बात उन दिनों की है जब मेरे पापा, ऑडिनेंस फैक्ट्री, कानपुर में कार्यरत थे। फैक्ट्री के ही कैंपस में हमें बड़ा-सा घर मिल गया था। उस दिन हम तीनों भाई-बहन मम्मी के साथ नानी के घर गए थे। मां ने उस दिन नानी के घर ही रुक जाने की बात कही, जो हम तीनों ने सिरे से खारिज कर दी। बाद में यही तय हुआ कि मां नानी के घर ही रुक जाएगी और हम तीनों वापस अपने घर जाएंगे।
नानी के घर से निकलते समय आसमान बादलों से ढंका था, पर हमने इसकी परवाह नहीं की। रिक्शे पर सवार हम आधी दूर भी नहीं नाप पाए थे, कि मुसलाधार बारिश शुरु हो गई। रुक कर इंतजार करना बेकार था और अंधेरा भी घिरने लगा था, सो किसी तरह उस 'हूड' लगे रिक्शे में बैठ हम घर तक पहुंच ही गए।
हम काफी भीग चुके थे। तीनों का ही मन था कि घर खोलकर जल्दी से कपड़े बदलकर आराम किया। बड़े भाई ने पॉकेट में हाथ डाल चाबी निकालनी चाही, चाबी वहां नहीं थी। दूसरी पॉकेट, फिर पैंट की पॉकेट के अस्तर तक उल्टे गए, पर चाबी होती तो न मिलती! भाई की शक्ल देखने वाली थी, अब तक हम दोनों छोटों पर रौब दिखाने वाले भाई, खिसिया रहे थे।
घर न खुल पाने का अफसोस तो था ही। पर जनाब, पेट भी तो बगावत कर बैठा। सोचा मम्मी-पापा के इतने दोस्त हैं, उन्हें ही सेवा का मौका दें। भाई ने जो घर सुझाया, वो हम दोनों को भाया नहीं। आज बहूत दिनों बाद ऐसा मौका हाथ आया था, जो घर हम दोनों ने बताया, उनकी बेटियों से भाई का छत्तीस का आंकड़ा था।
आखिर हम तीनों दो घरों में बंट गए। हमने आंटी की बेटियों के औसत से बड़े कपड़े पहन रात काटी। मां ने रात में ही चाबी का गुच्छा डांइनिग-टेबल पर रखा देख लिया था। पर खराब मौसम ने उनके कदम रोक लिए थे। सुबह होते ही मम्मी घर पहुंच चुकी थी। हमें बुलवाने को हलकारे भेजे गए। हमारे ही सामने मां ने भाई को आड़े हाथों लिया, जिसका हम दोनों भाई-बहन ने खुब लुफ्त उठाया।
उस दिन के बाद से भाई घर से निकलने से पहले अपना सारा सामान चेक कर लेना नहीं भुलते...और न ही वो बरसात की रात हम भूल पाते हैं।