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यह थी अंतिम मुगल बादशाह की ख्वाहिश...

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, सोमवार, 31 जुलाई 2017 (20:46 IST)
शोभना जैन
 
यांगून (म्यांमार)। सड़क पर चारों तरफ एक उदासी, तन्हाई, अजीब-सा ठंडापन-सा पसरा हुआ था...गाड़ी तेजी से यांगोन के डेगॉन क्षेत्र के 6 जिवाका रोड की तरफ बढ़ रही थी। गाड़ी में मौजूद सभी लोग भी चुपचाप बैठे हुए थे।
गाड़ी बढ़ रही थी 6 जिवाका रोड की तरफ, रास्ता जो हमें ले जा रहा था लालकिले के पुश्तैनी महल से देश निकाले के बाद अजनबी मुल्क में। वतन की जुदाई तथा अपनी सरजमीं पर लौटने की उम्मीद के धुंधलाने पर तिल-तिल मरते अंतिम मुगल बादशाह बहादुर शाह जफ़र की मजार की तरफ...
 
बहादुर जफ़र की तड़प व तन्हाई न केवल उनकी शायरी से बयान होती है, बल्कि उनकी यहां बनी मजार पर 
उनकी ये तन्हाई, वतन से दूर, वतन में पहुंचने की छटपटाहट और लंबे इंतजार के बाद भी यह चाहत कभी न पूरा हो पाने की नाउम्मीदी इस मजार के चप्पे-चप्पे पर महसूस की जा सकती है। 
 
हालांकि कुछ वर्ष पूर्व पत्रकारिता के एक असाइनमेंट के सिलसिले में मैने म्यांमार की यात्रा की और उस दौरान  मजार के दर्शन किए थे लेकिन वहां बिखरी छटपहाट और तड़प आज भी मन में सिहरन पैदा करती है। कभी रंगून के नाम से मशहूर राजधानी यांगून के बीचोंबीच यह बनी बादशाह जफ़र की यह मजार दरअसल वीराने में एक बेबसी की कहानी है...
 
बादशाह एवं शायर जफ़र भले ही अपने आखिरी दिनों में जलावतन (निर्वासित) होकर दिल्ली के अपने लालकिले से दूर रहे हों, लेकिन मजार के बारे में एक स्थानीय निवासी बताते हैं कि उनकी उनकी मजार को लालकिले का नाम दिया गया है। मरने के बाद उनकी रूह शायद इस ख्याल से कुछ सकून पा लेती होगी कि दिली ख्वाहिश के बावजूद जिस लालकिले में आखिरी सांस लेने की उनके तमन्ना किरच-किरच बिखर गई। उनकी मजार को लालकिले का नाम दिया गया है।
 
इतिहास के पन्नों के अनुसार 1857 के पहले स्वतंत्रता संग्राम में शामिल होने से क्षुब्ध अंग्रेजी हुकूमत ने उन पर 1858 में फौरी मुकदमा चलाया और अक्टूबर 1858 में रात के सन्नाटे में उन्हें कलकता होते हुए एक जंगी जहाज पर बिठाकर रंगून भेज दिया और चार पीढ़ियों से भारत में राज करने के बाद मुगल सल्तनत खत्म हुई और आखिरी मुगल बादशाह, बूढ़े लाचार बादशाह के साथ उनकी बेगम जीनत महल, उनके दो बेटे, बहू और एक पोती जमानी बेगम और दो सिपाही के साथ उन्हें देश निकाला दे दिया गया।
 
तत्कालीन रंगून में उन्हें चार कमरों के एक छोटे से घर में रखा गया और दो तीन कर्मचारी दिए गए। घोर तन्हाई के इस आलम में 7 नवंबर 1862 ने बहादुर शाह जफर की 86 वर्ष की उम्र में मौत हो गई। बहादुर शाह जफ़र ने अपने जीवन के आखिरी चार साल तब के रंगून में बिताए और अपना अकेलापन शायऱी में बयान करने की कोशिश की लेकिन अंग्रेज उनसे इतने भयभीत थे कि वहां उन्हें लिखने-पढ़ने की सामग्री से दूर रखा गया।
 
हालत यह थी कि वे दीवारों पर कच्चे कोयले से शायरी के जरिए अपना दर्द बयान करते थे। उनका इंतजार कभी पूरा नहीं हुआ। दर्द और तन्हाई से भरे मन से अपने वतन को दोबारा देख पाने के इंतजार में ही वे लिखते गए और दुनिया को अलविदा कर गए..
 
