आर्य समाज के संस्थापक स्वामी दयानंद सरस्वती की जयंती

Webdunia
Dayananda Saraswati
 

स्वामी दयानंद सरस्वती का जन्म मोरबी (मुम्बई की मोरवी रियासत) के पास काठियावाड़ क्षेत्र जिला राजकोट, गुजरात में सन् 1824 में एक ब्राह्मण परिवार में हुआ। मूल नक्षत्र में जन्म होने के कारण उनका नाम मूलशंकर रखा गया था। उन्होंने वेदों के प्रकांड विद्वान स्वामी विरजानंद जी से शिक्षा ग्रहण की थी। 
 
एक समय की बात है। स्वामी विरजानंद (दंडी स्वामी) की पाठशाला में कई शिष्य आते, कुछ समय तक रहते मगर उनके क्रोध, उनकी प्रताड़ना को सहन न कर सकने के कारण भाग जाते। कोई-कोई शिष्य ऐसा निकलता, जो उनके पास पूरा समय रहकर पूरी शिक्षा पा सकता। यह दंडी स्वामी (स्वामी विरजानंद) की एक बड़ी कमजोरी थी। 
 
दयानंद सरस्वती को भी उनसे कई बार दंड मिला, मगर वह दृढ़ निश्चयी थे अत: पूरी शिक्षा प्राप्त करने का संकल्प किए, डटे रहे। एक दिन दंडी स्वामी को क्रोध आया और उन्होंने अपने हाथ के सहारे ली हुई छड़ी से दयानंद की खूब पिटाई करते हुए उसकी खूब भर्त्सना कर दी। मूर्ख, नालायक, धूर्त... पता नहीं क्या-क्या कह कहते चले गए।
 
 
दयानंद के हाथ में चोट लग गई, काफी दर्द हो रहा था, मगर दयानंद ने बिलकुल भी बुरा नहीं माना बल्कि उठकर गुरुजी के हाथ को अपने हाथ में ले लिया और सहलाते हुए बोले- 'आपके कोमल हाथों को कष्ट हुआ होगा। इसके लिए मुझे खेद है।'
 
दंडी स्वामी ने दयानंद का हाथ झटकते हुए कहा- 'पहले तो मूर्खता करता है, फिर चमचागिरी। यह मुझे बिलकुल भी पसंद नहीं।' पाठशाला के सब विद्यार्थियों ने यह दृश्य देखा। उनमें एक नयनसुख था, जो गुरुजी का सबसे चहेता विद्यार्थी था। नयनसुख को दयानंद से सहानुभूति हो आई, वह उठा और गुरुजी के पास गया तथा बड़े ही संयम से बोला- 'गुरुजी! यह तो आप भी जानते हैं कि दयानंद मेधावी छात्र है, परिश्रम भी बहुत करता है।'
 
 
दंडी स्वामी को अपनी गलती का अहसास हो चुका था। अब उन्होंने दयानंद को अपने करीब बुलाया। उसके कंधे पर हाथ रखकर बोले- 'भविष्य में हम तुम्हारा पूरा ध्यान रखेंगे और तुम्हें पूरा सम्मान देंगे।' जैसे ही छुट्टी हुई, दयानंद ने नयनसुख के पास जाकर कहा- 'मेरी सिफारिश करके तुमने अच्‍छा नहीं किया, गुरुजी तो हमारे हितैषी हैं। दंड देते हैं तो हमारी भलाई के लिए ही। हम कहीं बिगड़ न जाएं, उनको यही चिंता रहती है।' 
 
धर्म सुधार हेतु अग्रणी रहे दयानंद सरस्वती ने 1875 में गिरगांव, मुंबई में आर्य समाज की स्थापना की थी और पाखंड खंडिनी पताका फहराकर कई उल्लेखनीय कार्य किए। यही दयानंद आगे चलकर महर्षि दयानंद बने और वैदिक धर्म की स्थापना हेतु 'आर्य समाज' के संस्थापन के रूप में विश्वविख्यात हुए। 
 
आर्य समाज की स्थापना के साथ ही भारत में डूब चुकी वैदिक परंपराओं को पुनर्स्थापित करके विश्व में हिन्दू धर्म की पहचान करवाई। उन्होंने हिन्दी में ग्रंथ रचना आरंभ की तथा पहले के संस्कृत में लिखित ग्रंथों का हिन्दी में अनुवाद भी किया। महर्षि दयानंद सरस्वती का भारतीय स्वतंत्रता अभियान में भी बहुत बड़ा योगदान था। वेदों का प्रचार करने के लिए उन्होंने पूरे देश का दौरा करके पंडित और विद्वानों को वेदों की महत्ता के बारे में समझाया।
 
