हिन्दी कविता : विधुर बाप

डॉ मधु त्रिवेदी
विधुर बाप निर्बल, असहाय
बेचारा-सा होता है
है अगर छोटी-छोटी गुड़िया तो
किस्मत का मारा होता है
 
है अबोध, अनजान शिशु तो
मां जैसा ही दुलारा होता है
शीतल, सौम्य, स्नेहदायिनी
दुग्ध की पावन धारा होता है
 
बड़ी-बड़ी बेटियों के लिए तो
मर्यादा का रखवाला होता है
पथ भटके जब जवां लाड़लियां
तो सही राह दिख लाने वाला होता है
हो जाए विधुर यदि यौवनावस्था में
तो टूटे हुए तारे-सा होता है
कामेच्छाओं के सरोवर में बिना
पानी के मछली जैसा होता है
 
हो जाए विधुर चालीस के पार तो
कोई बात न करने वाला होता है
आवश्यकताओं की पूर्ति न होने पर
सागर में रेगिस्तान जैसा होता है
 
निःसहाय विधुर बहू बेटे के राज्य में
भंवर में पतवार खेने वाला होता है
दैनिक आपूर्ति के लिए तरसता 
केवल ऊपर वाला ही सहारा होता है
 
विधुरों जैसी हालत आज मेरे बुजुर्गों की
बहू-बेटे के होते भी दर-दर भटकते हैं
आज के बहू-बेटे, ले लो सबक
तुमको भी बुजुर्ग होना है
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