ओशो रजनीश का जन्म 11 दिसम्बर, 1931 को कुचवाड़ा गांव, बरेली तहसील, जिला रायसेन, राज्य मध्यप्रदेश में हुआ था। उन्हें जबलपुर में 21 वर्ष की आयु में 21 मार्च 1953 मौलश्री वृक्ष के नीचे संबोधि की प्राप्ति हुई। 19 जनवरी 1990 को पूना स्थित अपने आश्रम में सायं 5 बजे के लगभग अपनी देह त्याग दी।
ओशो उन दिनों जबलपुर में योगेश भवन में रहते थे। उन्हें रात के 1 बजे कुछ अजीब लग रहा था। शरीर हल्का हुए जा रहा था तो वो वहां से निकलकर जबलपुर के भंवरताल पार्क में मौलश्री के वृक्ष के नीचे जाकर बैठ गए और लगभग 4 बजे तक वे वहीं बैठे रहे। उन्होंने अपनी इस संबोधि प्राप्ति का वर्णन खुद किया है। उन्हें लग रहा था कि वे ज्योर्तिमय स्वरूप हो गए हैं। बगीचे का प्रत्येक पेड़ और पौधा एक प्रकाशपूंज की भांति नजर आ रहा था। मौलश्री के वृक्ष ने ज्यादा आकर्षित किया इसीलिए वे वहां जाकर बैठ गए और फिर धीरे-धीरे सबकुछ शांत होता गया। कई जन्मों की तलाश समाप्त हो गई।
संबोधि शब्द बौद्ध धर्म का है। इसे बुद्धत्व (Enlightenment) भी कहा जा सकता है। देखा जाए तो यह मोक्ष या मुक्ति की शुरुआत है। फाइनल बाइएटिट्यूड या सेल्वेशन (final beatitude or salvation) तो शरीर छूटने के बाद ही मिलता है। हालाँकि भारत में ऐसे भी कई योगी हुए है जिन्होंने सब कुछ शरीर में रहकर ही पा लिया है। फिर भी होशपूर्ण सिर्फ 'शुद्ध प्रकाश' रह जाना बहुत बड़ी घटना है। होशपूर्वक जीने से ही प्रकाश बढ़ता है और फिर हम प्रकाश रहकर सब कुछ जान और समझ सकते हैं।
क्या होती है संबोधि : संबोधि निर्विचार दशा है। इसे योग में सम्प्रज्ञात समाधि का प्रथम स्तर कहा गया है। इस दशा में व्यक्ति का चित्त स्थिर रहता है। शरीर से उसका संबंध टूट जाता है। फिर भी वह इच्छानुसार शरीर में ही रहता है। यह कैवल्य, मोक्ष या निर्वाण से पूर्व की अवस्था मानी गई है। लगातार श्वास प्रश्वास पर ही ध्यान देते रहने या साक्षी भाव में रहने से यह घटित हो जाती है।
विचार और भावनाओं के जंजाल में हम कहीं खो गए हैं। आत्मा पर हमारी इंद्रियों की क्रिया-प्रतिक्रिया का धुआं छा गया है। साक्षी भाव का मतलब होता है निरंतर स्वयं को जानते हुए देखते रहना। जीवन एक देखना ही बन जाए। होशपूर्वक और ध्यानपूर्वक देखना, जानना और समझना। देखते हुए यह भी जानना की मैं देख रह हूं आंखों से। देखते रहने की इस प्रक्रिया से चित्त स्थिर होने लगता है। यह स्थिरता जब गहराती है तो साक्षित्व घटित होने लगता है। साक्षित्व भाव जब गहराने लगता है तब संबोधि घटित होती है। प्रत्येक आत्मा का लक्ष्य यही है। कुछ इस लक्ष्य को जानते हैं तो अधिकतर नहीं।
जहां-जहां हम अपने को मूर्च्छा में पाएं, हम यांत्रिक हो जाएं, वहीं संकल्पपूर्वक हम अपने स्मरण को ले आएं। यह होश में जीना ही संपूर्ण धर्म के ज्ञान का सार है। होशपूर्वक जीते रहने से ही संबोधि का द्वार खुलता। यह क्रिया ही सही मायने में स्वयं को पा लेने का माध्यम है। दूसरा और कोई माध्यम नहीं है। सभी ध्यान विधियां इस जागरण को जगाने के उपाय मात्र हैं।