गांधी से प्रभावित होकर जब ‘जंग ए आजादी’ में कूद पड़े फ़िराक़ गोरखपुरी

गिरीश पांडेय
(फिराक गोरखपुरी के जन्‍मदिन पर विशेष)
जवानी के शुरुआती दिनों में फ़िराक़ साहब गांधी के मुरीद थे। कभी उन्होंने कहा था कि गांधी की टूथलेस स्माइल पर संसार न्यौछावर हो सकता है। उनके जमाने में ईसा, कृष्ण और बुद्ध भी उनके सामने फीके पड़ गए थे।
8 फरवरी 1921 को गोरखपुर स्थित बाले मियां के मैदान में महात्मा गांधी के भाषण से प्रभावित होकर फ़िराक़ ने डिप्टी कलेक्टर का ओहदा छोड़ दिया और जंग ए आजादी की लड़ाई में कूद पड़े। अपनी विद्वता और मंत्रमुग्ध कर देने वाली भाषण कला से वे पंडित नेहरू के काफी निकट हो गए। बाद में यह निकटता ता-उम्र बनी रही। असहयोग आंदोलन के दौरान वे गिरफ्तार हुए और करीब डेढ़ वर्ष तक आगरा और लखनऊ के जेल में रहे।

चौरीचौरा आंदोलन के बाद गांधी से मोहभंग
चौरीचौरा कांड के बाद उस समय के तमाम कांग्रेसी नेताओं की तरह फ़िराक़ भी आंदोलन को एकाएक स्थगित करने के पक्ष में नहीं थे। लिहाजा उनका गांधी से मोहभंग हो गया। अपनी एक रचना में उन्होंने लिखा भी था...
‘बंदगी से नहीं मिलती, इस तरह तो जिंदगी नहीं मिलती,
लेने से तख्तों-ताज मिलते हैं, मांगने से भीख भी नहीं मिलती’

लक्ष्मीनिवास था फिराक के पुस्तैनी घर का नाम
फ़िराक़ गोरखपुरी के पुस्‍तैनी घर का नाम लक्ष्मीनिवास था और उनके पिता फ़ारसी के नामचीन शायर थे। फारसी शायर होने के साथ ही फ़िराक़ के पिता गोरख प्रसाद सहाय उर्फ इबरत गोरखपुर के जाने-माने वकील भी थे। तुर्कमानपुर स्थित उनके पुश्तैनी घर का नाम लक्ष्मी निवास था। उस जमाने में लक्ष्मी निवास में पंडित जवाहरलाल नेहरू, अली बंधु और मुंशी प्रेमचंद्र जैसी हस्तियों का ठिकाना हुआ करता था। उस समय के जाने-माने साहित्यकार और शहर के रईस मजनू गोरखपुरी, गौहर गोरखपुरी, परमेश्वरी दयाल, एम कोटियावी राही, मुग्गन बाबू, जोश मलीहाबादी, मजनू दि्ववेदी और तब के जाने-माने समाजवादी नेता शिब्बन लाल सक्सेना जैसे लोग भी वहां अक्सर आते रहते थे।

लंबी बीमारी के बाद पिता की मौत के बाद पिता के छोड़े गए कर्ज, भाइयों की तालीम और बहनों की शादी के लिए फ़िराक़ ने उस कोठी को महादेव प्रसाद तुलस्यान को बेच दिया था। बाद के दिनों में नाना साहब देशमुख भी इसमें रहे। महादेव प्रसाद तुलस्यान के पुत्र बाला प्रसाद तुलस्यान राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ से खासे प्रभावित थे। लिहाजा बाद के दिनों में उन्होंने इस कोठी को संघ को दे दिया। वर्षों तक नानाजी देशमुख यहां संघ प्रमुख के रूप में रहे। अब इसके एक हिस्से में सरस्वती शिशु मंदिर स्कूल है। बाकी हिस्से में मकान और एक निजी चिकित्सालय है। खुद फ़िराक़ इस कोठी को मनहूस मानते थे।

चुनाव में जब्त हो गई जमानत
मरहूम शायर रघुपति सहाय फ़िराक़ ने भी बासगांव लोकसभा क्षेत्र से चुनाव लड़ा था। वे न केवल चुनाव हार गए, बल्कि उनकी जमानत जब्त हो गई। इसके बाद उन्होंने यह कहकर राजनीति से तौबा कर ली कि राजनीति उन जैसे पढ़े-लिखों का शगल नहीं। उनके सचिव रहे रमेश द्विवेदी ने फिराक से जुड़ी अपने संस्मरणों की पुस्तक में इस चुनाव की चर्चा की है।

1957 के इस आम चुनाव में वह शिब्बन लाल सक्सेना की पार्टी किसान मजदूर पार्टी से प्रत्याशी थे। उनके खिलाफ हिंदू महासभा से उस समय के गोरक्षपीठाधीश्वर महंत दिग्विजयनाथ और कांग्रेस से सिंहासन सिंह चुनाव लड़ रहे थे। गोरखपुर आकाशवाणी में दिए एक साक्षात्कार में फ़िराक़ ने खुद इस चुनाव के अनुभवों की चर्चा की थी। उन्हें सबसे बड़ा मलाल इस बात का था कि जवाहरलाल नेहरू की कांग्रेस के खिलाफ उन्हें चुनाव लड़वा दिया गया। इसके लिए उन्होंने शिब्बन लाल सक्सेना को भी बुरा-भला कहा था।

आकाशवाणी के पूर्व कार्यक्रम अधिशासी रवीन्द्र नाथ श्रीवास्तव जुगानी भाई इस चुनाव से जुड़े रोचक किस्से बताते हैं। उनके अनुसार चुनाव प्रचार के लिए एक बस ली गई थी। यह बस नजीर भाई की थी। जो इसे भाड़े पर गोला से गोरखपुर के बीच चलाते थे। बस के आधे हिस्से में कार्यालय था। इसी से चुनाव संचालन होता था। आधे में पोस्टर बैनर और झण्डे आदि रखे जाते थे। यह बस जहां तक जाती थी फ़िराक़ साहब वहीं तक चुनाव प्रचार करते थे। फ़िराक़ के भाषण का विषय सिर्फ राजनीतिक नहीं था, वे सामयिक साहित्य व संस्कृति पर भी वह धारा प्रवाह बोलते थे। यह उनका अंतिम चुनाव रहा।

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