क्यों पीछे रह जाते हैं साहित्य के छात्र

साल में बस 1 बार हिन्दी को लेकर सामूहिक विलाप...

सुधा अरोड़ा
साहित्य का कैनवास बहुत विस्तृत होता है। साहित्य में धर्म, मनोविज्ञान, दर्शन, समाजशास्त्र, इतिहास, गणित सबकुछ निहित है। भाषा विज्ञान को छात्र गणित का पेपर कहते हैं। उसमें जिसकी रटन-शक्ति जितनी ज्यादा है, वह परीक्षा में उतने अधिक नंबर पा सकता है। हिन्दी में एम.ए. करने वाले को हम साहित्य कम और गणित तथा इतिहास ही ज्यादा पढ़ाते हैं।

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एम.ए. के पाठयक्रम में सूरदास पर एक विशेष पेपर होता है। छात्र सूरदास के पदों के भाव-सौंदर्य पर जितना पढ़ते हैं, उससे कहीं ज्यादा मेहनत सूरदास की जन्म और मृत्यु तिथि संबंधी विवादों को कंठस्थ करने में गंवाते हैं।

चंदवरदाई की कृति पृथ्वीराज रासो की प्रामाणिकता-अप्रमाणिकता पर पन्ने दर पन्ने रंगे जाते हैं। यह सिर्फ हिन्दी में एम.ए. करने वालों की समस्या नहीं है, अंग्रेज़ी साहित्य में एम.ए. करनेवालों का भी यही रोना है कि हम कब शेक्सपियर, शैली और कीट्स की पारंपरिक शब्दावली और संस्कारगत भाषा से आगे निकलेंगे?

शेक्सपियर से ग्राहम स्विफ्ट तक और सुमित्रानंदन पंत से शमशेर बहादुर सिंह, धूमिल, कुमार विकल तक और अज्ञेय से हरिशंकर परसाई, श्रीलाल शुक्ल तक साहित्य ने एक लंबी यात्रा तय की है पर हम यात्रा के प्रारंभ की भूलभुलैयों में इतना भटक जाते हैं कि यात्रा की लंबी राह तय करके मंजिल हमें या तो दिखाई ही नहीं देती या हमारी दृष्टि के सामने शुरू से ही एक गहरा धुंधलका भर जाता है जो हमारी भाषा के सौंदर्य की समझ की धार को कुंद करता रहता है।



आज साहित्य पढ़ाने के पीछे सिर्फ डिग्री लेने की मंशा छिपी है। जिस छात्र को कम प्रतिशत के कारण कहीं और प्रवेश नहीं मिलता, वह हिन्दी साहित्य की एम.ए. की कक्षा में नाम लिखा लेता है।

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जिस तरह समाज विज्ञान, अर्थशास्त्र, कानून, राजनीति विज्ञान के पाठयक्रम में समय और सिद्धांतों के साथ-साथ संशोधन होता रहता है, साहित्य में भी होना चाहिए, पर ऐसा नहीं होता। हम क्लासिक जरूर पढ़ें पर इस तरह की एकांगी मुग्धता लेकर नहीं कि नए और आधुनिक या कहें समसामयिक साहित्य को सराहने में पूरी तरह असमर्थ हो जाएं।



कठिनाई तब होती है जब कॉलेज में पढ़ानेवाले हिन्दी के अधिकांश प्राध्यापक स्वयं भी सिर्फ उतना ही पढ़ते हैं जितना उन्हें पाठयक्रम के तहत पढ़ाना है। नए साहित्य से वे भी उतने ही अपरिचित रहते हैं, जितने उनके छात्र। हां, कुछ अपवाद जरूर हैं। लीक से हटकर चलनेवाले उन अध्यापकों को अपने सहकर्मियों की उपेक्षा और राजनीति का भी शिकार होना पड़ता है।

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प्रख्यात आलोचक नामवर सिंह के वक्तव्य से मैं बिल्कुल सहमत हूं, हिन्दी का औसत छात्र एम.ए. करने के बाद भारतीय संस्कृति के नाम पर मध्यकालीनता को विरासत में पाकर निकलता है छात्राओं की स्थिति और भी शोचनीय है। क्या आपने गौर किया है कि हिन्दी में एम.ए. करनेवाली लड़कियां कौन-से वर्ग से आती हैं?



