माउंटबेटेन के नाम गाँधीजी का पत्र

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मैं तो चकित हूँ कि आप सोचते हैं कि काँग्रेस और लीग, दोनों के पक्ष न्‍यायसंगत हैं और शायद जिन्‍ना की माँगें ज्‍यादा महत्‍व की हैं। मेरा स्‍पष्‍ट मत है कि यह संभव नहीं है। तुलना ही करनी हो तो पूर्ण सातत्‍य से करें। अगर आपकी नजरों में कायदे-आजम जिन्‍ना काँग्रेस की तुलना में ज्‍यादा समझदार और न्‍यायप्रिय हैं तो आपको मुस्लिम लीग के नेताओं से ही सलाह-मश्विरा करना चाहिए और खुलेआम उनकी नीतियों को स्‍वीकार करना चाहिए।

आपने इशारा किया कि शायद कायदे-आजम आप लोगों को 15 अगस्‍त तक सत्‍ता का हस्‍तांतरण न करने दें, क्‍योंकि काँग्रेस मंत्रिगण अनुकूल सरकार नहीं दे रहे हैं। मेरे लिए यह आश्‍चर्यमिश्रित दुश्चिंता का समाचार है। मैंने तो शुरू से विभाजन का विरोध किया है। विभाजन के सुझाव में ब्रिटिश साम्राज्‍य की आरंभिक गलती है। अब भी आप उस भूल को सुधार सकते हैं, लेकिन दुराचार और वक्रता को बढ़ावा देने में इंसाफ नहीं है।

आपने तीसरी बार मुझे भौंचक्‍का कर दिया ह कि अँग्रेजों की हाजिरी में अगर विभाजन नहीं हुआ तो हिंदू बहुमती मुसलमानों को गुलाम बनाकर राज्‍य करेगी और उन्‍हें कभी इंसाफ नहीं मिल पाएगा। जैसाकि मैंने आपसे कहा था, यह धारणा सरासर कल्‍पना है। संख्‍या का इसमें महत्‍व ही नहीं है। एक लाख से कम अँग्रेजों ने 40 करोड़ भारतीयों का दमन कर उन पर राज किया। खैर, आपके विचारार्थ निम्‍नलिखित पाँच सुझाव भेज रहा हूँ -

- काँग्रेस ने अनेक बार खुलेआम ऐलान किया है कि वे किसी भी प्रांत को जबरन भारतीय यूनियन में नहीं जोड़ेंगे।

- जात-पाँत से विग्रहित करोड़ों हिंदुओं की ताकत नहीं है कि वे दस करोड़ मुसलमानों का दमन कर जाएँ।

- मुगलों ने भी अँग्रेजों के समान ही हिंदुस्‍तान पर लंबे अरसे तक कड़ा शासन किया था ।

- मुसलमानों ने हरिजनों और आदिवासियों को अपने साथ मिलाने का प्रयास कर ही दिया है।

- सवर्ण हिंदू, जिनके नाम पर यह आफत मची है, उनकी संख्‍या ए‍कदम ही नगण्‍य है।

यह सिद्ध हो सकता है कि इनमें से भी अभी राजपूतों में राष्‍ट्रीयता का उदय नहीं हुआ है। ब्राम्‍हण और वैश्‍य तो हथियार पकड़ना भी नहीं जानते। उनकी अगर कोई सत्‍ता है तो वह नैतिक सत्‍ता है। शूद्रों की गणना हरिजनों के साथ होती है। ऐसा हिंदू समाज अपनी बहुमती से मुसलमानों को पदाक्रांत कर उनका उच्‍छेद कर सकता है, यह एकदम कपोल-कल्पित कहानी है।

इसलिए आप समझ पाएँगे कि सत्‍य और अहिंसा के नाम पर मैं अकेला भी रह जाऊँगा और अहिंसा जनित पौरुष के प्रताप के सामने अणुशक्ति भी क्षुद्र बन जाती है, तो नौकादल का तो हिसाब ही नहीं है। मैंने यह पत्र अपने मित्रों को नहीं बताया है ।

सादर,

आपका मोहनदास करमचंद गाँधी

दिनांक 28 जून, 1947


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