जकिया जुबेरी का बचपन हिन्दुस्तान में बीता, शादी पाकिस्तान में कर दी गई और राजनीतिक करियर परवान चढ़ा ब्रिटेन में। इस तरह जकिया जुबेरी तीन-तीन राष्ट्रीयताओं का संगम हो गईं। हिन्दी, उर्दू और इंग्लिश उनकी भाषाएँ हैं। भाषाओं की तरह उनके व्यक्तित्व में भी कई रंग हैं। वे ब्रिटेन की लेबर पार्टी की सदस्य हैं, इसी के बैनर पर चुनाव जीतकर काउन्सलर बनी हैं। वे राजनेता के साथ ही लेखिका, चित्रकार व समाज सेविका भी हैं। मगर इन रंगों में सबसे गाढ़ा है हिन्दुस्तानियत का रंग। भारतीय संस्कृति व हिन्दी भाषा उनके भीतर तक समाई हुई है। प्रस्तुत हैं जकियाजी से बातचीत के अंशः
* कहा जाता है कि बचपन व्यक्ति की आत्मा की सतह पर रहता है,आप जब पलट कर देखती हैं तो अपने बचपन को कहाँ महसूस करती हैं कैसा था आपका बचपन? - मेरा बचपन हिन्दुस्तान में बीता। मेरा बचपन बहुत खूबसूरत था । हालाँकि जब मैं 5 साल की थी तब मेरे पिता की मृत्यु हो गई थी लेकिन वे इतना सब छोड़ कर गए थे कि अपने घर आजमगढ़ में हम हँसी-खुशी जिंदगी बिता रहे थे। वैसे 5 साल के बच्चे को इतना पता भी नहीं होता है। हमारा जीवन तो वैसे ही चल रहा था। हमारे बाग थे, दरिया थी, जानवर थे, साथी थे, घरेलू सेवकों के बच्चे हमारे साथ ही खेलते थे। यह बस कुछ बहुत सौंधा और खुशनुमा था।
* फिर पाकिस्तान कैसे जाना हुआ आपका? - ऐसा होता है जब घर में एक बिल्ली होती है और जब आपका दिल भर जाता है और उसको कहीं छुड़वाना होता है तो आँख पर पट्टी बाँधकर छोड़ा जाता है वरना वो वापस आ जाती है,इसी तरह हमें पाकिस्तान शादी करके पहुँचाया गया ताकि हम वापस न आ सके। हमारी शादी कर दी गई वहाँ इस तरह से हम 1965 में पाकिस्तान गए। हम वहाँ घूमने गए थे। हमारे भाई-बहन वहाँ थे।
उनसे मिलने हम पहले ढाका गए थे, वहाँ 1965 का युद्घ छिड़ गया, तो हम वहाँ फँस गए। तो हमारी अम्मी का खत आया कि तुम वहाँ खाली न बैठो वहाँ दाखिला ले लो। मैं बनारस हिन्दू यनिवर्सिटी से बीए करके आई थी तो वहाँ पर अमेरिकन इंस्टीट्यूट ऑफ एजुकेशन एंड रिसर्च में मुझे एमएड के लिए दाखिला मिल गया। मैं वहाँ पढ़ने लगी। मेरे फाइनल एक्जाम के पहले कराची में मेरे भाई की शादी हो गई।
जब मैं कराची गई तो मुझे वापस नहीं आने दिया गया। वहीं पर मेरे लिए लड़का देख रखा था। घरवालों ने मुझसे शादी करने को कहा और बोला कि अब तुम्हें इंडिया नहीं जाना है वापस। उन्हें बड़ा डर था कि कहीं मैं इंडिया में किसी हिन्दू लड़के से शादी न कर लूँ। मैं तो अपना देश, अपना घर, अपनी जमीन, अपना पानी नहीं छोड़ना चाहती थी। हमारी माँ भी हिन्दुस्तान में ही रहती थीं, तो मैंने शर्त लगाई कि माँ नहीं आई तो मैं शादी नहीं करूँगी। माँ ने कहा था कि वे कभी पाकिस्तान नहीं आएँगी लेकिन ये लोग उन्हें किसी तरह बुला ही ले आए। जब माँ आ गई तो मुझे शादी करनी ही पड़ी।
* जब पाकिस्तान का विभाजन हुआ यानी बांग्लादेश बना, तब आपका क्या स्टेटस रहा? आप इधर वाले पाकिस्तान में आ गईं। - मैं विभाजन से कुछ पहले कराची आ गई थी। मैंने परीक्षा देने जाने के लिए कहा तो घरवालों ने कहा वह कोर्स यहाँ लाहौर में भी है। मेरी शादी हो गई थी।
