मैं इराक के अपने अनुभवों को वहाँ की राजनैतिक, आर्थिक, भौगोलिक स्थितियों के हवाले से न बाँटकर आपको यादों की उन सुखद गलियों में ले जाना चाहती हूँ जहाँ पहुँचकर आप अनायास पूछ बैठेंगे 'क्या सचमुच यह इराक है?' ऐसा ही शंका और दुख से भरा प्रश्न मेरे सामने भी आकर खड़ा हो जाता है, जब आज के उजड़ते इराक की तस्वीर समाचार पत्रों या टीवी पर देखने को मिलती है।
हमने तो इराक को उस समय देखा है, भोगा है, अनुभव किया है जब वह 'पेराडाइज ऑफ मिडिल ईस्ट' कहलाता था। जहाँ झिलमिलाती रोशनी में सड़कों पर स्वर्ग सी अप्सराएँ घूमा करती थीं। वे स्कर्ट, ब्लाउज, ट्राउजर पहनती थीं। वहाँ पर्दा-प्रथा नहीं थी। लड़कियाँ स्कूल-कॉलेज जाती थीं। इंजीनियर, डॉक्टर बनती थीं। नौकरियाँ करती थीं। यहाँ तक कि शिक्षित लोगों की जागरूकता के कारण बहु-पत्नी प्रथा खत्म हो चुकी थी।
सामाजिक बदलाव के साथ वहाँ औद्योगिक क्रांति भी आ रही थी। बाहर के लोगों को बुलाकर इराक में कई प्रोजेक्ट चल रहे थे। मतलब इराक की विकास यात्रा अपने यौवन पर थी। लाशों के उड़ते चिथड़े कानों को सुन्न कर देने वालों बमों की आवाज, सड़कों पर बहता लहू रोते-बिलखते इंसान, इराक की पहचान नहीं थे।
वहाँ उस समय थोड़ी परेशानी थी तो इतनी कि सद्दाम की पार्टी के लोग तानाशाही पर उतारू थे। पर इससे आम आदमी को कोई तकलीफ नहीं थी। रोटी, कपड़ा, मकान सब मिलता था। फिर थोड़ा सा सद्दाम से डरने में क्या हर्ज था? सद्दाम ने जुल्म ढाए, सद्दाम क्रूरता की हदें पार करता था। यह तो भारत लौटने पर या यूँ कहना चाहिए कि अमेरिका के हमले के बाद मालूम पड़ा।
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हाँ, पर सद्दाम के खिलाफ आवाज उठाने की हिम्मत कोई नहीं कर सकता था। हमारे घर मिसेज खुर्शीद का आना जाना था, जब उन्हें भारत में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के बारे में बताते थे तो उनकी आँखें फटी की फटी रह जाती थीं। वे तो सपने में भी नहीं सोच सकती थीं कि कोई स्टेज पर खड़ा होकर माइक लगाकर अपने नेता को भला-बुरा भी कह सकता है। वे अक्सर इसी कारण भारत में रहने की इच्छा जाहिर करती थीं।
अब तो शायद उनके सातों बेटे आर्मी में भर्ती हो चुके होंगे। क्योंकि हम लोग इराक-ईरान के युद्ध के समय वहाँ थे तभी हर घर से एक व्यक्ति का फौज में भर्ती होना जरूरी हो गया था। अब तो हालात और भी खराब हो गए हैं। मिसेज खुर्शीद आज भी मेरी आँखों से ओझल नहीं हो पा रही हैं।
बगदाद का 'लूना पार्क' अली-अली बेग का पिकनिक स्पॉट, बसरा का समुद्र किनारा, मौसूल, तिकरित, दोहक, दिवानिया, अरबिल, करबला... इन सबका क्या हुआ होगा?
