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मंगलवार, 15 अक्टूबर 2024
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वो तीखी नजरों से मेरे दिल पर....

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अजातशत्रु

तुलसी के बिरवे-सा निष्पाप। दूधमुंहे बच्चे-सा निर्मल, पूनम के चांद-सा भद्र, गुलाब की पंखुड़ी-सा कोमल, हिरनी की आंख-सा शरीफ, पकी जामुन-सा मीठा और घायल हंस-सा वेदना प्रधान पुरुष गायन सुनना हो तो सहगल के बाद मुकेशचंद्र माथुर यानी मुकेश को सुन लीजिए। उनके गायन में कहीं कंकड़, किरच और अटकाव नहीं है। सब कुछ प्रातःकालीन मंदवाही समीर जैसा चुपचाप बहता जाता है।

मुकेश को सुनना उनके गायन के पीछे एक ऐसे शख्स से मिलना है, जो शालीन और सुशील है। शरीफ और सीधा-सादा है, जिसमें चालाकी, मक्कारी और सियासत का पेंच नहीं है। आवाज भी इतनी साफ, गहरी और शीतल है और तलफ्फुज (उच्चारण) भी इतना स्वच्छ और स्पष्ट है कि लगता है हम हवा के आरपार एक हरीभरी खामोश घाटी को देख रहे हैं और स्पेस के फूल बिछौने पर जा लेटे हैं। कुछ इन खासमखास गीतों को लक्ष्य में लीजिए, ऊपर के विशेषण आपको अतिरंजित नहीं मालूम पड़ेंगे- जिंदगी ख्वाब है, था हमें भी पता (छोटी-छोटी बातें)/ किसे याद रक्खूं किसे भूल जाऊं (अनुराग)/ दिल ही बुझा हुआ हो तो फसले बहार क्या (निर्दोष)/ मोती चुगने गई रे हंसी, मान सरोवर तीर (छीन ले आजादी, शमशाद के साथ)/ कहां तक जफा हुस्न वालों की सहते (तोहफा)/ लखि बाबुल मोरे काहे को दीनी बिदेस (सुहागरात)/ तू कहे अगर जीवन भर (अंदाज)/ आंसू भरी हैं ये जीवन की राहें (परवरिश)/ सारंगा तेरी याद में (सारंगा)/ मोहब्बत भी झूठी जमाना भी छूटा (हमारी बेटी)/ दिल की परेशानियां (हम लोग)/ कांटों में रहने वाले कांटों से क्या डरेंगे (मतलबी दुनिया)/ जियरा जरत रहत दिन रैन (गोदान)/ तुम बिन सूना जीवन मेरा (ीराम भक्त हनुमान) और ऐसे कई सघन-गहन विषाद गीत।

दूसरी तरफ रूमानी गीतों में भी मुकेश की कोमल मिठास का जवाब नहीं रहा है। जैसे खिले फूलों पर बैठकर सुबह की हवा होंठ खोल रही हो- कुछ ऐसा ही नर्म अहसास दिल में जागता है। ऐसी कुछ शरीफ मेलडीज पर भी गौर कर लीजिए- पल भर की ही पहचान में परदेसी सनम से (अनुराग)/ ये प्यार की बातें ये सफर भूल न जाना (अनोखी अदा)/ किसी का दिल चुरा लेना बड़ी प्यारी शरारत है (खूबसूरत धोखा)/ मुफ्त हुए बदनाम (बरात)/ नैना हैं जादू भरे (बेदर्द जमाना क्या जाने)/ लाई खुशी की दुनिया (विद्या/ सुरैया के साथ)/ ये वादा करो चांद के सामने (राजहठ/ लता के साथ)/ काहे नैनों में कजरा भरो (बड़ी बहू/ लता के साथ)/ उनकी गली में आए हम कह दे कोई हुजूर से (नजारे)/ ऐ दिले आवारा चल (डॉक्टर विद्या) व गुस्से में जो निखरा है (दिल ही तो है) वगैरह। इनमें से कुछ गीतों में तो ऐसा माधुर्य, कोमलता और शील है कि भोले-भाले, भद्र युवक पर रीझकर सुंदरी ही ठेड़कर बैठे। शर्मीली दोशीजाओं से भी ज्यादा नाजुक-शरीफ हैं ये मेलडीज!

इस बार जिस मुकेश-गीत पर मैं आपसे बात करने जा रहा हूं, वह मुस्कराता-सा, गुद्गुदाता-सा, रूमानी गीत है। दिल में वह फूल की तरह खिलता जाता है और गुपचुप-गुपचुप भलमनसाहत के मूड में उतारता जाता है। हम बैठे-बैठे वाष्प-स्नान कर लेते हैं और हमारी रूह का एक-एक रंध्र खुलता जाता है। यहां से वहां तक सुवास ही सुवास और फूलों से उतरकर आई हुई कोमलता ही कोमलता। यह मुकेश की मीठी और प्यारी आवाज तथा गीत की मधुर धुन का कमाल है कि दोपहर में सवेरा हो जाता है और सर पर हरसिंगार झरने लगता है। इसे सुनने के बाद दीवार में जोर से खीला ठोंकना भी भारी हो जाता है। विश्वास नहीं होता कि यह गीत आधी शताब्दी से भी पांच साल ज्यादा पुराना है। बस यूं लगता है कि मुकेश कान के पास बैठकर इसी दम फूल-फूल गा रहे हैं और अनिल बिस्वास की शरबती धुन गायन की कोमल मिठास पाकर दिल पर चंदन का लेप कर रही है।

