लालच बुरी बला। यह तो सभी ने सुना होगा। लालच का अर्थ यह है कि अधिक से अधिक की अपेक्षा करना। कभी कभी लालच से जो हाथ में है वह भी छूट जाता है। इसलिए समझदारी इसी में है कि लालच और संतोष की सीमा को समझे अन्यथा कहते हैं कि लालच या दुविधा में दोनों गए माया मिली न राम। तो आइए पड़ते हैं लालच की दौड़।
एक आदमी को पता चला कि साइबेरिया में जमीन इतनी सस्ती है कि मुफ्त ही मिलती है। उस आदमी में वासना जगी। वह दूसरे दिन ही सब बेच-बाचकर साइबेरिया चला गया।
साइबेरिया में उसने एक सेठ से कहा कि मैं जमीन खरीदना चाहता हूँ। सेठ ने कहा- ठीक है, जितना पैसा लाए हो यहाँ रख दो और कल सुबह सूरज के निकलते ही तुम चलते जाना और सूरज के डूबते ही उसी जगह पर लौट आना जहाँ से चले थे, शर्त बस यही है। जितनी जमीन तुम चल लोगे, उतनी तुम्हारी हो जाएगी।
यह सुनकर वह आदमी रातभर योजनाएँ बनाता रहा कि कितनी जमीन घेर लूँ। उसने सोचा 12 बजे तक पुन: लौटना शुरू करूँगा, ताकि सूरज डूबते-डूबते पहुँच जाऊँ। जैसे ही सुबह हुई वह भागा। मीलों चल चुका था। बारह बज गए, मगर लालच का कोई अंत नहीं। सोचा लौटते वक्त जरा सी तेजी से और दौड़ लूँगा तो पहुँच जाऊँगा अभी थोड़ा और चल लूँ।
अंत में तीन बजे लालच की दौड़ थमी और उसने लौटने का निर्णय लिया, लेकिन तब तक हिम्मत जवाब दे गई थी। फिर भी दौड़ने में पूरी ताकत लगा दी। सूरज अस्त होने ही वाला था और बस करीब ही था लक्ष्य।
कुछ गज की दूरी पर गिर पड़ा। तब घिसटते हुए उसका हाथ उस जमीन के टुकड़े पर पहुँचा, जहाँ से भागा था और सूरज डूब गया। वहाँ सूरज डूबा और यहाँ वह आदमी भी मर गया। शायद हृदय का दौरा पड़ गया था। वह सेठ हँसने लगा। जीने का समय कहाँ है? सब लोग भाग रहे हैं।
इस कहानी से हमें यह शिक्षा मिलती है कि सुविधाओं के पीछे भागने के बजाय जीवन में जीना सबसे महत्वपूर्ण है। ज्यादा के लालच में जो हमें थोड़ा बहुत मिल रहा है वह भी चला जाता है। कम से कम मुक्त में मिल रही चीज़ में तो लालच नहीं करना चाहिए।
- ओशो रजनीश के किस्से और कहानियों से साभार