आजादी का जश्न साल भर जारी रहेगा क्योंकि साठ साल की उम्र में देश फिर से जवान होने लगा है। तमाम तरह के तराने-गाने अथवा कशीदा काढ़ने के स्थान पर हमने अपनी तीसरी आँख से सिनेमा के गुजरे साठ सालों को मनोरंजक अंदाज में देखने की कोशिश की है ।
* आजादी के साठ सालों में हर साल 15 अगस् त और 26 जनवरी को हमें अपना देश याद आता है। देशभक्ति दर्शाने के लिए देश पर आधारित फिल्मी गाने सुनने और बजाने से बढि़या उपाय और क्या हो सकता है।
* इन बीते सालों में शहीद भगतसिंह पर फिल्मों की बाढ़ आई। सबसे पहले 1948 में दिलीप कुमार को ‘शही द ’ में शहीद किया गया। जब उनके पिता ने इस फिल्म को देखा, तो अपने बेटे युनूस (दिलीप) को सलाह दी कि आइंदा किसी फिल्म में मरने का रोल मत करना ।
* इसके बाद सन् 1963 में याहू शम्मीकपूर को भी फिल्म ‘शही द ’ में भगतसिंह का चोला पहनाया गया था। लेकिन दर्शकों तो उनका- चाहे कोई मुझे जंगली कहे वाला रूप ही ज्यादा पसंद आया ।
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* सन् 2002 में एक साथ चार-चार भगतसिंह फिल्मी अखाड़े में आ गए। दर्शकों ने तीन फिल्मों को रिजेक्ट कर दिया, सिर्फ राजकुमार संतोषी का भगतसिंह टिकट खिड़की पर थोड़ा-बहुत कामयाब रहा।
* असली शहीद तो हमारे आपके भारत कुमार उर्फ मनोज कुमार हैं, जिन्होंने फिल्म ‘शही द ’ के जरिये अपनी फिल्मों पर देशभक्ति का ऐसा ठप्पा लगाया कि वे बॉलीवुड के अकेले राष्ट्रभक्त ठेकेदार बन गए। फिल्म ‘उपका र ’ में उन्होंने गाया- मेरे देश की धरती सोना उगले, उगले हीरे-मोती। फिर ‘रोटी कपड़ा और मका न ’ में जीनत अमान को खुले तथा भीगे बदन में बेशरमी से गवाया- तेरी दो टकिया की नौकरी में मेरा लाखों का सावन जाए। इसे कहते हैं देशभक्ति उ ई! क्रांति उ ई!
* फिल्मकार जेपी दत्ता को देशभक्ति का बुखार समय-समय पर चढ़ा। फिल्म ‘बार्ड र ’ में उनके संदेसे को जनता ने प्रेम से सुना और गुनगुनाया। मगर एलओसी (लाइन ऑफ कंट्रोल) में बेचारे सितारों की भीड़ में ऐसे दब गए कि ‘उमराव जा न ’ के कोठे पर साँस ली। अफसोस, उमराव भी उन्हें ले बैठी ।
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* केतन मेहता ने 1857 की क्रांति का बिगुल फिर से बजाया और आमिर खान को ‘मंगल पांड े ’ के रूप में प्रभावी ढंग से प्रस्तुत किया। उनका मंगल-मंगल गान एक बार फिर देशभक्ति का शंखनाद बना।
* हाल में दादा साहब फालके सम्मान से विभूषित किए गए फिल्मकार श्याम बेनेगल की फिल्म ‘बोस : द फारगॉटन हीर ो ’ ने राष्ट्रप्रेम के माहौल को हवा दी।
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* आशुतोष गोवारीकर की फिल्म ‘लगा न ’ को देशभक्ति की फिल्म तो नहीं कहा जा सकता, लेकिन क्रिकेट के खेल के जरिये उन्होंने देशवासियों में देश-प्रेम का जो जज्बा जगाया वो आज तक गूँज रहा है ।
