स्मृति शेष : दिनेश जोशी - खिलखिलाती स्मृतियां

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-सुबोध होलकर
 
उससे मेरी दोस्ती कब और कैसे हुई, कुछ याद नहीं, और इसकी कोई जरूरत भी नहीं। हाँ, लेकिन ये कभी नहीं भूला जा सकता कि क्या खूब दोस्ती थी, क्या खूब समझ! हमने नईदुनिया में बरसों साथ काम किया, ...वहीं ये दोस्ती पली-बढ़ी।
 
उसका हास्यबोध गजब था। मैंने अपनी जिंदगी में महज दो-चार दोस्त ही ऐसे पाए हैं जिनकी एक अलग श्रेणी है। दफ्तर में हम दोनों हंसी-मज़ाक और ठहाकों की वजह से कुछ बदनाम हो गए थे। हालांकि होना तो ये चाहिए था कि खुशनाम होते। इसकी एक पुख्ता वजह ये है कि दुनिया में तेरह फीसदी लोग दूसरों को खुश देखकर दुखी हो जाते हैं। यहां मैं उन्हें दोष नहीं दूंगा। वे लोग बने ही इसलिए होते हैं।
 
तो हुआ यों कि हँसने-मुस्कुराने के लिए चेहरे की कुछ खास माँसपेशियों को काम करना पड़ता है, और दफ्तर में कुछ ऐसे साथी थे जिन्होंने इन स्नायुओं से काम लेना बंद दिया था... तो रफ्ता-रफ्ता अनुपयोग के कारण ये स्नायु भंगार हो गए थे। जब दिनेश और मैं अट्टहास करते तो उन्हें मुस्कुराने में भी बड़ी पीड़ा होती थी। मैं उनका दर्द समझ सकता हूं।
 
उन बेचारों ने हमारी शिकायत वरिष्ठों से कर दी। यहां मैं आपको एक शाश्वत सत्य से रूबरू कराने की गुस्ताखी करूं... कि जो, जैसा, जितना वरिष्ठ होता जाता है वो, वैसा, उतना ही हंसी-मजाक से दूर होता जाता है। खैर, शिकायत हुई तो सुनवाई भी होनी थी। पहले हमें निगाह में रखा गया कि हम क्यों हँस रहे हैं।
 
इतनी विषम परिस्थितियों के बावजूद... शोषण को जानकर अनदेखा करते हुए... अपनी मजबूरियों को पैसे में ढालते हुए... जो करना, निबाहना हमें सबसे ज्यादा प्रिय था... ठीक वो ही न करते हुए हम हँस रहे थे। हँस रहे थे तो रुआँसे लोगों की प्रतिक्रिया शिरोधार्य करनी ही थी, सो की।
 
काका को,  सब उसे 'काका' कहते थे... मैं उसे काके!! उसे बुलाया गया, पूछताछ हुई। काके ने वो ही जवाब दिया जो गैलिलियों ने बैलिलियो को दिया था। लेकिन इस हादसे के बाद ये हुआ कि हम हँसते थे तो देखते थे कि कोई देखता ना हो। हँसना अपराध की सफ में आ गया था।
 
संगीत उसका दूसरा शौक था। खासतौर से पुराने मेलोडियस फिल्मी नग्मे। कई बार उसका फोन आया 'अबे जल्दी रेडियो ऑन कर' या फिर वो मुझे फोन पर ही गाना सुना देता। फिर हम उस गाने पर, धुन और अल्फाज पर खूब बातें करते।
 
एक दिन काका टेम्पो-वेम्पो में कहीं बैठा। दफ्तर आते ही उसने क्या गुणगान किए टेम्पो यात्रा के। खासतौर पर उस गाने के जो टेम्पो में बज रहा था- मेरे सपने में आना रे सजना...। गीत के एक-एक शब्द पर, बारीकियों पर काका ने बहुत भावुक होकर बात की। मैंने पहली बार उस गाने को इतना डूबकर जाना, महसूस किया। ...आप भी हो सके तो जरूर सुनिए।
 
उसके कई प्रिय गाने थे। जिनमें से एक उसकी याद के साथ हमेशा के लिए नत्थी हो गया- न झटको जुल्फ से पानी...। ये गाना जब भी सुनाई देगा उसकी स्मृतियां झिलमिलाएंगी। इस गाने से जुड़ा एक रोचक प्रसंग भी उसने मुझे सुनाया था। शायद उसके अंकल, यानी काका के काका अक्सर ये फिल्म देखने पहुँच जाया करते थे। एक दिन परिवार के अन्य लोग भी ये फिल्म देखने पहुँच गए और पिछली पंक्ति में बैठ गए। जैसे ही ये गाना शुरू हुआ 'न झटको जुल्फ से पानी...' अगली पंक्ति से वो अंकल उठे और उठके पैसे लुटाने लगे। दिनेश जोशी उसी संगीत-प्रेमी परिवार से आया था।
 
बातें और यादें तो कई हैं। पर एक बात पक्की है कि वो याद तो बहुत आएगा लेकिन याद आकर दुखी नहीं करेगा। मैं ईश्वर-विश्वर, स्वर्ग-नर्क, आत्मा-परमात्मा के फिजूल चक्कर में न पड़ा आदमी, काके के लिए दुआ भी नहीं कर सकता।
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