प्रसंगवश बतला दूं कि इस मेलडी को स्तंभकार मिस कर गया था। इसकी ओर ध्यान खींचा इंदौर के ही पचहत्तर वर्षीय सिने-संगीत प्रेमी नारायण विजयवर्गीय ने। वे मुंबई आए तो इस गीत को कैसेट में लेते आए और फिर भीड़-भरी लोकल में वर्ली से उल्हासनगर तक का लंबा सफर कर स्तंभकार को सुना गए। एक तरह से यह लेख उन्हीं को 'धन्यवाद' व्यक्त करने के लिए लिखा गया है। बाकी काम अनिल दा और मुकेश के मिले-जुले माधुर्य का है कि भाषा और मुहावरे शक्ल लेते चले गए और पंक्तियां यहां तक आन पहुंचीं, जहां आप उन्हें पढ़ रहे हैं।

गीत सन्‌ 1949 की फिल्म 'वीना' का है, जिसके एक गाने 'पंछी और परदेशी दोनों नहीं किसी के मीत' (शमशाद बेगम) को पाकिस्तान में फांसी पर चढ़ने के पहले एक कैदी ने सुनने की इच्छा जताई थी।

फिल्म में रहमान, सुलोचना चटर्जी और वीरा ने काम किया था। गीत को 'प्रेम देहलवी' ने लिखा था, हालांकि इस गीत पर जिगर मुरादाबादी की मशहूर गजल 'किधर है तेरा ख्याल, ऐ दिल, यह क्या-क्या वहम समा रहे हैं/ ...इधर से देखो तो आ रहे हैं, उधर से देखो तो आ रहे हैं' का साफ-साफ असर है। पढ़िए इस प्यारे गीत की शब्द रचना, जिसके लिए मुकेश के तईं बार-बार मुंह से 'जियो मुकेश' निकलता जाता है! ...भरोसा न हो तो गीत सुन लीजिए।

वो तीखी नजरों से मेरे दिल पर,
कुछ ऐसी बिजली गिरा रहे हैं,
वो तीखी नजरों से मेरे दिल पर-
जलन तो पहले ही थी मगर अब,
वो दर्द दिल में बढ़ा रहे हैं-(2)
वो तीखी नजरों से मेरे दिल पर।
कभी वो आंचल हटा रहे हैं,
कभी वो परदा गिरा रहे हैं-(2)
शबाब उनका है हुस्न उनका,
वो हर अदा से लुभा रहे हैं-(2)
नशीली आंखें गुलाबी डोरे,
ये मदभरे दो हसीं कटोरे-(2)
जवानी उनका जमाना उनका,
बना रहे हैं, मिटा रहे हैं-(2)
वो तीखी नजरों से मेरे दिल पर।
मैं उनके हाथों में आरजू की,
वो एक शमां हूं 'प्रेम' जिसको
जला-जलाकर बुला रहे हैं-(2)/
बुझा-बुझाकर जला रहे हैं-(2)
वो तीखी नजरों से मेरे दिल पर।

गीत की खूबसूरत धुन और दिलकश गुलूकारी की एक सबब यह भी है कि उसमें लफ्जों की हसीन रवानी है और हर्फ अगले हर्फ में कोमलता से समाता जाता है। गुलूकारी और मआनी को उभार, दिलकशी देने के लिए अनिल दा कम से कम साज रखते हैं और जहां-तहां बांसुरी के लजीज टुकड़े बजवाते हैं। मुकेश की आवाज में भी वह बेस और शीतलता है कि लगता है मुकेश नहीं, बांसुरी गा रही है। जी होता है, यह नगमा कभी खत्म न हो। यही धुन अंतरों की मौसिकी के कुछ बदलाव के साथ बुलो.सी. रानी के संगीत की 'रसिया' में भी आई थी। 'वो हमसे चुप हैं, हम उनसे चुप हैं, दिलों के अरमां मचल रहे हैं' (लता)। 'वीना' के आलोच्य गीत में मेलडी का खास पुट 'वो तीखी' लफ्जों में उतरा है और उसके लिए मुकेश को 'धन्यवाद' ही दिया जा सकता है। फिर भी संगीतकार क्योंकि अनिल बिस्वासजी जैसे दिग्गज थे, इसलिए काफी श्रेय उनके खाते में चला जाता है और चले जाना चाहिए। मार्फत फिराक गोरखपुरी मुंह से निकल पड़ता है-

एक तुझसे छूटने का गम और एक उनसे मिलने का
जिनकी इनायतों से जी और परेशान हो गया।

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