* आपका लंदन कैसे जाना हुआ? - ये तो भगवान की कृपा थी। हमारी शादी हो गई थी। जिंदगी अच्छी ही थी लेकिन वह सब नहीं था जो नॉर्मल इंसान की जिंदगी के लिए जरूरी होता है। साथ की सहेलियाँ नहीं थीं, अपना माहौल नहीं था, अपना कल्चर नहीं था। पाकिस्तान और हिन्दुस्तान के कल्चर में बहुत फर्क है। हमने स्टूडेंट लाइफ में बहुत सादगी से पढ़ाई की थी। हम हिन्दुस्तानी कल्चर में रचे-बसे थे। पति के साथ मैं मुल्तान, फैसलाबाद फिर पिंडी गई। ये सब पंजाब था। इस माहौल में एडजस्ट नहीं कर पाई। पति से वापस इंडिया जाने को कहा लेकिन उनका कहना था कि हम तो पार्टीशन में आए थे, हम नहीं जा सकते है। हम नौ साल पाकिस्तान रहे। फिर पता चला कि इनकी पोस्टिंग लंदन हो गई है। इस तरह हम 1977 में लंदन आ गए।
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* एक हिन्दुस्तानी और पाकिस्तानी मुस्लिम महिला का ब्रिटेन की राजनीति में आना मैं समझती हूँ अपने आप में एक इवेंट है। ब्रिटेन की राजनीति में आप कैसे सक्रिय हुईं? - मैं लंदन आई तो मैंने घर चलाया, बच्चे पाले। लेकिन सामाजिकता में मेरी हमेशा रुचि थी। हम देख रहे थे वहाँ मुसलमानों की स्थिति दिन पर दिन बिगड़ती जा रही थी। ड्रॉइंग रूम में राजनीति की बातें होती थीं, जोर-जोर से बहस होती थी। मुझे इसी बात का फ्रस्ट्रेशन हुआ कि कोई कुछ करता नहीं और सब चिल्ला-चिल्लाकर लड़ते हैं। तो मैंने सोचा था कि जैसे ही मुझे फुर्सत होगी मैं जरूर कुछ करूँगी। हम ब्रिटेन आए तो पाकिस्तानी होकर आए। पाकिस्तान से एक पार्टी है 'एमक्यूएम'। उन लोगों को वहाँ से देश निकाला मिल गया था।
मुहाजिर ब्रिटेन आ गए तो हम लोग उनको मदद करने लगे। इस तरह जब मैं उनके साथ उठने-बैठने लगी,तो मुझे राजनीति का ज्ञान होने लगा। फिर उनके साथ काम किया तो 10 साल तक मैंने काम करके काफी सीख लिया। उसके बाद मैं लेबर पार्टी में मेम्बर बन गई। मैंने लगन से काम किया, ईमानदारी से किया, तो एमपी ने कहा कि तुम काउंसलर के लिए क्यों नहीं सोचती हो? फिर उपचुनाव में मुझे खड़ा किया गया और मैं जीत गई। इससे पहले भी मुझे दो जगह खड़ा किया गया था मगर मैं हार गई थी। लेकिन मैं बैठी नहीं हारकर, मैंने उसी तरह काम किया तो ये बात उन लोगों को बहुत पसंद आई।
* आपके कहा कि आपने बहुत काम किया तो आपका निर्वाचन क्षेत्र किस तरह का है? क्या काम किया और किस तरह का किया? - पूरे लंदन को 32 'बरो' में बाँटा गया है। एक बरो में तकरीबन 300000 लोग होते है और उनमें 100000 की तीन कांस्टीट्यूएंसी होती है। एक कांस्टीट्यूएंसी में 6-7 वॉर्ड होते है। उन वॉर्ड के कांसलर होते हैं। जहाँ मैं जीती वह बहुत गरीब एरिया था सुमाली मुसलमानों का। तो उनके साथ मुझे काम करना पड़ा। उस बरो में मैं पहली मुसलमान औरत काउंसलर थी। मैंने वहाँ तीन इलेक्शन जीते हैं। मैं वहाँ बहुत खुश हूँ। मैं कम्युनिटी का काम करती हूँ, जिसमें सिर्फ मुस्लिम ही नहीं हैं। श्रीलंकन कम्युनिटी, बौद्घिस्ट कम्युनिटी है, सुमाली और हिन्दू कम्युनिटी है। क्रिश्चियन में भी दो-तीन तरह के हैं, उनके लिए भी मैं काम करती हूँ।