हम लोग बगदाद से 200-250 किमी दूर 'किरकुक' शहर में रहते थे। हमारी साइट किरकुक शहर से 4-5 किमी दूर थी। साइट के चारों तरफ ऑइल रिफायनरी, रेलवे ट्रेक आदि होने से महत्वपूर्ण स्थान था। हमारी साइट पर एक इराकी इंजीनियर लड़की थी जो मुश्किल से 23-24 साल की होगी। वह हमारी कंपनी के काम को ओके करती थी तभी बिल पास होते थे। उसको किताबी ज्ञान था।
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छोटी-छोटी बातों में मीन-मेख निकालती थी। साइट पर एक से एक दिग्गज इंजीनियर थे। लेकिन उससे ज्यादा बहस नहीं कर सकते थे। बस समझाते रहते कि प्रैक्टिकल थोड़ा सा अलग रहता है। उनमें एक चीफ इंजीनियर थे वे हमेशा कहते इस बला की उम्र से ज्यादा तो मेरा अनुभव है, पर ये मानती ही नहीं। एक बार ऐसी ही उनकी बहन चल रही थी कि वह तुरंत बोली 'लुक, मिस्टर नाऊ दोंत तेल मी योर एक्सपीरियंस इज मोर देन माई एज एंड आय एम नात ए बला' इतना सुनकर वे अवाक रह गए।
फिर उसने हँसकर बताया कि वह रोज मिसेज शर्मा से हिन्दी सीखती है। हिन्दी सीखकर वह भारत के साहित्य को पढ़ना चाहती है। क्योंकि भारतीयों से मिलकर उसे ऐसा अहसास हुआ कि वहाँ की संस्कृति, परंपरा की कोई तुलना नहीं। वह भारत के बारे में अधिक से अधिक जानना चाहती है। सचमुच वहाँ भारत के लोगों के प्रति सबको इतना स्नेह, सम्मान था कि दिल बाग-बाग हो जाता था।
इराक के राजनीतिज्ञों के बारे में तो मालूम नहीं लेकिन आम आदमी तो बहुत ही सहज मददगार आतिथ्य में विश्वास रखने वाला था। एक बार हम लोग बगदाद के होटल में खाना खा रहे थे। मेरी छोटी बेटी दो-ढाई साल की थी। वह चारों तरफ घूम रही थी। कभी किसी टेबल के पास जाती, कभी किसी। मैंने देखा हर कोई उसे दिनार पकड़ा रहा था।
इराक में कुर्दीश लोगों की जरूर दहशत थी कि वे खूँखार होते हैं। उनके बारे में तो ये प्रचलित था कि कोई फूल तोड़ने में भी शायद थोड़ा समय लगाए तो वे धड़ से गर्दन अलग करने में एक पल की भी देरी नहीं करते। सद्दाम से भी उनकी लड़ाई चलती रहती थी। उनके ही एरिया में एक खूबसूरत पिकनिक स्पॉट था 'दोकान'। वह रास्ता इतना खतरनाक माना जाता था कि शाम को चार बजे वह रास्ता सील कर दिया जाता था। हमारी साइट के लोग पिकनिक करने जाते थे तब विशेष हिदायत दी जाती थी कि रास्ता बंद होने से पहले अर्थात चार बजे के पहले वहाँ से निकल आना। लेकिन पिकनिक स्पॉट पर यदि रात्रि में न रुकें तो आनंद ही अधूरा इसलिए सभी की गाड़ी पंचर हो जाती थी, और चार बज जाते थे। रास्ता बंद हो जाता था। और वहाँ रुकना पड़ता था।
जब भी कोई 'दोकान' जाने के लिए निकलता साइट इंचार्ज कहते 'प्लीज गाड़ी पंचर मत करवाना' हम लोग भी जब जाने को निकले तो वैसा ही आदेश हमें मिला। हमारे साथ 4-5 युवा इंजीनियर थे तुरंत बोले 'बिल्कुल नहीं सर' हमारे साथ चाची, भाभी, बच्चे हैं गाड़ी पंचर नहीं होगी। थोड़ी दूर जाने के बाद बोलते ब्रेक तो खराब हो सकते हैं न। कब तक एक ही बहाने से रुकेंगे। उसकी इस बात पर सब हँसने लगे।
वहाँ पहुँचकर कॉटेज बुक कराई। दाल-चावल का इंतजाम किया। वहाँ शाकाहारियों को बहुत दिक्कत होती है। आपसे पूछेंगे 'वेजेतेरियन' हाँ बोलने पर आपके सामने ही बिरयानी में से मीट और चिकन अलग कर परोस देंगे। भोजन की व्यवस्था करने घूमने निकल गए। शाम भी हो चली थी। अब सबको डर लगने लगा। कुर्दीश लोग विदेशियों का अपहरण करके अपनी माँगें पूरी करवाते थे। सबको यह बात याद आते ही भय लगने लगा। थोड़ा और भटकने के बाद अँधेरा हो गया।
