अब तक पाठकों से मेरा अधिकांश संवाद कहानियों के जरिए ही हुआ है। पहला मौका है जब इस तरह से पाठकों तक अपनी बात पहुँचा रही हूँ। इस बहाने से साहित्य और समाज की वर्तमान स्थिति पर विमर्श का अवसर मिल सका है। यहाँ कुछ अपने बारे में भी बात कहना चाहूँगी और कुछ अपनी रुचियाँ भी साझा कर रही हूँ। इंदौर मेरा मायका है। पारम्परिक परिवार के बाद भी पठन-पाठन में रुचि पनपी और बचपन में ही शरत साहित्य को दिलचस्पी में पढ़ गई थी। यूँ तो मुझे शरतचन्द्र के लिखे अधिकांश उपन्यास पसंद हैं, लेकिन विप्रदास सर्वाधिक प्रिय है।
इसका कारण चरित्र की बुनावट और उसकी दृढ़ता है। शरत बाबू का मुझ पर प्रभाव रहा है। इस कारण शुरुआत में आलोचक मुझ पर आरोप भी लगाते रहे हैं कि मैं उनका अनुसरण करती हूँ लेकिन यह प्रभाव कम और घरेलू कथानक होने के कारण ज्यादा माना गया है। बाद में आशापूर्णा देवी के साहित्य, अंग्रेजी के एजी गार्डीनर और यात्रा वृत्तांत में रुचि बढ़ गई। मराठी में मीना प्रभु ने अच्छे यात्रा वृत्तांत लिखे हैं।
इन दिनों मुझे जीवनी पढ़ना सुहा रहा है। अभी जो जीवनियाँ लिखी जा रही हैं। मैं उनसे सहमत नहीं हूँ। किसी को अपना कोई व्यक्ति मरने के बाद ही क्यों याद आता हैं? फिर जो व्यक्ति अपनी बात साफ करने के लिए इस दुनिया में है ही नहीं उस पर अपनी मर्जी से कुछ भी क्यों लिखा जाए? दरअसल अतीत को कुछ लोग हथियार की तरह इस्तेमाल कर रहे हैं। यह मुझे ठीक नहीं लगता।
मुझ पर और मुझ जैसी कई महिला लेखिकाओं पर यह आरोप लगता है कि हमारे लेखन का फलक छोटा है। मेरा कहना है कि क्यों नहीं होगा? जब हमारे अनुभव का दायरा छोटा है तो लेखन का आकाश भी छोटा होगा। हाल ही में मैं एक कहानी पढ़ रही थी। युवा लेखिका की कहानी में कम्प्यूटर के साथ तकनीकी युग का बिम्ब है। नई लेखिका के अनुभव तकनीक से जुड़ रहे हैं तो वह लिख रही है। हमारा इसका परिचय नहीं था तो कैसे लिख देते?
गुलजार साहब ने मेरी कहानियों को टीवी पर दिखलाया था। बाद में भी कई प्रस्ताव आए, लेकिन मेरे पास एक-दो एपिसोड की कहानियाँ हैं, दो साल तक खींची जा सकें ऐसी कथाएँ नहीं हैं। आजकल की कहानियों में कथात्मकता खत्म हो रही है। यथार्थ होने के फेर में आजकल इतने डिटेल्स दिए जा रहे हैं कि भाव घटते जा रहे हैं। सत्य स्वागत योग्य है, लेकिन सत्य को शिव भी होना होगा और सुंदर भी। ऐसा नहीं होगा तो वह ग्राह्य नहीं होगा। मराठी कहानी जमीन से जुड़ी है। हिन्दी में ऐसा नहीं है।
समाज में पठन-पाठन भी कम हो रहा है। धर्मयुग की जगह कोई नहीं भर पाया। आज भी किसी से मिलो तो वह कहता है हमने धर्मयुग में आपकी कई कहानियाँ पढ़ी हैं। अखबार के रविवारीय परिशिष्ट का चेहरा और सामग्री बदलती जा रही है। मराठी और हिन्दी का अंतर यहाँ भी नजर आता है। मराठी के दीपावली विशेषांकों की पहले से बुकिंग की जाती है। इनकी कीमत भी सौ रुपए तक होती है।
हिन्दी में तो विशेषांक प्रकाशित होना ही बंद हो गए हैं। बंगाल में भी पूजा विशेषांकों को हाथों हाथ लिया जाता है। मेरा मन है कि मैं जीवनी लिखूँ। लेकिन वह भी ऐसी होगी कि किसी का मन न दुखे। मेरी कहानियों के पात्रों की तरह। सारे पात्र मेरे आसपास के हैं, लेकिन कोई नहीं समझ सकता कि वह किसी कथा का पात्र बन गया।