फ़िरदौस ख़ान
लोग अपने खून-पसीने की कमाई में से पाई-पाई जोड़कर पैसा जमा करते हैं। अपने बच्चों के अच्छे भविष्य के लिए अपनी पूंजी को सोने-चांदी के रूप में बदल कर किसी सुरक्षित स्थान पर रख देना चाहते हैं। घरों में सोना-चांदी रखना ठीक नहीं है, क्योंकि इनके चोरी होने का डर है। इनकी वजह से माल के साथ-साथ जान का भी खतरा बना रहता है। ऐसी हालत में लोग बैंको का रुख करते हैं। उन्हें लगता है कि बैंक के लॉकर में उनकी पूंजी सुरक्षित रहेगी। वे बैंकों पर भरोसा करके चैन की नींद सो जाते हैं, लेकिन वे यह नहीं जानते कि बैंकों के लॊकर् में भी उनका कीमती सामान सुरक्षित नहीं है। बैंक के लॉकर से भी उनकी जिंदगी भर की कमाई चोरी हो सकती है, लुट सकती है। और इसके लिए उन्हें फूटी कौड़ी तक नहीं मिलेगी, नुकसान होने की हालत में बैंक अपनी हर तरह की जिम्मेदारी से मुंह मोड़ लेंगे। वे यूं ही तन कर खड़े रहेंगे, भले ही ग्राहक की कमर टूट जाए।
सूचना का अधिकार (आरटीआई) के तहत मांगी गई जानकारी में इस बात का खुलासा हुआ है कि बैंक के लॉकर में जमा किसी भी कीमती चीज की चोरी होने या कोई हादसा होने पर हुए नुकसान के लिए बैंक जिम्मेदार नहीं हैं, इसलिए ग्राहक उनसे किसी भी तरह की कोई उम्मीद कतई न रखें। भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) द्वारा आरटीआई के तहत दिए गए जवाब के मुताबिक आरबीआई ने बैंकों को इस बारे में कोई आदेश जारी नहीं किया है कि लॉकर से चोरी होने या फिर कोई हादसा होने पर ग्राहक को कितना मुआवजा दिया जाएगा। इतना ही नहीं, सरकारी क्षेत्र के 19 बैंकों ने भी नुकसान की भरपाई करने से बचते हुए कहा है कि ग्राहक से उनका रिश्ता मकान मालिक और किराएदार जैसा है। ऐसे रिश्ते में ग्राहक लॉकर में रखे गए अपने सामान का खुद जिम्मेदार है, चाहे वह लॉकर बैंकों के मालिकाना हक में ही क्यों न हो। कुछ बैंकों ने अपने करार में भी साफ किया है कि लॉकर में रखा गया सामान ग्राहक के अपने रिस्क पर है, क्योंकि बैंक को इस बारे में कोई जानकारी नहीं है कि ग्राहक अपने लॉकर में क्या सामान रख रहा है और उसकी कीमत क्या है?
ऐसे में ग्राहक मनमर्जी से कोई भी दावा कर सकता है। ज्यादातर बैंकों के लॉकर हायरिंग अग्रीमेंट्स में इसी तरह की बातें कही गई हैं। बैंक लॉकर में जमा किसी भी चीज के लिए जिम्मेदार नहीं होगा अगर चोरी, गृह युद्ध, युद्ध छिड़ने या फिर किसी आपदा की हालत में कोई नुकसान होता है, तो ग्राहक को ही उसकी जिम्मेदारी उठानी होगी। इसके लिए बैंक जवाबदेह नहीं होगा। एक अन्य बैंक लॉकर हायरिंग अग्रीमेंट के मुताबिक बैंक अपनी तरफ से लॉकर की सुरक्षा के लिए हर कोशिश करेंगे, लेकिन किसी भी तरह के नुक़सान की हालत में बैंक की जवाबदेही नहीं होगी। इन बैंकों में बैंक ऑफ इंडिया, ओरिएंटल बैंक ऑफ कॉमर्स, पंजाब नेशनल बैंक, यूको और कैनरा आदि शामिल हैं।
