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हिन्दी कविता : पतझड़ की एक कली...

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रामध्यान यादव 'ध्यानी'

मैं पतझड़ की एक कली, 
तुम चाहो तो खिल जाऊं।
पर ऐसी मेरी चाह नहीं, 
माले में गुंथी जाऊं।
 
एक यही बस अभिलाषा, 
मैं सबको गले लगाऊं।
मैं पतझड़ की एक कली,
तुम चाहो तो खिल जाऊं।
 
इन नन्ही-नन्ही कलियों संग, 
मैं झूम-झुमकर गाऊं।
उस विकल प्यार की आभा का, 
मैं सुन्दर राग सुनाऊं।
 
मोती मैं ना बनूं कभी, 
धागे में गुंथी जाऊं।
मैं पतझड़ की एक कली, 
तुम चाहो तो खिल जाऊं।
 
आंगन की किलकारी बन, 
मैं सबको अंग लगाऊं।
साथ मिले गर पत्थर का, 
तो उसको भी पिघलाऊं।
 
आंखों में हो शर्म-हया,
मैं सद्गुण ही अपनाऊं,
मैं पतझड़ की एक कली, 
तुम चाहो तो खिल जाऊं।
 

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