अशोक बाबू माहौर
चढ़ती धूप को
कैसे रोकोगी?
क्या खड़े कर पाओगी ?
दीवालें इतनी
महल अनेकों
या बांध पाओगी चारों तरफ
पल्लियां।
क्या अंधेरे में ?
घुटन न होगी तुम्हें
सच कहूं
भानु बिना जिंदगी क्या?
संपूर्ण भू
जीवनचर्या अनाथ सी
अकेला महसूस करेगी
उदास हो
कोसेगी खुद को
चांद भी
साथ न देगा
न देगी साथ
जगमगाती बिजलियां।