-जीवनसिंह ठाकुर
हिन्दी उस बाजार में ठिठकी हुई-सी खड़ी है, जहाँ कहने को सब अपने हैं, लेकिन फिर भी बेगाने से... इस बेगानेपन की टहनियों से भी उम्मीद की कोपलें फूट रही हैं। क्योंकि हिन्दी बोलने और समझने वालों की संख्या में जबर्दस्त इजाफा हो रहा है, लेकिन उसकी पठनीयता, उसका साहित्य सिसकियाँ भर रहा है। क्या हिन्दी समाज ने खुद ही हिन्दी को रद्द कर दिया है? इसमें दोष भाषा का नहीं, बल्कि बाजार का है। वैसे भी बाजार का सीधा-सा नियम है बेचना। इस बेचने से कोई भाषा कैसे बच सकती है?
आज हिन्दी को सम्मान दिलाने के लिए सामूहिक होकर उसके साहित्य और उससे जुड़ी बोलियों को पूरी कर्मठता से आगे ठेलने की जरूरत है। तब ही होगा हिन्दी दिवस साकार, हिन्दी का उद्धार।
बोलियों को मजबूत करने की जरुरत
आमतौर पर हिन्दीभाषी क्षेत्र में कहा जाता है कि यहाँ साहित्य पर वह माहौल नहीं है जितना अन्य भाषाई क्षेत्रों में है। इस बात में काफी सचाई भी है क्योंकि गत पाँच दशक के मनन, अवलोकन के बाद ऐसी टिप्पणियाँ अब ज्यादा मुखर हो रही हैं। 1757 की प्लासी की लड़ाई के बाद ब्रिटिश व्यापारवाद ने बंगला भाषा पर आक्रमण किया था। लेकिन बंगाल में चले सुधारवादी आंदोलनों से, आध्यत्मिक उभार ने, नवचेतना ने (राजा राममोहन राय, ईश्वरचंद्र विद्यासागर, चैतन्य महाप्रभु, चंडीदास, बंकिमचंद्र, विवेकानंद, काजी नजरुल इस्लाम, रवीन्द्रनाथ टैगोर, शरद बाबू) बांग्ला भाषा, साहित्य, चेतना को और ज्यादा ऊँचाई दी।
बांग्ला पूरी शिद्दत से भारत की प्रवक्ता भाषा भी सिद्ध हुई। इस पूरी प्रक्रिया में बंगाल (इससे लगे असम तथा उड़िया भाषा में भी) में भाषा तथा साहित्य में विवेकपूर्ण आचरण भी विकसित हुआ जो आज के आपाधापी पूर्ण समय में भी बदस्तूर जारी है। बांग्ला में कोई भी साहित्यकार हो, हर रचनाधर्मी, लेखक कलाकार के अवदान को स्वीकारा जाता है- विचारधारा के संघर्ष, पक्षधरता के बावजूद विरोधी लेखक के रचना पाठ में उसकी छपी रचना पर हो रही चर्चा में उसको एक सिरे से खारिज नहीं किया जाता। उसके भाषाई, साहित्यिक जनप्रतिबद्धता, भाषा-बोली को स्वीकारा जाता है।
हिन्दी का क्षेत्र व्यापक है। हिन्दी सिर्फ इसीलिए ही व्यापक नहीं है कि वह ज्यादा लोगों के द्वारा बोली जाती है बल्कि हिन्दी का साहित्य ज्यादा व्यापक है। उसकी जड़ें गहरी हैं। इसके मूल में हिन्दी की बोलियाँ और उन बोलियों की उपबोलियाँ हैं जो अपने में एक बड़ी परंपरा, इतिहास, सभ्यता को समेटे हुए हैं वरन स्वतंत्रता संग्राम, जनसंघर्ष, वर्तमान के बाजारवाद के खिलाफ भी उसका रचना संसार सचेत है।
