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अनुपम मिश्र : एक जीवंत पाठशाला का बंद हो जाना

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सचिन कुमार जैन

अनुपम जी के बारे में लिखना लगभग असंभव है। कुछ बहुत सीधी-सीधी बातें लिख रहा हूं। पिछले दस सालों में उनसे कुछ मुलाकातें हुईं। यदि उन्हें समझना हो, तो उनका लिखा हुआ पढ़ना चाहिए। अकसर दर्शन और धर्म से जुड़े प्रवचनों में 'विनम्रता' का बखान होता है। 'विनम्रता' क्या होती है और कैसे जी जा सकती है, यह अनुपम मिश्र जी की जिंदगी में दिखा ।

मैंने बस चार बातें समझीं है - पहली : आज के समाज में रहते हुए भी, किसी भी व्यक्ति की निंदा किए बिना जीवित रहा जा सकता है। मुझे लगता है कि हमें शायद ही कोई व्यक्ति ऐसा मिलेगा, जिसने अनुपम जी के मुंह से किसी की निंदा का कोई भी शब्द सुना हो। 
 
दूसरी: अपने होने की सार्थकता अपनी भाषा से जुड़ी हुई है। मैंने उनके संपादन में निकलने वाली पत्रिका 'गांधी मार्ग' में कुछ लेख लिखे। मैं 'लेख लिखता' था, उनके संपादन के बाद मेरा 'लेख बोलने' लगता था। आज ही मैं राकेश भाई के साथ बैठा था। राकेश दीवान उनके 50 सालों के दोस्त है। वे बता रहे थे कि अनुपम लेखन के बारे में कहते थे कि यदि हमारा लिखा हमारी अम्मा ही न पढ़ और समझ पाये, तो ऐसे लिखे का क्या मतलब? यदि एक भी शब्द बेअर्थ हो और रुकावट पैदा करें, उस शब्द को पहचानना और उसे निकाल देना ही संपादन है। किसी वाक्य को पढ़ने में मेहनत करना पड़े, उसे नदी की धारा की तरह बना देना। किसी शब्द या वाक्य के अर्थ को समझने के लिए माथे पर बल पैदा करने पड़ें या सिर दर्द होने लगे, ऐसे शब्दों और वाक्यों को निकाल देना....यही तो हमारा काम होना चाहिए।
 
 हमारा यानी उनका, जो लिखते हैं या लिखने का दावा करते हैं। मैंने 3 साल पहले अर्थव्यवस्था विषय पर एक लेख लिखा और अनुपम जी को गांधी मार्ग में प्रकाशन के लिए भेजा। उन्होंने मुझे एक पत्र लिखा, '' सचिन भैया, इस लेख को आप एक बार पढ़िए और देखिए कि इनमें से कौन से शब्द ऐसे हैं, जो अपन अपने जीवन में, अपने घर में, अपने रोजमर्रा के जीवन में बोलते या नहीं बोलते हैं। जो शब्द बोलते हैं, उनका लेख में उपयोग करें और जो शब्द नहीं बोलते, उन्हें बदल दें। उनके उस एक पत्र से मैंने बहुत कुछ सीखने की कोशिश की और पाया कि वास्तव में 'अपनी भाषा में लिखना' कितना कठिन काम है? कठिन भाषा और कठिन शब्द लिखना शायद सबसे आसान काम है। इसके बाद मैंने अपनी नेपाल यात्रा के दौरान जंगलों-नदी-पहाड़ों पर एक जंगल यात्रा वृत्तान्त लिखा और उन्हें भेजा। उन्होंने फिर पत्र लिखा, 'इस बार बहुत सुन्दर लिखा है। मैं ऐसा लिखा पाया था क्योंकि मेरे मन में तय था कि इन जंगलों पर लिख कर कुछ अनुपम जी को भेजना है। बस इसी कारण से मेरी दृष्टि बिलकुल बदलती जा रही थी। 
 
