वामा साहित्य मंच में कर्नल अनुराग शुक्ला ने साझा किए सेना के अनुभव
देश की आजादी में जिन सेनानियों ने योगदान दिया उन्हें हम हर वर्ष याद करते हैं, करना भी चाहिए लेकिन जो इस आजादी की रक्षा कर रहे हैं। जिन्होंने भारत मां की अस्मिता को दुश्मनों से बचा कर रखा है, वे जो सरहदों पर अपने परिवारों से दूर डटे हुए हैं बिना रूके, बिना झुकेा और बिना थके... क्या हम उन जांबाज जवानों को याद करते हैं? क्या जितने सम्मान और स्नेह के वो अधिकारी है उन्हें वह मिल पाता है... उनके परिवार किस स्तर तक समझौता करते हैं.. उनके अपने क्या बलिदान होते हैं, उनकी इस कठोर सेवा के पीछे आखिर किसकी प्रेरणा होती है? कठिन परिस्थितियों में कैसे निभा पाते हैं वह अपने देश के प्रति कर्तव्यों को.. आखिर वह भी है तो इंसान ही...
इसी सोच के साथ सेना के जोश, जज्बे और जुनून को सलाम करते हुए वामा साहित्य मंच ने अपना स्वतंत्रता दिवस अनोखे ढंग से बनाया। शहर की प्रबुद्ध महिलाओं के इस साहित्य संगठन ने अपने अगस्त माह के कार्यक्रम की थीम रखी.. हमारी सेना हमारा गौरव.
इस अवसर पर उनके साथ मुख्य अतिथि के रूप में मौजूद थे कर्नल अनुराग शुक्ला। कर्नल अनुराग 17 साल की उम्र में पुणे स्थित नेशनल डिफेंस अकादमी से सेना में शामिल हुए। देहरादून स्थित इंडियन मिलिट्री अकादमी से उनका प्रशिक्षण संपन्न हुआ और फिर वे पैदल सेना की प्रतिष्ठित बिहार रेजिमेंट में बतौर सेकंड लेफ्टिनेंट पदस्थ हुए।
कर्नल अनुराग शुक्ला 21 वर्षों की सैन्य सेवा के दौरान भारत के विविध भागों में रहें। उन्होंने बताया कि कैसे भारत के मैदान, जंगल, रेगिस्तान और पर्वतों ने उन्हें जीवन की गहरी बातें सिखाई। श्रीलंका में भारतीय शांतिरक्षक दल में 19 महीने खूनी संघर्ष में भाग लेना उनके जीवन का न भूलने वाला अनुभव रहा। कर्नल अनुराग शुक्ला को भारत सरकार से 'मेंशन इन डिस्पैच' शौर्य पुरस्कार से सम्मानित भी किया गया। 2005 में वे स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति लेकर गवली पलासिया महू में ऑर्गेनिक खेती कर नित नए प्रयोग कर रहे हैं। पर्यावरण के प्रति उनका गहरा लगाव है यही वजह है कि पद्मश्री जनक पलटा मगिलिगन के साथ जुड़कर वे जैविक सेतु में प्रति रविवार अपने ऑर्गेनिक उत्पादों के साथ शामिल होते हैं।
वामा साहित्य मंच में कर्नल अनुराग शुक्ला ने सेना से जुड़े कई ऐसे रोमांचक और मार्मिक अनुभव साझा किए जिन्हें सुनकर वामा साहित्य मंच की सदस्यों की आंखें भी नम हो आई। कर्नल अनुराग हिन्दी, अंग्रेजी और उर्दू में लेखन करते हैं। उन्होंने अपनी कुछ कविताएं भी मंच से सुनाई।
इस अवसर पर वामा साहित्य मंच की वे सदस्य जिनके परिवार से कोई व्यक्ति किसी न किसी रूप में सेना से जुड़े हैं, ने भी अपने संस्मरण सुनाए। विनीता शर्मा के अनुसार, मेरे ससुर जी भारत-चीन युद्ध के दौरान अपनी सेवाएं दे चुके थे। बाद में उन्हें गंभीर बीमारी हो गई पर उनमें देश के प्रति जो प्रेम था वह शब्दों में बताना मुश्किल है।
रागिनी सिंह ने बताया कि मेरा बचपन फौजी माहौल में बीता। पापा बीएसएफ में थे तो उनकी पोस्टिंग ज्यादातर बॉर्डर पर ही रहती थी।एक बार दिवाली पर पापा के आने का इंतजार था पर एनवक्त पर उनकी छुट्टी कैंसिल हो गई हम सब बहुत उदास हो गए उस दिवाली पर किसी ने पटाखों को हाथ तक नहीं लगाया। फिर छुट्टी के बाद जब पापा आए तब हमने जमकर दिवाली मनाई। प्रतिभा कृष्ण ने त्रिपुरा की सीमा पर घने जंगलों में सेवाएं दे रहे सैनिकों से मुलाकात के बारे में बताया। बकुला पारेख ने बताया कि उनकी बेटी की शादी जम्मू से कर रहे थे तब जम्मू और भी संवेदनशील था तब जिस तरह रास्ते में सेना के अधिकारियों ने मदद की वह जीवन भर याद रहेगी।
उनसे पहले सचिव ज्योति जैन ने अपनी लेह-लद्दाख यात्रा के संस्मरण सुनाते हुए बताया कि जवानों का यह वाक्य उनके दिल को छू गया, देश की राजनीति चाहे जो भी हो पर सेना पर राजनीति नहीं होना चाहिए। वही अटारी-वाघा बॉर्डर के संस्मरण वसुधा गाडगिल ने बताए।
अध्यक्ष पद्मा राजेन्द्र ने अपने स्वागत भाषण में बताया कि कैसे उन्हें जवानों की दिनचर्या को करीब से जानने का मौका मिला।
वामा साहित्य मंच की अन्य सदस्य सरला मेहता, सुजाता देशपांडे, प्रेमलता मेहता, कविता वर्मा, दीपा व्यास, गरिमा दुबे, पूर्णिमा भारद्वाज, शांता पारेख,आशा वडनेरे, स्नेहा काले, हंसा मेहता, बबिता कड़ाकिया ने भी सेना और जवानों से जुड़े अपने मर्मस्पर्शी अनुभव प्रस्तुत किए।
कार्यक्रम का संचालन विनीता मोटलानी ने किया। अतिथि परिचय ज्योति जैन ने दिया। अतिथि स्वागत श्रीमती मंजु व्यास ने किया। उनके बेटे आर्मी में हैं। बकुला पारेख ने सरस्वती वंदना प्रस्तुत की। आभार माना ब्रजराज व्यास ने।