शनिवार शाम ओशो टाइम्स की संपादक अमृत साधना इंदौर प्रवास पर थीं। यहाँ उन्होंने विभिन्न मुद्दों पर ओशो-दृष्टि डाली। इन दिनों चर्चित समलैंगिकता के मुद्दे पर उन्होंने कहा कि इसको कानूनन मान्यता मिलना अच्छी बात है, पर ओशो कभी भी समलैंगिकता के पक्ष में नहीं रहे हैं। ओशो का तो मानना रहा है कि समलैंगिकों में ध्यान को लेकर उत्सुकता नहीं रहती है।
हाल ही में बच्चों में 5 वर्ष की आयु से सेक्स शिक्षा के शुरू करने की यूनेस्को की रिपोर्ट के बारे में उनका मानना था कि सेक्स को हौव्वा नहीं बनाया जाना चाहिए। यह एक स्वाभाविक प्रक्रिया है। इसका दमन गलत है। समलैंगिकता और सेक्स शिक्षा के बारे में सोच का दायरा विस्तृत किया जाना चाहिए।
युवा पीढ़ी में बढ़ती तनाव की प्रवृत्ति पर उन्होंने कहा कि तनाव के इन गड्ढों को ओशो ने बहुत पहले ही देख लिया था और इसलिए उन्होंने ध्यान की बात कही थी। प्रेस क्लब में पत्रकारों से चर्चा में अमृत साधना ने कहा कि दुनिया में हैरी पॉटर के बाद सबसे ज्यादा ओशो साहित्य पढ़ा जाता है। यहीं उन्होंने यह भी कहा कि गरीब ओशो की ध्यान पद्धति को अफोर्ड नहीं कर सकता है। उसकी पहली चिंता पेट की है। जब उसका पेट भर जाएगा तो उसे ओशो की बात समझ में आएगी।
सांस्कृतिक मूल्यों के संकट की बात पर अमृत साधना का कहना था कि इससे घबराने की बिलकुल भी जरूरत नहीं है। मूल्यों का संघर्ष तो हर दौर में चलते रहना चाहिए, तभी तो हमें नए मूल्य मिलेंगे। ओशो की ये पंक्तियाँ उन्होंने उद्धृत कीं-
परंपरा और क्रांति में संघर्ष चलने दो/ आग लगी है तो सूखी टहनियों को जलने दो।