अटल बिहारी वाजपेयी की 5 श्रेष्ठ कविताएं, यहां पढ़ें

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न मैं चुप हूं, न गाता हूं
 
सवेरा है, मगर पूरब दिशा में घिर रहे बादल,
रुई से धुंधलके में मील के पत्थर पड़े घायल,
ठिठके पांव,
ओझल गांव,
जड़ता है न गतिमयता,
स्वयं को दूसरों की दृष्टि से मैं देख पाता हूं।
न मैं चुप हूं, न गाता हूं
 
समय की सर्द सांसों ने चिनारों को झुलस डाला,
मगर हिमपात को देती चुनौती एक द्रुममाला,
बिखरे नीड़,
विहंसी चीड़,
आंसू हैं न मुस्कानें,
हिमानी झील के तट पर अकेला गुनगुनाता हूं।
न मैं चुप हूं, न गाता हूं।
 
**** 
 
आओ फिर से दिया जलाएं
 
भरी दुपहरी में अंधियारा,
सूरज परछाईं से हारा,
अंतरतम का नेह निचोड़ें, बुझी हुई बाती सुलगाएं।
आओ फिर से दिया जलाएं।
 
हम पड़ाव को समझे मंजिल,
लक्ष्य हुआ आंखों से ओझल,
वर्तमान के मोहजाल में आने वाला कल न भुलाएं।
आओ फिर से दिया जलाएं।
 
आहुति बाकी, यज्ञ अधूरा,
अपनों के विघ्नों ने घेरा,
अंतिम जय का वज्र बनाने, नव दधीचि हड्डियां गलाएं।
आओ फिर से दिया जलाएं।
 
**** 
 
हरी-हरी दूब पर
 
हरी-हरी दूब पर
ओस की बूंदें
अभी थीं,
अब नहीं हैं।
ऐसी खुशियां
जो हमारा साथ दें
कभी नहीं थीं,
कहीं नहीं हैं।
 
क्वाँर की कोख से
फूटा बाल सूर्य,
जब पूरब की गोद में
पांव फैलाने लगा,
तो मेरी बगीची का
पत्ता-पत्ता जगमगाने लगा,
मैं उगते सूर्य को नमस्कार करूं
या उसके ताप से भाप बनी,
ओस की बूंदों को ढूंढूं?
 
सूर्य एक सत्य है
जिसे झुठलाया नहीं जा सकता
मगर ओस भी तो एक सच्चाई है
यह बात अलग है कि ओस क्षणिक है
क्यों न मैं क्षण-क्षण को जीऊं?
कण-कण में बिखरे सौन्दर्य को पीऊं?
 
सूर्य तो फिर भी उगेगा,
धूप तो फिर भी खिलेगी,
लेकिन मेरी बगीची की
हरी-हरी दूब पर,
ओस की बूंद
हर मौसम में नहीं मिलेगी।
 
**** 
 
पहचान
 
पेड़ के ऊपर चढ़ा आदमी
ऊंचा दिखाई देता है।
जड़ में खड़ा आदमी
नीचा दिखाई देता है।।
 
आदमी न ऊंचा होता है, न नीचा होता है,
न बड़ा होता है, न छोटा होता है।
आदमी सिर्फ आदमी होता है।
 
पता नहीं इस सीधे, सपाट सत्य को
दुनिया क्यों नहीं जानती?
और अगर जानती है,
तो मन से क्यों नहीं मानती?
 
इससे फर्क नहीं पड़ता
कि आदमी कहां खड़ा है?
पथ पर या रथ पर?
तीर पर या प्राचीर पर?
 
फर्क इससे पड़ता है कि जहां खड़ा है,
या जहां उसे खड़ा होना पड़ा है,
वहां उसका धरातल क्या है?
 
हिमालय की चोटी पर पहुंच,
एवरेस्ट-विजय की पताका फहरा,
कोई विजेता यदि ईर्ष्या से दग्ध
अपने साथी से विश्वासघात करे,
 
तो क्या उसका अपराध
इसलिए क्षम्य हो जाएगा कि
वह एवरेस्ट की ऊंचाई पर हुआ था?
 
नहीं, अपराध अपराध ही रहेगा,
हिमालय की सारी धवलता
उस कालिमा को नहीं ढंक सकती।
 
कपड़ों की दूधिया सफेदी जैसे
मन की मलिनता को नहीं छिपा सकती।
 
किसी संत कवि ने कहा है कि
मनुष्य के ऊपर कोई नहीं होता,
मुझे लगता है कि मनुष्य के ऊपर
उसका मन होता है।
 
छोटे से मन से कोई बड़ा नहीं होता,
टूटे मन से कोई खड़ा नहीं होता।
 
इसीलिए तो भगवान कृष्ण को
शस्त्रों से सज्ज, रथ पर चढ़े, 
कुरुक्षेत्र के मैदान में खडे,
अर्जुन को गीता सुनानी पड़ी थी।
 
मन हार कर, मैदान नहीं जीते जाते,
न मैदान जीतने से मन ही जीते जाते हैं।
 
चोटी से गिरने से
अधिक चोट लगती है।
अस्थि जुड़ जाती,
पीड़ा मन में सुलगती है।
 
इसका अर्थ यह नहीं कि
चोटी पर चढ़ने की चुनौती ही न मानें,
इसका अर्थ यह भी नहीं कि 
परिस्थिति पर विजय पाने की न ठानें।
 
आदमी जहां है, वहीं खड़ा रहे?
दूसरों की दया के भरोसे पर पड़ा रहे?
 
जड़ता का नाम जीवन नहीं है,
पलायन पुरोगमन नहीं है।
 
आदमी को चाहिए कि वह जूझे,
परिस्थितियों से लड़े,
एक स्वप्न टूटे तो दूसरा गढ़े।
 
किंतु कितना ही ऊंचा उठे,
मनुष्यता के स्तर से न गिरे,
अपने धरातल को न छोड़े,
अंतर्यामी से मुंह न मोड़े।
 
एक पांव धरती पर रखकर ही
वामन भगवान में आकाश, पाताल को जीता था।
 
धरती ही धारण करती है,
कोई इस पर भार न बने,
मिथ्या अभिमान से न तने।
 
मनुष्य की पहचान,
उसके धन या आसन से नहीं होती,
उसके मन से होती है।
मन की फकीरी पर
कुबेर की सम्पदा भी रोती है।
 
**** 
 
गीत नहीं गाता हूं
 
बेनकाब चेहरे हैं,
दाग बड़े गहरे हैं,
टूटता तिलस्म, आज सच से भय खाता हूं।
गीत नहीं गाता हूं।
 
लगी कुछ ऐसी नजर,
बिखरा शीशे सा शहर,
अपनों के मेले में मीत नहीं पाता हूं।
गीत नहीं गाता हूं।
 
पीठ में छुरी सा चांद,
राहु गया रेखा फांद,
मुक्ति के क्षणों में बार-बार बंध जाता हूं।
गीत नहीं गाता हूं।
 
**** 
साभार- मेरी इक्यावन कविताएं
 

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