वैज्ञानिकों अनुसार आकाश मंडल में मंगल का चौथा स्थान है। सूर्य से इसकी दूरी 224000000 किलोमीटर है। इसका आकार छोटा है और इसका व्यास 6860 किलोमीटर है। 687 दिनों में यह सूर्य की एक परिक्रमा पूर्ण करता है तथा पृथ्वी की अपेक्षा केवल एक दसवां भाव गुरुत्व शक्ति रखता है।
वैज्ञानिक मानते हैं कि किसी काल में इस ग्रह ने धरती से अलग होकर अपना एक अलग वजूद बना लिया। पहले इस ग्रह पर जीवन था लेकिन ज्वालामुखी या भारी उत्कापात के चलते यहां से जीवन नष्ट हो गया। वैसे हिन्दू धर्म भी मंगल की उत्पत्ति धरती से मानता है तभी तो उसे धरती पुत्र कहा जाता है।
मंगल के दो उपग्रह (चंद्रमा) हैं:- 'फोबस' और दूसरा 'डोमस' जो मंगल की परिक्रमा करते हैं। पृथ्वी से मंगल की न्यूनतम दूरी 780000 किलोमीटर है।
पृथ्वी से देखने पर, इसको इसकी रक्तिम आभा के कारण लाल ग्रह के रूप में भी जाना जाता है। इसका रंग लाल, आयरन आक्साइड की अधिकता के कारण है। वैज्ञानिकों अनुसार मंगल भी हमारी पृथ्वी की तरह एक ठोस ग्रह है और यहां की सतह रुखी और पथरीली हैं। मंगल की सतह पर मैदान, पहाड़ और घाटियां हैं। वहां धूल के भयंकर तूफान उठते रहते हैं। चांद की तरह मंगल ग्रह के दक्षिणी गोलार्ध में उच्चभूमि है और उत्तरी गोलार्ध में मैदान हैं।
सूर्यास्त के बाद पूर्व से आसमान में आगे बढ़ते नारंगी-लाल रंग के मंगल ग्रह को आसानी से पहचाना जा सकता था।
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हिन्दू धर्म में मंगल का अर्थ 'पवित्र और शुभ' होता है, अत: हिन्दू मंगलवार को किसी कार्य का प्रारम्भ करने के लिए शुभ मानते हैं। मंगलवार का नाम 'मंगल' से पड़ा है जिसका अर्थ कुशल होता है, मंगल का अर्थ भगवान हनुमान से भी माना जाता है।हिन्दू पौराणिक कथाओं में इसे पृथ्वी का पुत्र माना गया है। शिव पुराण में कहा गया है कि यह शिव के पसीने की बूंद से पैदा हुआ और देवता बन कर आकाश में स्थापित हो गया। मान्यता अनुसार अंधकासुर नाम के दैत्य से शिव ने यहां युद्ध किया था, उस दौरान उनके मस्तक से भूमि पर पसीना गिरा, तो भूमि के गर्भ से एक अंगार क्षीण लिंग उत्पन्न हुआ उसमें से बालक प्रकट हुआ। बालक ने अंधकासुर का नाश किया। शिव की कृपा से यह बालक धरती से बाहर अंतरिक्ष में स्थापित होकर देवता कहलाया।
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मंगल ग्रह को युद्ध के देवता का ग्रह कहा जाता है। युद्ध के इस मंगल देवता की चार भुजाएं हैं। इनके शरीर के रोएं लाल हैं इनके हाथों में क्रम से अभयमुद्रा, त्रिशूल, गदा और वरमुद्रा है। इन्होंने लाल मालाएं और लाल वस्त्र धारण कर रखे हैं। इनके सिर पर स्वर्णमुकुट है तथा ये मेख (भेड़ा) के वाहन पर सवार हैं। गणेशपुराण अनुसार वाराह कल्प में जब हिरण्यकशिपु का बड़ा भाई हिरण्याक्ष पृथ्वी को चुरा ले गया था और पृथ्वी के उद्धार के लिए भगवान ने वराहावतार लिया तथा हिरण्याक्ष को मारकर पृथ्वी देवी का उद्धार किया, तब भगवान को देखकर पृथ्वी देवी अत्यन्त प्रसन्न हुईं और उनके मन में भगवान को पति रूप में वरण करने की इच्छा हुई।