज़ कर दी। लड़का अचानक कार के नीचे आ गया। फ्रांस के लियों, नीस और कान शहरों में पुलिस और दंगाइयों के बीच झड़पें हुईं।
14 दिसंबर को ब्रसेल्स में भी फिर से दंगे हुए। इस बार क़रीब 100 लोग पकड़े गये। पुलिस को पानी की तोपों के अलावा मिर्च की बुकबुनी झोंकने वाले स्प्रेयर का भी इस्तमाल करना पड़ा। ब्रसेल्स के अलावा अंटवेर्प में भी फिर से दंगे हुए। दोनों शहरों में पुलिस को किसी कमांडो दस्ते जैसी वर्दियों और हथियारों के साथ सड़कों पर उतरना पड़ा। पुलिस देर रात तक सड़कों पर गश्त लगाती दिखी।
विश्व चैंपियनशिप एक बहाना थी : पश्चिमी यूरोप के देशों में रह रहे मोरक्कनों के बार-बार हुए इन दंगों के लिए फुटबॉल की विश्व चैंपियनशिप मुख्य कारण से अधिक एक बहाना थी। इन दंगों की ख़बर देने वाले पश्चिमी इलेक्ट्रॉनिक और प्रिंट मीडिया ने दंगों का वर्णन तो खूब किया, पर कारण बताने से कतराता रहा। दूसरों पर नस्ली भेदभाव के आरोप लगाने के आदी इन देशों का मीडिया, कारणों के लिए दंगों की जड़ में जाने और अपने ऊपर वैसे ही आरोप लगने से डर रहा था।
उत्तरी अफ्रीका के तीन अरब देश अल्जीरिया, ट्यूनीसिया और मोरक्को अतीत में फ्रांस के उपनिवेश रह चुके हैं। अल्जीरिया को जुलाई 1962 में, ट्यूनीसिया को मार्च 1956 में और मोरक्को को अप्रैल 1956 में आज़ादी मिली। उपनिवेशी अतीत के कारण इन तीनों देशों और फ्रांस के बीच संबंध पूरी तरह तनावमुक्त कभी नहीं रहे।
सही संख्या कोई नहीं जानता : उपनिवेशी अतीत की बलिहारी से ही, औपचारिक तौर पर, आज 5,67,000 अल्जीरियन, 2,18,000 ट्यूनीसियन और 5,11,000 मोरक्कन फ्रांस में रहते हैं। पर, अनौपचारिक तौर पर उनकी संख्या शायद कहीं अधिक है। उदाहरण के लिए, फ्रांस में रहने वाले मोरक्कन उद्भव के लोगों की कुल संख्या 13 लाख आंकी जाती है। फ्रांस की मात्र साढ़े 6 करोड़ की कुल जनसंख्या में मुसलमानों की संख्या 35 से 90 लाख तक बताई जाती है। सही संख्या कोई नहीं जानता।
भारत के समान फ्रांस में भी अल्पसंख्यक-बहुसंख्यक तथा धर्मनिरपेक्षता व धार्मिक स्वतंत्रता की परिभाषा एक अंतहीन झमेला है। जो लोग अपने आप को अल्पसंख्यक अनुभव करते हैं, वे स्वयं को पीड़ित-उपेक्षित मान कर सदा असंतुष्ट रहना अपना जन्मसिद्ध अधिकार समझते हैं। फ्रांस में नेपोलियन प्रथम के समय से ही, यानी क़रीब 230 वर्षों से, पंथ यानी रिलिजन और राज्य को एक-दूसरे से अलग रखने के लिए 'लाइसिते' नाम के जिस शब्द का प्रयोग किया जाता है, उसका अर्थ 'धर्मनिर्मनिरपेक्षता' (सेक्युलयुरिज़्म) या यह नहीं है कि 'राज्य' और 'रिलिजन' बराबर-बराबर की शक्तियां हैं। राज्य, जनता और देश के हित में का कानून -व्यवस्था का रक्षक है, इसलिए उसका स्थान रिलिजन से बहुत ऊपर है।