* हिन्दुस्तान, पाकिस्तान और इंग्लैंड में महिलाओं की स्थिति में क्या अंतर है? - इंग्लैंड में जेंडर बायस ज्यादा नहीं है। पाकिस्तान में बहुत ज्यादा है।
* साहित्य, कला और संस्कृति में आपका झुकाव कैसे हुआ? - मुझे बचपन से आर्ट में बहुत ज्यादा रुचि थी। मैंने बचपन से पेंटिंग की। हमेशा दीवारों पर डिस्प्ले हुए। स्कूल और इंटरमीडिएट में भी पेंटिंग ली हुई थी। इलाहाबाद यूनिवर्सिटी में पेंटिंग नहीं थी। हमने वहाँ डिप्लोमा किया। लेकिन दूसरे सब्जेक्ट में हमारा दिल नहीं लगा। हम चाहते थे साइकोलॉजी और पेंटिंग दो सब्जेक्ट जरूर हो हमारे पास में।
इसीलिए मैंने इलाहाबाद यूनिवर्सिटी से पढ़ाई छोड़ दी और बनारस हिन्दू यूनिवर्सिटी चली गई। वहाँ जाकर मैंने पेंटिंग, मनोविज्ञान और हिन्दी साहित्य लिया। इलाहाबाद में एक बहुत बड़े आर्टिस्ट थे, लखनऊ स्कूल ऑफ आर्ट के। उनका स्कूल था। मैं उसमें भी जाती थी। कमर्शियल आर्टिस्ट के रूप में भी मैंने काम किया। जहाँ तक साहित्य का सवाल है, मैं छुटपन से ही कहानियाँ लिखती रही हूँ।
स्कूल में एक बार 'माय मदर' पर निबंध लिखना था तो मैंने सौतेली माँ की कल्पना कर निबंध लिखा। उसे पढ़कर टीचर की आँखों में आँसू आ गए थे। उन्होंने कहा, मुझे तो मालूम ही नहीं था कि तुम्हारी अपनी माँ नहीं हैं। मैंने कहा मेरी माँ तो हैं, निबंध तो मैंने कल्पना करके लिखा है।
असल में मेरी एक सहेली थी प्रभा। उसके 6-7 भाई-बहिन थे। वो सबको खिलाती थी, पिलाती थी, स्कूल भेजती थी और सौतेली माँ घर में पड़ी सोती रहती थी। मैंने पूछा माँ काम नहीं करती हैं, उसने कहा वो मेरी सौतेली माँ हैं। प्रभा हमेशा फटे-पुराने कपड़े पहनकर आती थी। इस तरह यह कहानी रूप निबंध हो गया था। इस निबंध के लिए मुझे सर्वाधिक अंक मिले। इससे मुझे प्रोत्साहन मिला।
फिर मैंने हिन्दी में छोटी-छोटी कहानियाँ लिखना शुरू किया, स्कूल की मैग्जीन के लिए। मैं कराची आ गई तो वहाँ सब रुक गया क्योंकि वहाँ हिन्दी जबान ही नहीं थी। उर्दू मुझे ठीक से आती नहीं थी। एक किस्सा सुनाऊँ: मेरी सास ने मुझसे कहा दुल्हन, अब तुम सौदे की लिस्ट बनाओ। उन्होंने देखा तो हिन्दी में लिस्ट बनाई है। कहा उर्दू में बनाओ, तो मैंने कहा उर्दू तो मुझे आती नहीं।
उन्होंने कहा कि तुम मुसलमान हो और तुम्हें उर्दू नहीं आती! मैंने कहा हिन्दुस्तान में तो सभी मुसलमान हिन्दी पढ़ते हैं। खैर, सास ने कहा, रोज 'जंग' अखबार से नकल किया करो। इस तरह मैंने उर्दू सीखी। फिर मैं लंदन आ गई। मेरे पति ने कहा कि बच्चे यहाँ आ गए हैं तो इन्हें उर्दू नहीं आएगी। ये पाकिस्तानी बच्चे हैं, तो ट्यूटर रखें। मैं बच्चों को कार से लाती-ले जाती थी।