भारतीय रिजर्व बैंक के नियमों के मुताबिक किसी भी अनियंत्रित या अप्रत्याशित घटना जैसे चोरी, डकैती, आगजनी और प्राकृतिक आपदा आदि में हुए नुकसान के लिए बैंक जिम्मेदार नहीं होगा। इसलिए इसके बैंक के खिलाफ कानूनी कार्रवाई नहीं की जा सकती। बैंक के लॊकर में क्या सामान है, इसके बारे में बैंक को कोई जानकारी नहीं है। ऐसी हालत में भरपाई किस तरह की जाए, इसका कोई तरीका नहीं है।
गौर करने लायक बात यह भी है कि बैंक लॉकर की सुविधा देने की एवज में ग्राहकों से सालाना किराया लेते हैं। इसलिए ग्राहक के कीमती सामान की सुरक्षा की जिम्मेदारी भी बैंक की ही बनती है। बैंक अपने बचाव में दलील देते हैं कि वे ग्राहकों को लॉकर में रखे सामान का बीमा करवाने की सलाह देते हैं।
सवाल यह है कि जब ग्राहक अपने क़ीमती सामान की जानकारी किसी को नहीं देना चाहता, तो ऐसे में उसका बीमा कौन करेगा, किस आधार पर करेगा? ऐसा करना उसकी निजता का उल्लंघन भी माना जा सकता है। बैंक और बीमा कंपनी के सामने ग्राहक छोटी मछली ही है। ज्यादातर कंपनियां शब्दों के मायाजाल में उलझी अपनी शर्तें बहुत छोटे अक्षरों में लिखती हैं, मानो वे ग्राहक से उसे छुपाना चाहती हों। एजेंट की लच्छेदार बातों में उलझा ग्राहक शर्तों नीचे अपने दस्तखत कर देता है। वह खूद यह नहीं जानता कि वक्त पड़ने पर यही शर्तें उसके लिए मुसीबत का सबब बन जाएंगी, जबकि होना यह चाहिए कि शर्तें बड़े-बड़े अक्षरों में लिखी होनी चाहिए, ताकि ग्राहक उन्हें आसानी से पढ़ सकें और उस हिसाब से ही कोई फैसला ले सके।
काबिले-गौर है कि बैंकों में चोरी होने और लॉकर तोड़ने की घटनाएं होती रहती हैं। कुछ दिन पहले उत्तर प्रदेश के गाजियाबाद जिले के मोदीनगर में चोरों ने पंजाब नेशनल बैंक के तकरीबन 30 लॉकरों के ताले तोड़कर कीमती सामान चुरा लिया था। वे बैंक की छत तोड़कर लॉकर रूम में घुसे थे। इस मामले में बैंक की कोताही सामने आई थी। गौरतलब है कि ऐसे मामलों में अदालतों ने भी कई बार बैंको की सुरक्षा व्यवस्था पर उठाते हुए इनके लिए बैंकों को ज़िम्मेदार ठहराया है। इसके बावजूद बैंकों ने इस पर कोई खास तवज्जो नहीं दी। आखिर वे तवज्जो दें भी क्यों, नुकसान तो ग्राहक का ही होता है न जिस दिन नुकसान की भरपाई बैंकों को करनी पड़ेगी, वे सुरक्षा व्यवस्था पर ध्यान ही नहीं देंगे, बल्कि सुरक्षा के खास इंतजाम भी करने लगेंगे।
अच्छी बात यह है कि आरटीआई आवेदक कुश कालरा ने भारतीय प्रतिस्पर्द्धा आयोग (सीसीआई) की पनाह ली है। उनका कहना है कि बैंक गुटबंदी गैर-प्रतिस्पर्धिता का रवैया अख्तियार किए हुए हैं, जो सरासर जनविरोधी है। उम्मीद है कि भारतीय प्रतिस्पर्द्धा आयोग में इस मुद्दे पर जनहित के मद्देनजर सकारात्मक ढंग से विचार होगा। बहरहाल, बैंक किसी भी लिहाज से अपनी जिम्मेदारी से बच नहीं सकते, उन्हें ग्राहकों के नुकसान की भरपाई तो करनी ही चाहिए। बैंको को चाहिए कि वह इस मामले में फिजूल की बहानेबाजी न करें। वैसे अदालत के दरवाजे भी खुले हैं, जहां बैंकों की मनमर्जी के खिलाफ गुहार लगाई जा सकती है।