आज़ादी के नाम पर मनमानी की छूट नहीं : फ्रंस में देश के हर नागरिक को अपने रिलिजन के पालन की आज़ादी तो है, पर आज़ादी के नाम पर मनमानी करने की छूट नहीं है। सारी आज़ादी भी तभी तक है, जब तक रिलिजन हर किसी का निजी मामला बना रहता है; सार्वजर्वनिक क़ानून-व्यवस्था के लिए कोई ख़तरा नहीं बनता। तुर्की ऐसा पहला मुस्लिम देश था, जिसने पहले विश्व युद्ध के बाद फ्रांस के इस सिद्धांत को अपने संविधान में अपना लिया था। हालांकि तुर्की के इस्लामवादी वर्तमान राष्ट्रपति एर्दोआन अब इसकी रत्ती भर भी परवाह नहीं करते।
1980 वाले दशक तक तो सब कुछ ठीक रहा। लेकिन, इस दौरान फ्रांस के पिछले उपनिवेशों से आकर वहां बस गए मुसलमानों की भारी संख्या और उनकी धार्मिक उग्रता से सदियों से वहां रह रहे यहूदियों तथा मूल ईसाई जनता के बीच बेचैनी फैलने लगी। इसका एक पहला परिणाम यह हुआ कि 2004 में सरकार को सरकारी स्कूलों में हिजाब और बुर्के जैसे धार्मिक प्रतीकों पर रोक लगानी पड़ी। इस रोक-टोक को बाद में सरकारी इमारतों और संसद भवन तक फैला दिया गया। धर्म के बहाने से सरकारी नीतियों को प्रभावित करने के प्रयासों को रोका जाने लगा। मुसलमानों से ही नहीं, सबसे कहा जाने लगा कि सेक्युलरिज़्म का अर्थ रिलिजन की निर्बाध छूट नहीं है, क्योंकि ऐसी छूट से देश टूट सकता है।
फ्रांस का ''अलगाववाद विरोधी'' क़ानून : फ्रांस के सभी सरकारी स्कूलों में पहली क्लास से लेकर हाई स्कूल की अंतिम क्लास तक एकसमान पाठ्यक्रम है। स्कूलों को वह जगह माना जाता है, जहां देश के भावी नागरिक और कर्णधार्णधार तराशे जाते हैं। सभी छात्र-छात्राओं को एक माला में पिरोने, उनमें अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और स्त्री-पुरुष समानता के बीज बोने पर बल दिया जाता है। इस सब के बावजूद जब सामुएल पाती नाम के एक अध्यापक की, अक्टूबर 2020 में, गला काटकर हत्या कर दी गई, तब फ्रांस के वर्तमान राष्ट्रपति इमानुएल मैक्रों को, 2021 में, देश की संसद में तथा कथित अलगाववाद विरोधी विधेयक लाना पड़ा। अब वही धार्मिक कट्टरता और आतंकवाद रोकने का एक नया और कड़ा क़ानून होने से अल्पसंख्यकों की आंख का कांटा बन चुका है।
हिजाब और बुर्के पर तो वहां पहले से ही रोक लगी हुई थी। नए क़ानून के अनुसार, फ्रांस के सरकारी अधिकारी ऐसे किसी भी धार्मिक स्थान को कुछ समय के लिए कभी भी बंद कर सकते हैं, जिस पर शक है कि वहां घृणा और हिंसा फैलाई जाती है। जिस किसी धार्मिक संस्था या ट्रस्ट को तुर्की, क़तर या सऊदी अरब जैसे देशों से 10 हज़ार यूरो, यानी साढ़े 8 लाख रुपए से अधिक का कोई दान मिलेगा, उसे यह दान बताना और अपना बही खाता दिखाना होगा। इसी तरह के कुछ दूसरे नियम और उनसे जुड़ी सज़ाएं इस प्रकार हैं:
