- प्रज्ञा पाठक
आज से लगभग नौ वर्ष पूर्व की बात है। सुबह के मेरे निर्धारित कार्य निपटाते हुए मेरा ध्यान अपने 3 वर्षीय पुत्र की ओर गया। वह मुझे योग के कुछ आसन बड़ी निपुणता से करता हुआ दिखाई दिया। 'किसने सिखाया' के जवाब में उसने कहा- "आपने"। मैं हैरान कि मैंने कब उसे सिखा दिया? विस्तार से पूछा, तो उसका कहना था कि रोज शाम को आप करती तो हो। तब मुझे भान हुआ कि कालीन के एक हिस्से में उसे खिलौने देकर दूसरे हिस्से पर स्वयं योग करते हुए मैं समझती थी कि वह अपने खेल में मग्न है, लेकिन हाथों में खिलौना लिए उसकी सूक्ष्म निगाह मुझ पर होती थी कि मैं क्या और कैसे कर रही हूँ?
आज वह बारह पर खड़ा है और विश्वास मानिये कि योग के कई कठिन आसन उसने मेरे लिए संभव बनाये। यह प्रसंग इस बात का संकेत करता है कि बच्चे अपने माता-पिता का पूर्णतः अनुकरण करते हैं। मैंने कोई निराली बात नहीं कही। हम सभी इस तथ्य से सुपरिचित हैं। लेकिन यक्ष प्रश्न यह है कि यह ज्ञात होने के बावजूद कई माता-पिता अपने बच्चों के समक्ष अनीतिपूर्ण आचरण करते हैं और अन्यों के सामने बच्चों से शालीन व मर्यादित व्यवहार की अपेक्षा रखते हैं। कैसे करेंगे वे ऐसा सुलझा हुआ व्यवहार, जब आपने उनके समक्ष सर्वथा विपरीत उदाहरण रखा है? वे तो आपको अपने जन्म से निरंतर देख रहे हैं।
इस विषय में प्रायः शिक्षित एवं अशिक्षित एक ही तुला पर तुलते हैं। अनेक परिवारों में पुरूष अपनी पत्नी और बच्चों के प्रति घोर अभद्र भाषा का उपयोग करते हैं और उन्हें शारीरिक प्रताड़ना भी देते हैं। ऐसा करते समय उन्हें एक अजीब-सा वहशी आनंद प्राप्त होता है। अपने खोखले पौरुष के अहंकार में आकण्ठ निमग्न ये अमानवीय मानव भूल जाते हैं कि ऐसा करने से उनकी संतानें दो तरह से प्रभावित होती हैं। प्रथमतः वे अपनी माँ के दुःख का सीधा कारण पिता को मानते हुए एकमात्र माँ में ही अपनी दुनिया को सीमित कर देते हैं। ऐसी परिस्थिति में जो ज्ञान और अनुभव उन्हें पिता से मिलना चाहिए, वो नहीं मिल पाता। द्वितीयतः वे अपने पिता के प्रति विष-भाव से भर जाते हैं, जो धीरे-धीरे ग्रंथि का स्वरुप ग्रहण कर लेता है और फिर आजीवन पिता से उनके सम्बन्ध सहज नहीं हो पाते।
फिर आप लाख लकीर पीटते रहिये संस्कारों की और लाख दुहाई दीजिये अपने 'पिता' होने की। बच्चे को ऐसा आपने ही बनाया है। वो अनुकरण ही तो कर रहा है। दुर्व्यवहार के बदले दुर्व्यवहार। कई बार पिता के इस आचरण का एक और गंभीर परिणाम होता है। बच्चे घर से बाहर वही सब करने लगते हैं, जो घर में देख-भोग रहे हैं। इनमें अभद्र भाषा, व्यसन, अमर्यादित आचरण आदि शामिल हैं। मैं एकतरफा नहीं चलना चाहती। कई परिवारों में माँएं भी अनुचित आचरण करती हैं। इनमें बच्चों को दादा-दादी के खिलाफ रखना, विद्यालय में असत्य आचरण के लिए प्रेरित करना, अकर्मण्यता को प्रोत्साहन देना आदि शामिल हैं। जो भी हो, इतना तो तय है कि बच्चों की नींव में जो भरा जायेगा, उनका व्यक्तित्व रुपी भवन उसके अनुरूप ही निर्मित होगा।
अब ये माता-पिता पर निर्भर करता है कि वे एक सुदृढ़ भवन चाहते हैं या खोखली इमारत। स्वयं सदाचरण करेंगे, तो बच्चे तदनुरूप बनेंगे और दुराचरण उन्हें कुमार्गी बनाएगा, जो अंततोगत्वा उन्हीं के लिए कष्टकारी होगा। वैसे भी देखिएगा, सुसंस्कारित परिवारों में जाने पर आत्मा को सुकून देने वाली सुवास अनुभूत होती है मानों वहां एक देवत्व घट गया हो। और इसके विपरीत परिवार अपनी नकारात्मकता से स्वयं दुर्गंधित होते हुए शेष समाज में भी अस्वच्छता का प्रसार करते हैं। अब फैसला आपके हाथों में है कि आप 'घर' शब्द को सार्थक करना चाहते हैं अथवा नहीं....