स्मृति शेष- कन्हैयालाल नंदन

क्या लिखूँ, कितना लिखूँ

आलोक मेहता
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बरगद की जड़ों की गहराई तक पहुँचना या उसकी सबसे ऊँची डाल को छूना क्या आसान है? यदि नहीं, तो समझिए नंदनजी के पास पहुँचकर आप बरगद की छाँव, सुकून और अपनत्व महसूस करते थे, उनके व्यक्तित्व की गहराइयों पर लिखना बहुत कठिन है। फिर एक साहित्यकार, संपादक, संगीतज्ञ, चित्रकार, फोटोग्राफर, कॉरपोरेट क्षेत्र के सफल निदेशक पर तो अच्छा-बुरा बहुत-कुछ लिखा जा सकता है लेकिन अंतरंग पर ही नहीं लिखा जा सकता, जैसे अपने बारे में लिखना बहुत कठिन लगता है।

शायद यही वजह है कि मैं हमेशा उलझन में रहा हूँ कि क्या लिखूँ, कितना लिखूँ, स्नेह के कलश से जितना बाहर उलीचूँगा - कलश तो भरा ही मिलेगा। अधिक तारीफ हो गई तो लोग कहेंगे इसमें कौन-सा तीर मारा, उसको तो यह लिखना ही था। संस्मरण तो सामान्य परिचितों के बारे में भी लिखे जा सकते हैं, जीवनी और आत्मकथा लिखना बड़ा दूभर काम है। डॉ. कन्हैयालाल नंदन की सबसे बड़ी संपत्ति यही थी कि उन्हें प्यार और सम्मान देने वालों की लंबी कतार में शायद मुझसे आगे आपको कोई और नहीं मिलेगा।

मैंने 1972 से 1998 यानी अपनी जिंदगी का आधे से अधिक हिस्सा नंदनजी के संघर्ष और सफलता के क्षणों को नजदीक से देखने-समझने में निकाला है। मैंने उन्हें कभी डगमगाते नहीं देखा। जब दिल्ली आ रहा था तो 'नईदुनिया' के तत्कालीन प्रधान संपादक और अब अध्यक्ष अभय छजलानी ने कहा था, 'दिल्ली महानगर है और समुद्र में सवारी हर क्षण खतरे में जीने वाली होगी।' दिल्ली के समुद्र में आज तक पैर जम नहीं पाए और दिल नहीं लग पाया लेकिन नंदनजी की एक नाव अवश्य साथ देती रही, जिससे चाँद और सूरज को छू लेने, समुद्र के चमकते रत्नों को निहारते रहने का अद्भुत सुख मिलता रहा।

सच कहूँ, नंदनजी इसीलिए अच्छे लगते थे कि उनके साथ बात करते हुए दुनिया सिमटकर छोटे से गाँव या टापू पर सिमट आती थी। उन्होंने मुंबई की चकाचौंध और दिल्ली के दलदल में अपने मूल संस्कार कभी नहीं छोड़े। जीवन के कई मोड़ों पर विचलित अवश्य हुए लेकिन शांति भाभी ने कठोर चट्टान की तरह उन्हें संभाल लिया। इसे अतिशयोक्ति न समझा जाए, असलियत यही है कि नंदनजी की सफलता, संबंधों की प्रगाढ़ता और ऊँचाइयों का बहुत बड़ा हिस्सा श्रीमती शांति नंदन के खाते में रखा जाना चाहिए।

' धर्मयुग' को इस देश की सर्वाधिक प्रतिष्ठित पत्रिका बनाने में नंदनजी के पसीने और खून का योगदान रहने की बात कहना गलत नहीं होगा। तब हमारी मुलाकात भी नहीं हुई थी। लेखन और फोन पर परिचय के बाद जब भी संपर्क किया, सुबह 10 से रात 11 बजे भी नंदनजी दफ्तर में ही पत्रिका के लिए काम करते हुए मिले।

अचानक 'पराग' के संपादक नियुक्त करके दिल्ली भेजे गए तो टाइम्स अतिथिगृह में बैठकर ही पूरी पत्रिका की सामग्री जुटा ली। पहली भेंट तभी हुई - जितने विषय सुझाए, सब पर कुछ लिखने का आदेश मिल गया। चुनौती उनके लिए नहीं, पूरी नई पीढ़ी के लिए थी। बच्चों की पत्रिका में भूत-प्रेत की बजाय आधुनिक दृष्टि, राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय स्तर के लेखकों-पत्रकारों, नेताओं, वैज्ञानिकों, रंगकर्मियों, फिल्मी हस्तियों को जोड़ना असाधारण क्षमता के बिना संभव नहीं था। यह सिलसिला फिर कहीं नहीं रुका।