पृथ्वी की कामना पूर्ण करने के लिए भगवान अपने मनोरम रूप में आ गए और पृथ्वी देवी के साथ एक दिव्य वर्ष तक एकान्त में रहे। उस समय पृथ्वी देवी और भगवान के संयोग से मंगल ग्रह की उत्पत्ति हुई। इस प्रकार विभिन्न कल्पों में मंगल ग्रह की उत्पत्ति की विभिन्न कथाएं हैं। जो शिव पुराण की कथा है वह वराह कल्प की नहीं है।यह कथा वर्तमान में चल रहे वराह कल्प की है अर्थात जो वर्तमान में मंगल ग्रह है उसकी कथा है। एक दिव्य वर्ष का अर्थ मनुष्य के एक वर्ष का एक दिन उसी तरह 360 वर्ष का एक दिव्य वर्ष। दरअसल धरती के गर्भ में इस काल में ज्वालामुखी के विस्फोट पर विस्फोट हो रहे थे और इनके कारण धरती का एक टुकड़ा निकल कर अलग हो गया। लेकिन इस घटना को कथा का रूप दिया गया।वेदों में सूर्य को जगत की आत्मा कहा गया है। समस्त चराचर जगत की आत्मा सूर्य ही है। सूर्य से ही इस पृथ्वी पर जीवन है और सूर्य से ही सभी ग्रह-नक्षत्रों की उत्पत्ति हुई है।शोधानुसार जब देवता और राक्षसों में युद्ध चलता था तब देवताओं ने मंगल ग्रह को अपना सैन्य कैंप स्थल बना लिया था। यहां वायुयान और अन्य अस्त्र-शस्त्र जमा करके रखे जाते थे।
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स्कंधपुराण के अंवतिका खंड में मंगल ग्रह ही उत्पत्ति से जुड़ी रोचक कथा मिलती है कि अंधाकासुर नामक दैत्य ने शिव से वरदान पाया था कि उसकी रक्त की बूंदों से नित नए दैत्य जन्म लेते रहेंगे। इन दैत्यों के अत्याचार से त्रस्त जनता ने शिव की आराधना की। तब शिव शंभु और दैत्य अंधाकासुर के बीच घनघोर युद्ध हुआ।
ताकतवर दैत्य से लड़ते हुए शिवजी के पसीने की बूंदें धरती पर गिरीं, जिससे धरती दो भागों में फट गई और मंगल ग्रह की उत्पत्ति हुई। शिवजी के वारों से घायल दैत्य का सारा लहू इस नए ग्रह में मिल गया, जिससे मंगल ग्रह की भूमि लाल हो गई। दैत्य का विनाश हुआ और शिवजी ने इस नए ग्रह को पृथ्वी से अलग कर ब्रह्मांड में फेंक दिया। इस दंतकथा के कारण जिन लोगों की पत्रिका में मंगल भारी होता है, वह उसे शांत करवाने के लिए इस मंदिर में दर्शन और पूजा-अर्चना के लिए आते हैं। इस मंदिर में मंगल को शिव का ही स्वरूप दिया गया है।
पंडित दिप्तेश दुबे के अनुसार इसी जगह से भूमि पुत्र मंगल ग्रह की उत्पत्ति हुई है और कहीं से नहीं। इसीलिए यहां पर मंगल दोष की शांति की जाती है। दही और भात से यहां मंगल ग्रह की पूजा की जाती है। लाल वस्त्र, गेहूं, गुड, तांबा और कनेर के पुष्प मंगल ग्रह की ये पांच वस्तुएं है जिन्हें दान किया जाता है। मेष और वृश्चिक राशि के अधिपति स्वामी मंगल के मंगल दोष का निवारण सिर्फ यहीं किया जाता है।
मंगलनाथ के पुजारी के महंत अमर भारती ने बताया कि स्कंदपुराण में बताया गया है कि भगवान शंकर के द्वारा मंगल की उत्पत्ति हुई है। अंधकासुर नाम के दैत्य से शिव ने यहां युद्ध किया था, उस दौरान उनके मस्तक से भूमि पर पसीना गिरा। तो भूमि के गर्भ से एक अंगार क्षीण लिंग उत्पन्न हुआ उसमें से बालक प्रकट हुआ। बालक ने प्रण कर लिया और इस तरह अंधकासुर का नाश हुआ। जिस किसी की भी पत्रिका में मंगल दोष है तो उसका निवारण उज्जैन के मंगलनाथ के दर्शन-पूजन से हो जाता है। यह पूरे विश्व का नाभि स्थल है। यही नहीं पृथ्वी का गर्भ स्थल भी यहीं है।