* सन् 1945 से 1965 तक फिल्म गीत-संगीत का स्वर्ण-काल अब आयटम-सांग-डांस और रीमिक्स के मिक्सर में टुकड़े-टुकड़े हो चुका है। आज फिल्मों के गाने सुनने के बजाय देखने की ‘ची ज ’ हो गए हैं।
* पचास के दशक में मद्रास के जेमिनी स्टुडियो के दो नंग-धड़ंग बच्चे बिगुल बजाते उत्तर भारत के फिल्म बाजार में हिन्दी की पारिवारिक फिल्में उतारते थे। अम्मा रोटी दे, बाबा रोटी दे। लखनऊ चलो अब रानी, बम्बई का बिगड़ा पानी जैसे गीत गाकर पूरा परिवार फिल्म के अंत में ग्रुप फोटो जरूर उतरवाता था। इन फिल्मों में बलराज साहनी बड़े भाई या पिता का रोल निभाकर अपनी पत्नी निरूपा राय के साथ हमेशा पेटी-बिस्तर तैयार रखते थे। जब मौका मिला घर से बाहर निकल पड़ते थे। पीछे से पंडित प्रदीप गा उठते थे- चल उड़ जा रे पंछी ।
* और इन आजादी के साठ सालों में भारत के 5 लाख 60 हजार गाँव फिल्मों से गायब हो गए। अब इक्का-दुक्का फिल्मों में जैसे ‘मुंबई से आया मेरा दोस् त ’ या फिर रंगीन ‘नया दौ र ’ में ही गाँवों को देख पाते हैं।
* फिल्मों से गाँव गायब करने में यश चोपड़ा, आदित्य चोपड़ा, करण जौहर और सूरज बड़जात्या का जबरदस्त हाथ है। यश चोपड़ा की रोमांटिक फिल्मों में शानदार कपड़े पहनकर शाहरुख खान, अमिताभ बच्चन, रानी मुखर्जी या प्रीति जिंटा सिनेमा हॉल बराबर ड्राइंग रूम में मस्ती से गाते-नाचते हैं और सबके दिल में कुछ-कुछ होने लगता है ।
* सूरज बड़जात्या ने पारंपरिक फिल्मों की परंपरा को जीवित भले ही रखा हो, लेकिन एक साधारण से प्रोफेसर का शानदार घर उसमें मौजूद है। पचासों रिश्तेदार दोनों हाथ में लड्डू लेकर नाचते-गाते हैं। वाह भई सूरज, तुमने तो रात को भी चमका कर दिन में बदल दिया ।
* सन् 2001 से बॉलीवुड में फिल्म निर्देशकों की कनाडा, अमेरिका, यूरोप से बाढ़ आ गई है। वे विदेशी चश्में लगाकर देसी फिल्में धड़ाधड़ बना रहे हैं। किसी भी फिल्म का न सिर है न पैर। न आरंभ है न दि एंड। एक जैसी थीम। एक जैसा ट्रीटमेंट। हर शुक्रवार दर्शक बॉक्स ऑफिस पर ठगा जा रहा है।
* हाल ही में यश चोपड़ा की ‘चक दे इंडिय ा ’ ने हॉकी जैसे उपेक्षित खेल को चमकाने की कोशिश की है वरना टेक्नालॉजी फिल्म वालों के सिर पर चढ़कर बोल रही है। फिल्मों का जो जादू पचास-साठ-सत्तर के दशक में दर्शकों को चुम्बक की तरह खींचता था वह जादू अब नदारद है।
* बीते साठ साल में विज्ञापन फिल्मों का दबदबा बढ़ा है। चौबीस घंटे समाचार उगलते सैटेलाइट चैनलों की आमदनी का खास जरिया ‘अण्डरविय र ’ के उत्तेजक विज्ञापन रहे हैं। भारत सरकार के सूचना-प्रसारण मंत्रायल ने ऐसे दो अश्लील और भड़काऊ अण्डरवियर विज्ञापनों को अंडरग्राउण्ड के आदेश क्या दिए, विज्ञापन एजेंसियों ने हंगामा बरपा दिया है।