वह किसी खेमे से प्रमाण-पत्र का मुँह नहीं देखती। बल्कि स्थिति यह है कि 'मठों' को अपनी बोलियों के जनसंघर्ष के स्पंदन उनके ई.सी.जी. नहीं पकड़ पाते हैं। आज हिन्दी में काफी लिखा जा रहा, बेहतर लिखा जा रहा है, कहानी में व्यापक फलक हैं, बारीकियाँ हैं। कविता में जबर्दस्त चेतना, भाषा का प्रवाह, चट्टानों को आकार में बदलने की उद्दाम छटपटाहट है।
निबंधों में नया विकास सामने आया है। उपन्यासों में नवीन इलाके, बंजर हो रही जमीन को उर्वरा बनाने का रचनात्मक जोश साफ झलक रहा है। इस पूरे रचनाक्रम में पूरी भारतीय मनीषा की उपस्थिति है। बांग्लादेश, भारत, पाकिस्तान सहित चीनी, ईरानी, अफ्रीकी रचनाओं में भी बराबरी से आ रहा है। चीनी साहित्यकार 'मो यान' की रचनाएँ कहीं भी पराई नहीं लगतीं। उसकी जमीन, वही है जो नेरुदा की है, पोट्टेकाट, भीष्म साहनी की है।
हिन्दी में स्थानीयता अंततः विश्व विरासत का रचनाकर्म ही है जो उसे अभिव्यक्त करती है। हिन्दी संसार में परेशानी है कि अपने-अपने खेमों, अपने तंबुओं को सही साहित्य बताने की 'जिद' ने हिन्दी को परेशानी में डाल दिया है। जरूरत बांग्ला भाषा, असमी भाषा वाली विवेकशीलता की है। बेशक हम-आप अपने-अपने घरों की सुविधाओं में रहें, लेकिन साहित्यिक ईद या दशहरे पर एक-दूसरे से गले तो मिलें।
अंततः हम एक महत्वपूर्ण भाषा में लिखते हैं और साहित्य जैसे जवाबदार कर्म से जुड़े हैं अतः हिन्दी का हित, उसका विकास प्रथम प्राथमिकता में होना चाहिए। वाद और विचार, समाज से आते हैं इसलिए समाज की प्राथमिकता जरूरी है- वह बचेगा, वह समृद्ध होगा तो वाद-विचार भी पुख्ता होकर उभरेगा। हिन्दी की स्थिति ऐसी है जैसे विदेशी आक्रमणों के वक्त भी राजाओं, नवाबों ने आपसी लड़ाइयाँ नहीं छोड़ी थीं। शेष इतिहास हम जानते हैं। इस वक्त भी हिन्दी को बाजारवाद लील रहा है।
अब वह सिर्फ हिन्दी मानक भाषा के बरखिलाफ ही नहीं वरन हिन्दी की ताकत उसकी बोलियों की तरफ है। नरभक्षी की दाढ़ में खून लगा है। वह स्वाद चख चुका है। बाजारवाद, बोलियों के मासूम आँगन में जा घुसा है। यदि बोलियाँ ध्वस्त हो गईं तो हिन्दी का शक्तिकेंद्र ही ढीला पड़ जाएगा। एक बोली या भाषा का मरना सिर्फ अक्षरों की मौत नहीं होती पूरी, अभिव्यक्ति, पूरा देश, पूरी रवायत, पूरी संस्कृति अपाहिज हो जाती है। अफ्रीका के कई देश साम्राज्यवाद, आर्थिक साम्राज्यवाद की भेंट चढ़ चुके हैं। बेहतर होगा, हिन्दी क्षेत्र खेमावाद छोड़े, समीक्षा बाहर निकले, वरना अपनों की हत्या करने वाला विजेता नहीं बनता। इस समय बोलियों, उसकी परंपरा तथा भारतीय भाषाओं, हिन्दी में भातृभाव की सर्वाधिक जरूरत है।