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मंगलवार, 15 अक्टूबर 2024
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आबशारों के हसीं कद याद आ जाएँ

गुलज़ार की नज़्म जंगल और आधारित कलाकृति

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रवींद्र व्यास

Ravindra VyasWD
मेरा प्रिय यह मकबूल शायर फिर सुर्खियों में है। गुलज़ार! इस बार स्लमडॉग मिलिनेयर को मिले आस्कर के लिए, एक खूबसूरत गीत जय हो के लिए। इस शायर की फनकारी का जादू कम नहीं होता। कमाल ये है कि बस बढ़ता ही जाता है। उनकी नज़्मों का एक प्यारा सा संग्रह है रात पश्मीने की। इसमें एक नज़्म है-जंगल। इसमें सब कुछ है। एक भीगा अहसास, सौंधी खुशबू, घना जंगल और आहिस्ता-आहिस्ता गुजरता कोई लम्हा, कोई मद्धम आवाज, कल्पना का रेशमी परदा और थरथराती रूह का दिलकश लिबास।

यह नज़्म एक धुएँ की सौंधी खुशबू से शुरू होती है-

है सौंधी तुर्श सी खु़श्बू धुएँ में,
अभी काटी है जंगल से,
किसी ने गीली सी लकड़ी जलाई है!
तुम्हारे जिस्म से सरसब्ज़ गीले पेड़ की
खु़श्बू निकलती है!

पहली तीन पंक्तियों में धुएँ में खुशबू का और जंगल से काटी गीली-सी लकड़ी को जलाने का एक बहुत ही सादा सा अहसास है। यह चौंकाता नहीं, बस एक अनुभव का छोटा-सा बखान भर है। इसके बाद की पंक्तियाँ इस नज़्म में किसी बलखाती अदा की तरह अपना जलवा बिखेरती है और उस सादा से अहसास को एक बिलकुल नया, ऐंद्रिक अनुभव दे जाती है। सरसब्ज़ गीले पेड़ की खुशबू निकल रही है लेकिन यह निकल रही है-तुम्हारे जिस्म से।

आगे की पंक्तियों में फिर एक दृश्य है। बहुत घना है इसलिए वह काला जंगल है। इस घने काले जंगल की नीरवता में एक आहट है, एक आवाज है। सुनिए, यह किसी दरिया के धीरे धीरे बहते जाने की आवाज है। यह शायर एक साथ अपने में खोया-खोया और चौकन्ना भी है।

घनेरे काले जंगल में,
किसी दरिया की आहट सुन रहा हूँ मैं,
कोई चुपचाप चोरी से निकल के जा रहा है!

लेकिन इस फनकार का जादू इन पंक्तियों में नहीं आगे की पंक्तियों में हैं। एक बेहद नाजुक रिश्ते की महिन परत को वे अपनी बेहद पानीदार निगाह से देखते-दिखाते हैं। यह अहसास है, जैसे कह रहे हों कि रूह से महसूस करो। एक करवट का असर, या एक करवट से पड़े असर का बिम्ब वे कहाँ देख लेते हैं। यही तो उनका जादू है।

कभी तुम नींद में करवट बदलती हो तो
बल पड़ता है दरिया में!

और फिर आँखें हैं लेकिन आँखें ही नहीं हैं उनमें कुछ है जो खूबसूरत है, मानीखेज है। और बदन है, उसकी याद है। उस बदन के गठन की लय है, उस बदन की अंगड़ाई है शायद जो आबशारों के हसीं कद की तरह है। क्या खूब है। यहाँ मुझे हिंदी के अप्रतिम कवि शमशेर की याद आती है।

तुम्हारा बदन एक आबशार है। एक हसीन आबशार। अपनी गरिमा में अपना उजास फैलाता हुआ। अपनी लय और अपने संगीत में गूँजता हुआ। अपनी ही धुन में बहता हुआ...मुग्ध करता हुआ...आत्मा को शीतलता देता हुआ...।

तुम्हारी आँख में परवाज दिखती है परिंदों की
तुम्हारे क़द से अक्सर आबशारों के हसीं क़द याद हैं!

सचमुच, वो क्या कद होगा जिसे देखकर आबशारों के हसीं कद याद आ जाएँ...।

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