ज्योतिषाचार्य मनोहर गिरि से हमने पूछा कि आखिर क्या महत्व है इस स्थान का...तो उन्होंने कहा की जिस किसी की भी कुंडली में चौथे, आठवें और बारहवें स्थान पर मंगल हो तो यहां मंगल ग्रह की शांति कराई जाती है। यहा कई बड़ी हस्तियों ने मंगल दोष का निवारण कराया है। विश्व में मंगल दोष निवारण का यही एकमात्र स्थान है।
मंगलनाथ मंदिर के पुजारी देवेंद्र तिवारी ने दूध, दही और चावल से मंगल पूजा का महत्व बताया। कर्क रेखा और मध्य रेखा यहां से ही गुजरती है।
एक और कथा : एक समय जब कैलाश पर्वत पर भगवान शिव समाधि में ध्यान लगाये बैठे थे, उस समय उनके ललाट से तीन पसीने की बूंदें पृथ्वी पर गिरीं। इन बूंदों से पृथ्वी ने एक सुंदर और प्यारे बालक को जन्म दिया, जिसके चार भुजाएं थीं और वय रक्त वर्ण का था। इस पुत्र को पृथ्वी ने पालन पोषण करना शुरु किया। तभी भूमि का पुत्र होने के कारण यह भौम कहलाया।
कुछ बड़ा होने पर मंगल काशी पहुंचा और भगवान शिव की कड़ी तपस्या की। तब भगवान शिव ने प्रसन्न होकर उसे मंगल लोक प्रदान किया। मंगल लोक शुक्र लोक, शुक्र के निवास स्थान से भी ऊपर स्थित था। यही भौम सूर्य के परिक्रमा करते ग्रहों में मंगल ग्रह के स्थाण पर सुशोभित हुआ।
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मंगल नवग्रहों में से एक है। लाल आभायुक्त दिखाई देने वाला यह ग्रह जब धरती की सीध में आता है तब इसका उदय माना जाता है। उदय के पश्चात 300 दिनों के बाद यह वक्री होकर 60 दिनों तक चलता है। बाद में फिर सामान्य परिक्रमा मार्ग पर आकर 300 दिनों तक चलता है। ऐसी स्थिति में मंगल का अस्त होना कहा गया है।
भारतीय ज्योतिष अनुसार मंगल ग्रह मेष राशि एवं वृश्चिक राशि का स्वामी होता है। मंगल मकर राशि में उच्च भाव में तथा कर्क राशि में नीच भाव में कहलाता है। सूर्य, चंद्र एवं बृहस्पति इसके सखा या शुभकारक ग्रह कहलाते हैं एवं बुध इसका विरोधी ग्रह कहलाता है। शुक्र एवं शनि अप्रभावित या सामान्य रहते हैं।
मंगल तीन चंद्र नक्षत्रों का भी स्वामी है: मृगशिरा, चित्रा एवं श्राविष्ठा या धनिष्ठा। मंगल से संबंधित वस्तुएं हैं: रक्त वर्ण, पीतल धातु, मूंगा, आदि। इसका तत्त्व अग्नि होता है एवं यह दक्षिण दिशा और ग्रीष्म काल से संबंधित है।
कुंडली में मंगल के शुभ और अशुभ होने के प्रभाव जानिए...
शुभ : मंगल सेनापति स्वभाव का है। शुभ हो तो साहसी, शस्त्रधारी व सैन्य अधिकारी बनता है या किसी कंपनी में लीडर या फिर श्रेष्ठ नेता। मंगल अच्छाई पर चलने वाला है ग्रह है किंतु मंगल को बुराई की ओर जाने की प्रेरणा मिलती है तो यह पीछे नहीं हटता और यही उसके अशुभ होने का कारण है। सूर्य और बुध मिलकर शुभ मंगल बन जाते हैं। दसवें भाव में मंगल का होना अच्छा माना गया है।
अशुभ : बहुत ज्यादा अशुभ हो तो बड़े भाई के नहीं होने की संभावना प्रबल मानी गई है। भाई हो तो उनसे दुश्मनी होती है। बच्चे पैदा करने में अड़चनें आती हैं। पैदा होते ही उनकी मौत हो जाती है। एक आंख से दिखना बंद हो सकता है। शरीर के जोड़ काम नहीं करते हैं। रक्त की कमी या अशुद्धि हो जाती है। चौथे और आठवें भाव में मंगल अशुभ माना गया है। किसी भी भाव में मंगल अकेला हो तो पिंजरे में बंद शेर की तरह है। मंगल के साथ केतु हो तो अशुभ हो जाता है। मंगल के साथ बुध के होने से भी अच्छा फल नहीं मिलता।