सच कहूं तो मैंने जाना जी अनुपम जी की भाषा गहरी, अर्थवान और सरल थी कि वे समाज को उसके भीतर जाकर देख पाते थे। जब हम अपने शब्द अपने जीवन से लेने लगते हैं, तब सबकुछ देखने का नजरिया भी बदला जाता है। कुछ नया सा ही दिखाई देने लगता है। जब शब्द बाहर से लेते हैं, तब कुछ भी समझ नहीं पाते हैं। मुझे भी समझ आया कि जब मैं अपनी खुद की भाषा और शब्दों में समाज, प्रकृति, पहाड़, राजनीति, अर्थव्यवस्था या संस्कृति को देखता-समझता हूं, तो मेरी अभिव्यक्ति का रूप भी बिलकुल बदल जाता है। मेरे मन और मस्तिष्क में मेरी बात बिलकुल साफ़ होती है। कोई संशय नहीं होता। वास्तव में अभिव्यक्ति या अपनी बात-कह-लिख पाने का जुड़ाव भारी-भरकम भाषा से न होकर, ऐसी भाषा से है, जो हमारी अपनी है, जिसमें हम अपने घर-गांव-मित्रों में बात करते हैं। 
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तीसरी: बिना टकराव के भी जीवन जीना संभव है। अहिंसा केवल एक सूक्ति, वाक्य या श्लोक नहीं है, अहिंसा को भी जिया जा सकता है। महात्मा गांधी की सोच और विचारों की प्रासंगिकता यानी आज के दिन में उनके महत्व और जरूरत को स्थापित करने वाले शख्स के रूप में उन्हें देखा जा सकता है। अनुपम जी के लिखे को पढ़ा कर ऐसा लगता है, मानो गांधी जी आज बात कर-कह-लिख रहे हैं। सच पूछिए तो मैं यह कहूंगा कि अनुपम जी लोगों, गांव, किसान, मजदूरों और पानी-पर्यावरण के दृष्टिकोण से भारत के इतिहास को कह-लिख रहे थे। ऐसा इतिहास, जिस पर कोई विश्वविद्यालय या संस्था नज़र नहीं डालना चाहती है। 
 
अनुपम जी ने पानी और पर्यावरण के नज़रिए से समाज को उसके असली रूप में देखा है। वे विकास संवाद के केसला (होशंगाबाद) में हुए मीडिया कॉन्क्लेव में मुख्य वक्ता के तौर पर आए थे। उन्होंने एक बात कही थी कि मैं जाति और लैंगिक भेदभाव से इंकार नहीं करता कि यह हमारे समाज में नहीं है। पर साथ में मैं यह भी जोड़ता हूं कि जाति और लैंगिक भेदभाव को गढा किसने? यह कहीं आसमान से तो नहीं आया? जरा हम अपने समाज की मूल ताकत को पहचानें। इससे पता चलेगा कि किसने गढ़ा  और कौन इससे निजात दिला सकता है? वे मानते थे कि समाज के अलग अलग तबकों की सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था में अलग अलग भूमिकाएं रहीं हैं। हर भूमिका के साथ एक सोच, समझ, कौशल और जिम्मेदारी जुड़ी होती है। बस हमने अपने स्वार्थों के लिए कुछ भूमिकाओं और कामों को बड़ा बना लिया और कुछ को छोटा बना दिया. समाज के लिए हम क्या करते हैं, इससे ही तो स्थान तय होता है। 
 
उन्होंने अपनी किताब में लिखा है कि 'कहा जाता है कि पुष्करणा ब्राहॄामण को भी तालाब ने ही उस समय समाज में ब्राह्मण का दर्ज़ा दिलाया था। जैसलमेर के पास पोखरण में रहने वाला यह समूह तालाब बनाने का काम करता था। उन्हें प्रसिद्ध तीर्थ पुष्कर जी के तालाब को बनाने का काम सौंपा गया था। रेत से घिरे बहुत कठिन क्षेत्र में इन लोगों ने दिन-रात एक करके सुन्दर तालाब बनाया। जब वह भरा तो प्रसन्न होकर इन्हें ब्राह्मण का दर्ज़ा दिया गया। पुष्करणा ब्राह्मणों के यहां कुदालरुपी मूर्ति की पूजा की जाती रही है। एक तरफ दक्षिण में नीरघंटी जैसे हरिजन थे, तो पश्चिम में पालीवाल जैसे ब्राह्मण भी थे। जैसलमेर, जोधपुर के पास दसवीं सदी में पल्लिमागर में बसने के कारण ये पल्लीवाल या पालीवाल कहलाए।'  
 