उम्रे दराज मांगकर लाए थे चार दिन!
दो आरजू में कट गए दो इंतजार में....
 
एक लम्बे इंतजार का दर्द इन पंक्तियों में झलकता है जिसमें अखिर तक अपने वतन के ठंडे हवा के झोंके को छू लेने की तड़प झलकती है।
 
कहता है रो-रो कर जफ़र 
मेरी आहें रसा का असर 
तेरे हिज्र में न मौत आई अभी 
मेरा चैन गया मेरी नींद गई...
 
इस स्थान पर उनकी बेगम, बेटे और पौत्री, तीनों की मजार साथसाथ है, लेकिन भयभीत अंग्रेज हकूमत मौत के बाद भी बाद्शाह जफ़र से डरते रहे और उन्हें चुपचाप दफना दिया और इसी डर से उन्होंने उनकी मजार दफ़नाने के स्थान की बजाय दूसरे स्थान पर मजार बनवा बनवा दी और उनकी असली मजार गुमनाम ही रही। 
 
एक अकेली और गुमनाम मौत मरे बादशाह जफ़र की वास्तविक मजार का 1991 में एक खुदाई में पता चला। 1994 में म्यांमार सरकार ने भारत सरकार की मदद से उनकी मजार के आसपास और निर्माण कर इमारत बनाई! अब यहां भारत सरकार के सहयोग से हर वर्ष इस तन्हा शायर तथा अंतिम मुग़ल बादशाह के सम्मान में उर्स होता है।
 
भारत से आने वाले शीर्ष राज नेताओं, तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी, मनमोहनसिंह सहित अनेक नेता अक्सर म्यांमार यात्रा के दौरान ने इस अंतिम बादशाह को श्रद्धाजंलि देने यहां आए हैं। 
 
तन्हाई से जूझते जफर ने लिखा था 
 
ना किसी की आँख का नूर हूँ 
न किसी के दिल का करार हूँ 
जो किसी के काम ना आ सके  
मैं वो एक मुश्ते गुबार हूँ...    
   
अब भारत व म्यांमार के सहयोग से की व्यवस्था उनकी मजार पर पांचों वख्त की नमाज तथा फातिहा पढ़ने व्यवस्था है। भले ही ये उदास व गमगीन बादशाह अपने आखिरी दिनों में इतना नाउम्मीद हो चूका था कि उन्हें लगने लगा... 
 
मेरी कब्र पर पढ़े फातिहा कोई आए क्यों 
कोई चार फूल चढ़ाए क्यों 
कोई आके शम्मा जलाए क्यों 
में वो बेबसी का मजार हूँ...    
 
लेकिन मजार पर सूरत (गुजरात) से पिछली चार पीढ़ियों से म्यांमार में बसे व्यवसायी इस्माइल बाक़ीया का परिवार पांचों वख्त नमाज पढ़वाता है तथा यहां फातिहा पढ़ते है ताकि एक उदास व गमगीन बादशाह की रूह को शायद कुछ चैन नसीब हो सके। मजार पर मुस्लिम पूजा पद्धति के साथ- साथ म्यांमार पद्धति के अनुसार भी पूजा की जाती है। मजार की दीवारों पर उनकी शायरी की कुछ लाइनें भी यहां वहां लिखी हुई है... 
 
मरने के बाद इश्क मेरा बेअसर हुआ 
उड़ने लगी है खाक मेरे कुए यार से
 
मजार पर बादशाह जफ़र के आखिरी दिनों में ली गई तस्वीर से झांकती उदास आंखें कहीं बहुत गहरे दिलोदिमाग पर जम जाती है! यांगून यात्रा पर आने वाले भारतीय यात्री अकसर एक अजनबी मुल्क में अपनों से दूर एक गुमनाम मौत मरे अपने बादशाह की मजार पर श्रद्धा सुमन अर्पित करने आते हैं।
 
हमारा लौटने का वक्त है...उदासी और भी गहरी हो गई है...इस शायर बादशाह की बदनसीबी उन्हें अपने वतन  में दफ़न के लिए दो गज जमीन भी ना दिलवा सकी और वो गूंज मानो माहौल में सुनाई दे रही है... 
 
इतना है बदनसीब जफ़र 
दो गज जमीन भी ना मिली कूचे यार में
 
अपने वतन से दूर भटकती उनकी रूह चैन पाए। इसी दुआ के साथ...आमीन!  
(वीएनआई)

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