' सारिका', 'दिनमान', 'नवभारत टाइम्स', 'संडे मेल', 'इन चैनल' जैसे हर अखबार और टीवी नेटवर्क को नया रंग-रूप देने की वजह से वे हमेशा चर्चा में रहे।

सहजता का आलम यह था कि 18 वर्ष के किसी फ्रीलान्स पत्रकार से लेकर राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री तक से बातचीत में नंदनजी का अंदाज समान रहता था। उन्होंने सदा सम्मान दिया तो दुगुना पाया भी। रिपोर्टिंग में रहने के कारण कई राष्ट्रीय नेताओं से नंदनजी की भेंट करवाने का अवसर मिला है और मैंने देखा कि वे उन पर जादू-सा कर देते थे। इंदिरा गाँधी, राजीव गाँधी, विश्वनाथप्रताप सिंह, चन्द्रशेखर, डॉ. शंकरदयाल शर्मा, इंद्रकुमार गुजराल, अटलबिहारी वाजपेयी, भैंरोसिंह शेखावत, कृष्णकांत, सोनिया गाँधी, प्रतिभा पाटिल, डॉ. मनमोहनसिंह जैसे शीर्षस्थ नेता नंदनजी से मिलकर ऐसे प्रसन्न होते दिखते रहे जैसे परिवार के किसी सदस्य से वर्षों बाद भेंट हो रही हो।

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फिर नंदनजी की वाक्‌पटुता का कमाल था कि हर व्यक्ति उनके सामने दिल खोलकर रख देता। दिल्ली में जंगपुरा एक्सटेंशन के पहले मकान में आते ही पार्टियों का सिलसिला शुरू हुआ तो कवि, कलाकार, गायक, संगीतकार, हिन्दी-अँगरेजी-मराठी-तमिल के नामी पत्रकार और दिग्गज नेता एकसाथ बैठकर कभी कविता सुनते, कभी संगीत और कभी गर्मागर्म बहस में उलझते रहे।

नंदनजी लोगों को निमंत्रित नहीं करते, लोग स्वयं उनके यहाँ पहुँचना पसंद करते थे। डॉ. लक्ष्मीमल्ल सिंघवी या गुजराल और डॉ. महीपसिंह जिस घर में पहुँचकर ठहाके लगाते हों, उस व्यक्ति में कोई जादू तो रहा होगा न! इन संबंधों का एक रहस्य मैं आपको बता सकता हूँ। नंदनजी से जब भी मैंने किसी परिचित-अपरिचित की मुसीबत का जिक्र किया, भले ही रात के 12 बजे हों, नंदनजी का उत्तर होता था - 'चलो, अभी चलते हैं। बताओ, हम उनके लिए क्या कर सकते हैं।' कोई पद पर न हो, बाहर पुलिस जासूसी हो रही हो, अस्पताल में डॉक्टर हाथ खड़े कर चुके हों लेकिन नंदनजी उसी जोश के साथ पहुँचते थे, मानो वह व्यक्ति सत्ता के शिखर पर हो।

कुछ कवि राजनेता अपनी पोथी खोलकर बैठ जाते थे और देर रात तक सुनना पड़ता था। नंदनजी की महफिल जमती ही थी रात 11 बजे बाद और सुबह तीन बजे तक लगता यही कि शाम के सात बजे हैं। शराब और कबाब के बिना दिल्ली-मुंबई में ऐसी कितनी महफिलें जमती होंगी? नंदनजी उज्जैन पहुँचे या लखनऊ या जर्मनी, सिर-आखों पर बैठाने वाले मित्रों की कमी नहीं होती थी। कई बार मेरे कारण असुविधा उठाते हुए ट्रेन में यात्रा करके कार्यक्रमों में गए लेकिन कभी गुस्सा नहीं हुए कि भइया, यह कहाँ फँसा दिया?

नंदनजी का व्यक्तित्व बहुत ऊँचा और उज्ज्वल था। उन्हें शब्दों से नापा-तौला नहीं जा सकता। सचमुच उनका जाना बरगद के पेड़ के गिरने की तरह है। ऐसी छाँव देने वाला व्यक्ति समाज में मिलना बहुत कठिन है। विनम्र श्रद्धांजलि।

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