ट्यूटर ने मुझसे कहा आप इतने अच्छे किस्से सुनाती हैं तो आप अफसाने क्यों नहीं लिखतीं! मैंने कहा, मुझे उर्दू नहीं आती। उन्होंने कहा हम बच्चों को पढ़ा लें, फिर आपको उर्दू पढ़ाएँगे। फिर उन्होंने मुझे सिखाया। तो मैं उर्दू में लिखने लगी। मेरी पहली कहानी 'नूरा' थी। शाह साहब थे, उन्होंने मुझसे कहानियाँ लिखवाना शुरू किया। उन्होंने मुझे मंच भी दिया। जहाँ सबकी कहानियाँ पढ़ी जाती थीं, वहाँ मेरी भी पढ़ी गई। बीच में एक ब्रेक के बाद मैंने फिर लिखना शुरू किया। जैसे 'मारिया' कहानी मैंने उर्दू में लिखी है, वह हिन्दी में अनुवादित हुई है।
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* आप कला और साहित्य से जुड़े उभरते लोगों को मंच भी प्रदान करती हैं। यह ख्याल कैसे आया? - ये जज्बा माँ से आया है। मेरी माँ आसपास के बच्चों को बुलाकर मिट्टी पोतकर तख्ती देती थीं और कहतीं, अब चलो बैठकर तख्ती लिखो। गाँव में कोई बच्चा पैदा होने वाला होता तो माँ सिलाई मशीन लेकर बैठ जातीं और टोपे-फ्रॉक सीतीं। मुझसे भी सिलवातीं। बाकायदा 5-6 फ्रॉकें और टोपी बनकर उस औरत को दे दी जाती थी। हमारे गाँव से गल्ला आया करता था, चावल और गेहूँ वगैरह। वह मिट्टी के 'ठीक' में रखा जाता था वहाँ से वे सबको निकाल-निकाल कर देती थीं।
वे जो घर में खाती थीं उसको शेयर जरूर करती थीं। 1977 में वे हमारे साथ यहाँ आ गई जो भी अच्छी पोजीशन पर अपने बच्चे होते थे उनसे कहकर दूसरों के काम कराया करती थीं। माँ को देखकर ही मुझमें यह जज्बा पैदा हुआ कि मैं भी दूसरों के काम करूँ।
मैंने लंदन में यह ऐसे शुरू किया कि एक लड़की थी, उसको कथक के लिए प्लेटफॉर्म चाहिए था मैंने उससे कहा तुम ऐसा कोरियोग्राफ करो जिसमें वेस्ट और ईस्ट दोनों हो तो उसको एक लड़की मैंने दी जो वेस्टर्न डांस जानती थीं। तो उसने बनाया 'फ्रॉम गेंजेस टू थेम्स'। वह बहुत लोकप्रिय भी हुआ। उसके लिए हमने हॉल बुक किया, हमीं ने टिकट छापे, लोगों को इनवाइट किया, टिकट बाँटे।
इसी तरह एक आर्टिस्ट थे। वे थियेटर के आदमी थे। अचानक उनको काम मिलना बंद हो गया। उन पर किराया चढ़ गया। वो आजमगढ़ के थे। वे अचला शर्मा और परवेज को वे जानते थे । उनसे हमने कहा कि आप एक प्ले तैयार कीजिए प्लेटफार्म हम देंगे। तो उन्होंने अचला से कहा तो अचला ने एक प्ले को ट्रांसलेट किया। परवेज ने उसे डायरेक्ट किया। वो खुद एक बड़े कलाकार है।
हिन्दी में उसका नाम रखा गया 'रिश्ता'। उसमें भी हमने अच्छे पैसे कमाए। कलाकार को भी पैसे दिए। हमने कभी आज तक एशियन कम्युनिटी आर्टस् का एकाउंट तक नहीं खोला क्योंकि उससे हमें टेम्पटेशन होगा कि पैसे उसमें रखें। पैसे हम आर्टिस्ट को दे देते थे। फिर दुबारा कोई आर्टिस्ट आता था तो हम अपने पैसे से शुरू कर देते थे। हमारे पैसे कार्डस् पर लगते थे। टाइम हम फ्री में देते थे। इसी तरह हमने ऑडियो बुक्स भी लॉन्च कीं।
* क्या आप कभी अपनी आत्मकथा लिखेंगी? - लिखने को तो बहुत कुछ है। तरह-तरह के तजुर्बे हैं मगर राजनीति से समय निकालना थोड़ा कठिन है। किसी को डिक्टेट किया जाए, तो वह बात नहीं बनेगी। इच्छा तो है लिखने की। शायद कभी बोलकर रेकॉर्ड कर लें।