 
अनुपम जी ने जीवन भर एक ही सन्देश पर काम किया। वह सन्देश यह रहा कि जिसके बारे में विकास या अच्छे की बात कर रहे हो, पहले उसे तो पढ़ लो। हम उस समाज को जानते ही नहीं हैं, जिसका विकास हम करने के लिए मरे जा रहे हैं। उससे पूछ तो लो, कि वह पानी बचाना चाहता है क्या? यदि बचाना चाहता है, तो कैसे बचा सकता है? उन्होंने राजस्थान के जैसलमेर क्षेत्र में पानी की व्यवस्था को जानने-समझने का खूब काम किया। देश में सबसे बारिश वाले इस इलाके में कैसे गांव के लोग पानी को 'बचाते नहीं, बल्कि रमाते' हैं, जैसी साधारण सी बात को वे सामने लाए। वहां गेहूं भी होता है, लोग भी सम्मान के साथ जीवित रहते हैं और मिसाल भी बनाते हैं। 
 
अनुपम जी अपनी प्रस्तुतियों में हमेशा बताते थे कि असली इंजीनियर, वैज्ञानिक और विशेषज्ञ तो गांव के ही लोग होते हैं, क्योंकि वे पेड़, पानी, मिट्टी, नदी, पहाड़ से रिश्ता रखते हैं, इसीलिए जानते भी हैं कि पानी कैसे बचेगा और खेत में क्या उगेगा? लेकिन अपनी सरकार ने तो उन्हें अनपढ़ और बेकार ही मान लिया। सरकार लोगों को योजना से दखल करके उनके विकास की प्रक्रिया तय करती है। वे मानते थे कि ऐसा हर विकास आखिर में जाकर ओंधे मुंह गिरेगा। ऐसा कोई भी विकास, जो गांव-समाज के विज्ञान और व्यवस्था को सम्मान और महत्व नहीं देता, वह विकास नहीं विनाश है। हमें यह समझना होगा कि सामाजिक बदलाव में समाज की कहां और क्या भूमिका है और राज्य की कहां और क्या भूमिका है? मुझे लगता है कि उन्हें एक बात बहुत डरा रही थी। जिस तरह से अधिकार या सेवा के नाम पर सरकारें हवा, पानी, रोटी-रोज़गार के लिए क़ानून बना रही हैं, उससे समाज की भूमिका बिलकुल शून्य होती जा रही है। ऐसा होने पर यानी जब समाज आलसी, निष्क्रिय और भूमिकाविहीन हो जाएगा, तब लोग गुलामी के जीवन में भी रस लेने लगेंगे। 
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चौथी: कोई भी सृजन अंतहीन नहीं है, सृजन के विसर्जन के लिए तैयारी रखना चाहिए। हम अकसर सृजन के बारे में बात करते हैं। अच्छा सकारात्मक शब्द है सृजन।  आजकल यह बाज़ार में भी खूब चल रहा है। कुछ नया बनाना, रचना, खड़ा करना। अनुपम जी एक बात यह कहते थे कि हर सृजन का एक मकसद होता है और हर सृजन की एक उम्र भी होती है। दिक्कत यह है कि हम अपनी संस्था, व्यापार या काम को सृजन मानते हैं और उम्मीद करते हैं कि यह सदैव जिंदा रहेगी। काम करती रहेगी। यह एक मिथ्या उम्मीद है। यह मिथ्या उम्मीद डर पैदा करती है, गुस्सा पैदा करती है, तनाव पैदा करती है क्योंकि सृजन सदैव के लिए नहीं होता है। यह बहुत जरूरी है कि सृजन करते समय ही इस बात पर भी विचार करें कि इसका 'विसर्जन' कब और कैसे करना है? विसर्जन का मतलब अंत नहीं होता है. जब एक विसर्जन करेंगे तो नए सृजन के लिए भी तैयार हो पाएंगे। 
 
अनुपम की का चले जाना, एक जीवंत पाठशाला का बंद हो जाना है। उनके जाने का दुख इसलिए ज्यादा है, क्योंकि आज उनकी जगह भरने वाला कोई नहीं है। 

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