जेल और ज़ुर्माने की सज़ाएं : उन लोगों को तीन साल जेल के साथ 45 हज़ार यूरो, यानी 38 लाख 15 हज़ार रुपए के बराबर जुर्माने की सज़ा दी जा सकती है, जो किसी के निजी जीवन के बारे में जानकारी फैला कर उसकी जान जोखिम में डालेंगे। किसी ख़ास पुरुष के साथ विवाह के लिए किसी लड़की या महिला पर दबाव डालने पर, या किसी पुरुष द्वारा एक से अधिक महिलाओं से विवाह करने पर, 13 लाख रुपए के बराबर दंड देना पड़ेगा। किसी सरकारी अधिकारी या जनप्रतिनिधि को डरा-धमका कर सेक्युलर मूल्यों के विरुद्ध मजबूर करने पर 65 लाख रुपए के बराबर जुर्माना और 5 साल जेल की सज़ा मिलेगी।
बच्चों को घर पर पढ़ाने की छूट पाने के लिए पहले अनुमति लेनी होगी। सरकार पता लगायेगी कि घर में बच्चों को क्या पढ़ाया -सिखाया जा रहा है, ताकि उनके मन में धार्मिक कट्टरता पनपने को रोका जा सके। उन लोगों को फ्रांस में रहने की अनुमति देने से मना किया जा सकता है, जिनकी कई पत्नियां होंगी। ऐसे विवाह रोके जा सकते हैं, जिनमें किसी महिला पर दबाव डाला जा रहा हो कि वह किसी डॉक्टर से जांच करवा कर प्रमाणित करे कि अभी तक कुंआरी है। जो भी डॉक्टर ऐसी जांच करेगा या ऐसा प्रमाणपत्र देगा, उसे 13 लाख रुपए के बराबर दंड भरना पड़ेगा।
लैंगिक भेदभाव मना है : खेलकूद में लिंग के आधार पर कोई भेदभाव नहीं हो सकता। लड़के-लड़कियों के लिए अलग स्वीमिंग पूल की मांग और अलग पहनावे नहीं चलेंगे। जिन संगठनों और संस्थाओं को सरकार से सहायता मिलती है, उन्हें एक ऐसे समझौ ते पर हस्ताक्षर करने होंगे, जिसमें फ्रांस के संवैधानिक और पंथ निरपेक्ष मूल्यों का सम्मान करने का वचन दिया गया हो। जिन लोगों पर फ्रांस में आतंकवादी गतिविधियों में शामिल होने का आरोप होगा, उन पर धार्मिक संस्थानों के कार्यों में हिस्सा लेने पर 10 साल का प्रतिबंध लग जाएगा। नए क़ानून के अंतर्गत ऐसी निजी कंपनियों को भी बुर्के-हिजाब जैसे पहनावों पर प्रतिबंध का पालन करना होगा, जो सार्वजनिक परिवहन से जुड़ी हुई हैं।
इन नियमों के लागू होने से पहले ही फ्रांस में 37 मस्जिदों, 4 स्कूलों और 210 ऐसे मकानों पर ताले लग चुके थे, जहां मुसलमानों का आना जाना लगा रहता था। उनकी दुकानों, संस्थाओं आदि की तलाशी में 4 करोड़ 30 लाख यूरो मूल्य के बराबर धन और माल-सामान ज़ब्त कर लिए गए थे।
बेल्जियम और नीदरलैंड सहित यूरोप के उन अन्य देशों ने भी, जो ओसामा बिन लादेन के अल क़ायदा या अबूबक्र अल बगदादी वाले वहशी इस्लामी स्टेट के आतंकवाद को झेल चुके थे, ऐेसे ही कुछ नए नियम आदि बनाए। अजीब बात यह है कि इन नियमों को सही बताने वाले यूरोपीय नेता और मीडिया, भारत की बात उठते ही दोगले बन जाते हैं। बीजेपी और मोदी सरकार को हिंदू राष्ट्रवादी, अल्पसंख्यकों का दमनकारी और फ़ासीवादी तक घोषित करने लगते हैं।
फुटबॉल की विश्व चैंपियनशिप में जीत मिली हो या हार, पश्चिमी यूरोप के देशों में रहने वाले मोरक्कनों और उनके समर्थक दंगाईयों तथा हुल्लड़बाज़ों के लिए यह चैंपियनशिप, वास्तव में अपनी कुंठित भड़ास उतारने और यह दिखाने का एक सुनहरा मौका बन गई, कि और कुछ नहीं, तो कम से कम फुटबॉल खेलने में 'हम किसी से कम नहीं।'