ये लड़कियां ऐसे मध्यम-वर्ग से आती हैं जो परंपरागत संस्कारों और दकियानूसी रूढियों से जकड़ा हुआ है। वे पहले से ही भावुक और कमज़ोर किस्म की होती हैं। आज भी हिन्दी में एम.ए. करनेवाली छात्रा जब कविता लिखना शुरू करती है तो महादेवी वर्मा के रहस्यवाद और अज्ञात प्रियतम के नाम ही अपनी पहली शुरुआत करती हैं।

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आज छायावादी कवि कितने प्रासंगिक रह गए हैं? हम इस तरह का साहित्य पढ़ाए अवश्य लेकिन सिर्फ साहित्य के इतिहास की जानकारी देने के लिए। वर्ना हम लड़कियों की बेहद भावुक, छुईमुई, अव्यावहारिक और वायवीय कौम ही पैदा करेंगे।

अगले पेज पर : क्या साहित्य देता है जीवनदृष्टि



साहित्य का काम हैं हमें एक दृष्टि देना, एक जुझारू आत्मविश्वास देना न कि हमें जिंदगी से दूर एक काल्पनिक रहस्य लोक में ले जाना जिसका अस्तित्व आज के संघर्षशील जीवन में कहीं है ही नहीं। हिन्दी साहित्य में एम.ए. करनेवाली छात्राओं को जीवन से दूर करनेवाला साहित्य पढ़ाना या साहित्य के माध्यम से एक जीवनदृष्टि न दे पाना एक अक्षम्य अपराध है।

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आज जब हर विषय में विविधताएं बढ़ रही हैं, साहित्य में भी एम.ए. करनेवालों के लिए चुनाव की गुंजाइश भी होनी चाहिए-पत्रकारिता, अनुवाद, पटकथा लेखन, विज्ञापन कॉपीराइटिंग, सामान्य ज्ञान, रचनात्मक लेखन आदि को भी साहित्य की शाखाओं में शामिल किया जाए।

एक पेपर जरूरी तौर पर समाजविज्ञान का होना चाहिए जिसमें हम छात्राओं को-बेशक साहित्य के माध्यम से एक संस्कार दे सकें। इसमें हम कबीर, निराला, प्रेमचंद, यशपाल, मुक्तिबोध, धूमिल आदि को एक नए कोण से पढ़ाएं जिसके तहत हम इनके भाव-सौंदर्य या भाषागत सौंदर्य के साथ-साथ इनके कथ्य के माध्यम से जीवन की सच्चाइयों से छात्रों का साक्षात्कार करवाएं और छात्राओं को अपने को अभिव्यक्त करने के गुर सिखाने की कार्यशालाएं आयोजित की जाएं।




विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र में भाषा को लेकर कोई सुनवाई नहीं

हिन्दी के पाठ्यक्रमों में और पढ़ाने के तरीकों में अगर कुछ क्रांतिकारी परिवर्तन नहीं किए गए तो हिन्दी की एकेडेमिक डिग्री हमें सिर्फ मध्यकालीन संस्कार वाली प्राध्यापकी ही दे पाएगी और हम हर साल ऐसे प्राध्यापक पैदा करते रहेंगे जो किसी भी दूसरे व्यवसाय की तरह प्राध्यापकी को बस रोटी-रोजी कमाने का जरिया ही समझते रहेंगे।

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अपनी भाषा के प्रति प्रतिबद्धता और संलग्नता एक सिरे से गायब दिखाई देगी और हम हर साल 14 सितंबर को साल में एक बार हिन्दी को लेकर सामूहिक विलाप करते दिखाई देंगे, सहस्त्राब्दी उत्सवों के आयोजन में सरकारी ग्रांट पर सम्मानों की रेवडियां (सस्ते कागज पर थोक में पोस्टरनुमा सम्मान पत्र और गले में रिबन के साथ लटकनेवाले अठन्नी छाप मैडल) बांटी जाएंगी और बुजुर्ग हिन्दी सेवी सम्मानित होने के स्थान पर अपमानित होकर राजधानी से बैरंग लिफाफे की तरह वापस लौटेंगे!

हैरत है कि विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र में अपनी भाषा को लेकर कहीं कोई सुनवाई नहीं हैं !(समाप्त)

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