इतने में पीछे से एक कुर्दीश दौड़ता आया और हमारे सामने बंदूक लेकर खड़ा हो गया। 'इंडियन' उसने पूछा। हम लोगों ने हामी भरी। उसने इशारे से पीछे आने को कहा। हम लोग उसके पीछे-पीछे अपने-अपने ईश्वर को याद करके चल पड़े। काफी दूर चलते रहे। बाद की एक पगडंडी पर तो एक के पीछे एक को चलना पड़ रहा था। हम लोग पीछे देखते जा रहे थे कि पीछे थोड़ी सी चहल-पहल दिखी। थोड़ा और आगे जाने के बाद तो हमने वह दुकान भी पहचान ली जहाँ से दाल-चावल खरीदे थे।
उस कुर्दीश ने दुकानदार से बात की। दुकानदार को थोड़ी बहुत अँगरेजी आती थी उसने हमें बताया कि यह कह रहा है कि वह इंडिया और वहाँ के लोगों की बहुत इज्जत करता है। हमने उसकी तरफ देखा जब दुकानदार के मुँह से 'इंडिया' आया उस खूँखार इंसान ने अपनी बंदूक जमीन पर रखकर झुककर अभिवादन किया। मुझे वे क्षण आज ज्यों के त्यों नजर सामने हैं। आज भी उस बात की याद करके मैं रोमांचित हो जाती हूँ। दूसरे के देश के प्रति इतना सम्मान, वहाँ के लोगों के प्रति इतनी इज्जत। जाते-जाते वह नमस्ते कहकर गया। इराक जाने पर जब भी कोई पहली बार दुकान पर कुछ खरीदने जाता बड़ा मजा आता था। दुकान में घुसते ही वह पूछता 'नाम' मैं कहती नियति सप्रे। वह पता नहीं क्या समझता पूरी दुकान में कुछ ढूँढता और आकर कहता 'माकू' मतलब नहीं है। बाद में मालूम पड़ा कि नाम मतलब क्या चाहिए?
हमारे घर झाड़ू-पौंछा करने वाली इराकी महिला रोजे के दिनों में इशारे से हमको बताती थी कि वह भूखी नहीं रह सकती थी। उसको खाने को चाहिए। फिर वह स्वयं ही दरवाजे, खिड़की बंद करती, पर्दे भी लगा देती और पेट भर खाना खाती। खाना खाने के बाद पता नहीं क्या-क्या बोलती रहती इतना जरूर समझ आता कि वह तृप्त होकर आशीर्वाद दे रही है। 8-10 दिन बाद खुद ही बताती कि घर के लोग कह रहे हैं इस बार उपवास करके भी तुम कमजोर नहीं दिख रही हो। हमें बताती जाती और हँसती जाती। मैंने इशारे से पूछा यदि मालूम पड़ गया तो। उसने भी हाथों के इशारे से बताया कि शरीर के टुकड़े-टुकड़े कर देंगे।
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वहाँ बांग्लादेश, पाकिस्तान, जर्मनी, जापान सभी जगह के लोग थे। लेकिन उसने इतनी कट्टर रूढ़ि को तोड़ने के लिए भारतीय को ही हमराज क्यों बनाया तो बोली 'इंदियन' पर उसे बहुत भरोसा है। सचमुच भारत के प्रति प्रेम रखने वाले लोग, दूसरे के देश के प्रति आदर से नतमस्तक होने वाले लोग निर्मोही हो सकते हैं क्या? वहशी हो सकते हैं क्या? विद्रोही हो सकते हैं क्या? सभी प्रश्नों का जवाब यदि नहीं है तो फिर कौन हैं वो लोग जो यह सब कर रहे हैं? क्यों कर रहे हैं? मासूम निष्पाप बच्चों का बचपन कौन छीन रहा है?
हजारों प्रश्न इराक की सुखद स्मृतियों के साथ जुड़ गए हैं। सामने देखकर पढ़कर भी मेरी सुखद स्मृतियाँ विश्वास नहीं करती कि ये उसी इराक का रूप है। दिलोदिमाग से प्यारा, भोले- भाले इंसानों से भरा इराक जाना ही नहीं चाहता। इराक का विकराल रूप देखकर भी मन कहता है ये झूठ है। कैसे मिटेगी वह अमिट छाप जो दिल पर अंकित हो गई है। कितने बम विस्फोटों के बाद मैं भुला पाऊँगी, कैसे बिसरा पाएँगे वे पल जो हँसते-खेलते गुजारे हैं।