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मंगलवार, 15 अक्टूबर 2024
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बा की यादें

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-महात्मा गाँधी

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भारतीय संस्‍कृति में ऐसे अनेक उदाहरण मिल जाएँगे, जब स्त्रियों ने हर कदम पर अपने पतियों का साथ-साथ दिया और हर डगर पर उनके साथ कदम-से-कदम मिलाकर चलीं। कस्‍तूरबा गाँधी, बापू जिन्‍हें बा कहा करते थे, ऐसी ही स्त्रियों में से थीं, जिन्‍होंने हर कदम पर गाँधीजी का साथ दिया। बा की यादें स्‍वयं महात्‍मा गाँधी के शब्‍दों में :

मैं जानता था कि बहनों को जेल भेजने का काम बहुत खतरनाक थाफिनिक्स में रहने वाली अधिकतर बहनें मेरी रिश्तेदार थीं। वे सिर्फ मेरे
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लिहाज के कारण ही जेल जाने का विचार करें और फिर ऐन मौके पर घबराकर या जेल में जाने के बाद उकताकर माफी माँग लें तो मुझे सदमा पहुँचे। साथ ही इसकी वजह से लड़ाई के एकदम कमजोर पड़ जाने का भी डर था। मैंने तय किया था कि मैं अपनी पत्नी को तो हरगिज नहीं ललचाऊँगा। वह इनकार भी नहीं कर सकती थीं और ‘हा’ कह दे तो उस 'हाँ' की भी कितनी कीमत की जाए, सो मैं कह नहीं सकता था। ऐसे जोखिम के काम में स्त्री स्वयं जो निश्चिय करे, पुरुष को वही मान लेना चाहिए और कुछ भी न करे तो पति को उसके बारे में तनिक भी दुखी नहीं होना चाहिए, इतना मैं समझता था। इसलिए मैंने उनके साथ कुछ भी बात न करने का इरादा कर रखा था। दूसरी बहनों से मैंने चर्चा की। वे जेल-यात्रा के लिए तैयार हुईं। उन्होंने मुझे विश्वास दिलाया कि वे हर तरह का दुख सहकर भी अपनी जेल-यात्रा पूरी करेंगी। मेरी पत्नी ने भी इन बातों का सार जान लिया और मुझसे कहा-

'मुझसे इस बात की चर्चा नहीं करते, इसका मुझे दुख है। मुझमें ऐसी क्या खामी है कि मैं जेल नहीं जा सकती। मुझे भी उसी रास्ते जाना है, जिस रास्ते जाने की सलाह आप इन बहनों को दे रहे हैं।'

मैंने कहा, 'मैं तुम्हें दुख पहुँचा नहीं सकता। इसमें अविश्वास की भी कोई बात नहीं। मुझे तो तुम्हारे जाने से खुशी ही होगी, लेकिन तुम मेरे कहने पर गई हो, इसका तो आभास तक मुझे अच्छा नहीं लगेगा। ऐसे काम सबको अपनी-अपनी हिम्मत से ही करने चाहिए। मैं कहूँ और मेरी बात रखने के लिए तुम सहज ही चली जाओ और बाद में अदालत के सामने खड़ी होते ही काँप उठो और हार जाओ या जेल के दुख से ऊब उठो तो इसे मैं अपना दोष तो नहीं मानूँगा, लेकिन सोचो कि मेरा क्या हाल होगा। मैं तुमको किस तरह रख सकूँगा और दुनिया के सामने किस तरह खड़ा रह सकूँगा। बस, इस भय के कारण ही मैंने तुम्हें ललचाया नहीं।'

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मुझे जवाब मिला, ‘मैं हारकर छूट जाऊँ तो मुझे मत रखना। मेरे बच्चे तक सह सकें, आप सब सहन कर सकें और अकेली मैं ही न सह सकूँ, ऐसा आप सोचते कैसे हैं? मुझे इस लड़ाई में शामिल होना ही होगा।'

मैंने जवाब दिया, 'तो तुमको शामिल करना ही होगा। मेरी शर्त तो तुम जानती हो। मेरे स्वभाव से भी तुम परिचित हो। अब भी विचार करना हो तो फिर विचार कर लेना और भलीभाँति सोचने के बाद तुम्हें यह लगे कि शामिल नहीं होना है तो समझना कि तुम इसके लिए आजाद हो। साथ ही, यह भी समझ लो कि निश्चिय बदलने में अभी शरम की कोई बात नहीं है।'

मुझे जवाब मिला, 'मुझे विचार-विचार कुछ नहीं करना है। मेरा निश्चय ही है।'

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