संस्कृत भाषा में उन्हें अगाध ज्ञान होने के कारण स्वामीजी संस्कृत को एक धारावाहिक रूप में बोलते थे। उन्होंने ईसाई और मुस्लिम धर्मग्रंथों पर काफी मंथन करने के बाद अकेले ही तीन मोर्चों पर अपना संघर्ष आरंभ किया जिसमें उन्हें अपमान, कलंक और कई कष्टों को झेलना पड़ा। दयानंद के ज्ञान का कोई जवाब नहीं था। वे जो कुछ कह रहे थे, उसका उत्तर किसी भी धर्मगुरुओं के पास नहीं था। 
 
'भारत, भारतीयों का है' यह उनके प्रमुख उद्‍गार है। स्वामी जी के नेतृत्व में ही 1857 के स्वतंत्रता संग्राम क्रांति की संपूर्ण योजना तैयार की गई थी और वही उसके प्रमुख सूत्रधार थे। 'भारत, भारतीयों का है' यह अंग्रेजों के अत्याचारी शासन से तंग आ चुके भारत में कहने का साहस भी सिर्फ दयानंद में ही था। उन्होंने अपने प्रवचनों के माध्यम से भारतवासियों को राष्ट्रीयता का उपदेश दिया और भारतीयों को देश पर मर मिटने के लिए प्रेरित करते रहे। 
 
एक बार औपचारिक बातों के दौरान अंग्रेज सरकार द्वारा स्वामी जी के सामने एक बात रखी गई कि आप अपने व्याख्यान के प्रारंभ में जो ईश्वर की प्रार्थना करते हैं, क्या उसमें अंग्रेजी सरकार के कल्याण की भी प्रार्थना कर सकेंगे। तो स्वामी दयानंद ने बड़ी निर्भीकता के साथ जवाब दिया 'मैं ऐसी किसी भी बात को स्वीकार नहीं कर सकता। मेरी यह स्पष्ट मान्यता है कि मैं अपने देशवासियों की निर्बाध प्रगति तथा हिन्दुस्तान को सम्माननीय स्थान प्रदान कराने के लिए परमात्मा के समक्ष प्रतिदिन यही प्रार्थना करता हूं कि मेरे देशवासी विदेशी सत्ता के चुंगल से शीघ्र मुक्त हों।' और उनके इस तीखे उत्तर से तिलमिलाई अंग्रेजी सरकार द्वारा उन्हें समाप्त करने के लिए तरह-तरह के षड्यंत्र रचे जाने लगे।
 
महान समाज-सुधारक स्वामी जी का देहांत 30 अक्टूबर 1883 को दीपावली के दिन संध्या के समय हुआ था। 

सम्बंधित जानकारी

Show comments
सभी देखें

ज़रूर पढ़ें

Chanakya Niti : चाणक्य नीति के अनुसार धरती पर नर्क भोगता है ऐसा आदमी

Shradh paksha 2024: श्राद्ध पक्ष में कब किस समय करना चाहिए पितृ पूजा और तर्पण, कितने ब्राह्मणों को कराएं भोजन?

Tulsi Basil : यदि घर में उग जाए तुलसी का पौधा अपने आप तो जानिए क्या होगा शुभ

Shradh paksha 2024: श्राद्ध पक्ष आ रहा है, जानिए कुंडली में पितृदोष की पहचान करके कैसे करें इसका उपाय

Shani gochar 2025: शनि के कुंभ राशि से निकलते ही इन 4 राशियों को परेशानियों से मिलेगा छुटकारा

सभी देखें

धर्म संसार

Surya gochar in kanya: सूर्य के कन्या राशि में जाने से क्या होगा 12 राशियों का हाल, जानिए राशिफल

17 सितंबर 2024 : आपका जन्मदिन

17 सितंबर 2024, मंगलवार के शुभ मुहूर्त

Anant Chaturdashi 2024: अनंत चतुर्दशी पर क्यों और कैसे करते हैं भगवान अनंत की पूजा, जानिए अचूक उपाय

Ganesh visarjan 2024 date and Muhurat: इस दिन और इस मुहूर्त में इस विधि से करें गणपति विसर्जन

अगला लेख
More