धर्म और राजनीति के गिरोहों की शिनाख्‍त करता दस्‍तावेज है ज़हरखुरानी

नवीन रांगियाल
जिस वक्त मैं अपने कमरे में निर्मला भुराड़िया की नॉवेल ‘ज़हरखुरानी’ पढ़ रहा हूं। ठीक उस वक्त कमरे से सटे हॉल में चल रहे टेलीविजन पर इजराइल- हमास के बीच खूनी जंग की खबरें कानों में पड़ रही हैं। इस बीच मैं इस दुनिया में अतीत के आदि-मानव से लेकर वर्तमान के मनुष्‍य तक, उसकी फितरत और मनुष्‍य के अब तक के विकास क्रम के बारे में सोच रहा हूं। —और यह सोचकर ना-उम्‍मीद हो जाता हूं कि इतने लंबे मानव विकास क्रम के बाद भी दुनिया वहीं उसी खतरे के मुहाने पर खड़ी है, जहां से ये चली थी और जहां हर पहला आदमी दूसरे आदमी के लिए खतरा बना हुआ था।

लेखक रुत्‍खेर ब्रेख्‍मान भले ही अपनी किताब ‘ह्यूमन काइंड’ में मनुष्‍य के आशावादी इतिहास की बात करते हों, हकीकत तो यह है कि यह दुनिया एक सामाजिक, धार्मिक और राजनीतिक बारूद के ढेर पर खड़ी है, जिसके खतरों की छाया कहीं- कहीं अभी नजर आती है।

मेरी यह अनुभूति तब और ज्‍यादा गहरी हो जाती है, जब ज़हरखुरानी के पन्‍ने पलटने पर मुझे पता चलता है कि इस उपन्‍यास में भी हिन्‍दुस्‍तान के बंटवारे से लेकर अब तक के राजनीतिक, सामाजिक और धार्मिक खतरों के प्रति आगाह किया गया है। यहां तक कि यह किताब एक कदम आगे जाकर भारत में भविष्‍य के खतरों की भी शिनाख्‍त करती है।

दरअसल, साल 2023 में भी दुनिया ऐसी है, जैसी 1947 में भारत- पाकिस्तान विभाजन के वक्त थी। उतनी ही क्रूर, उतनी ही अराजक और उतनी ही पिछड़ी हुई। विज्ञान और तकनीक की उपलब्‍धियों को छोड़ दें तो कोई आश्चर्य नहीं कि आज से सौ साल बाद भी दुनिया ऐसे ही संकुचित दमागों से पटी पड़ी होगी।

लेखिका निर्मला भुराड़िया के इस नॉवेल को पढ़ते हुए मैं बरबस ही आज और 1947 के भारत के बीच तुलना करने लगता हूं— और सोचता हूं कि हर दौर में इस किसी ने किसी समाज को कोई न कोई युद्ध, कोई न कोई लड़ाई लड़ना पड़ी है। चाहे अपने ही समाज से, अपने ही सिस्टम से या फिर अपने ही लोगों से ही क्‍यों न हो। इस संघर्ष के पीछे धर्म और राजनीति का एक गिरोह है जो विभाजन से लेकर अब तक इस देश के लोगों को, उनके रिश्‍तों और उनकी जिंदगी को छलते आया है, यही इस पूरे नॉवेल का केंद्र है।

निर्मला जी के इस नॉवेल में विभाजन का दंश है, तो हिंदू मुस्लिम समाज की चाहरदीवारी में पलती, पनपती कुरीतियां भी हैं। इस नॉवेल में भी एक पूरा समाज, या कई समाज और यहां तक कि पूरा देश अपनी- अपनी लड़ाई लड़ता हुआ महसूस होता है। हर आदमी, औरत और बच्‍चा अपने मोर्चे पर अपनी लड़ाई लड़ रहा है।

नॉवेल ज़हरखुरानी की एक कहानी में कई कहानियां हैं। या कहें कई कहानियां एक साथ चलती हैं। वे कहानियां पढ़ने का आस्‍वाद देते हुए साहित्‍यिक मज़ा देती हैं और फिर छिटककर अपनी मूल कहानी में आ लौट आती हैं। नॉवेल में जो किस्सागोई है और किस्सों की जो बुनावट है, खासतौर से व्यंग्य वाले हिस्से उन्हें पढ़ते हुए कई बार श्रीलाल शुक्ल का कालजयी उपन्यास ‘राग दरबारी’ स्मृतियों में उभर आता है। बेशक यह ‘राग दरबारी’ की तरह कोई व्‍यंग्‍य उपन्‍यास नहीं है, लेकिन इसके किरदार श्रीलाल शुक्‍ल की याद दिलाते हैं।

डिटेल्ड किस्सागोई, और दृश्यों का विवरण। हर दृश्‍य में पत्रकारिता वाला ऑब्जर्वेशन। कई पंथ और संप्रदायों के सिरे, उनकी भाषा, उनकी काया और उनके इंप्रेशन। कई बार ऐसा लगता है किताब के हर किरदार के गले में आज़ादी, बंटवारा और इनसे उभरा हुआ दर्द किसी फांस की तरह अटका हुआ है। यहां हर किरदार देश के इतिहास का मारा हुआ लगता है। बावजूद इसके कि उनकी रोजर्मरा की जिंदगी, चेहरे-मोहरे, रहन-सहन और पूरा जीवन किताब पढ़ने का एक लालच पैदा करते चलते हैं।

हिंदू और मुस्लिम परिवारों के घरों का माहौल। समाजों की रूढ़िवादिता। किरदारों की अपनी अपनी सनकें और कहानी के 'बिटवीन द लाइन' मनुष्‍यों के संघर्ष के कई सारे अर्थ और सिरे। यह नॉवेल अपनी मूल कहानी के साथ- साथ इसका सटायर सामाजिक कुरीतियों पर भी हमला करता है।

सच बात तो यह है कि ज़हरखुरानी के किसी एक किरदार के बारे में बात करना मुश्किल है, पढ़ते हुए धीमे- धीमे नॉवेल का केनवास बड़ा होता जाता है। घर, कुआं, इमली का पेड़ आदि भी कहानी के किरदार की तरह याद रह जाते हैं। बावजूद इसके कि ज़हरखुरानी में कई किरदार और उनके अपने चरित्र हैं, हालांकि यह पूरा उपन्यास मिन्नी नाम के किरदार के इर्द-गिर्द है। मिन्नी एक छोटी लड़की, जिसके इर्द-गिर्द ही सारी उपन्‍यास की कहानी पनपती है और आकार लेती है। ज़हरखुरानी मिन्‍नी की उम्र के साथ बढ़ती रहती है, तब तक जब तक वो मिन्‍नी से मिनाली नहीं हो जाती।

ज़हरखुरानी न सिर्फ देश के बंटवारे से लेकर 84 के दंगों और इसके बीच के हिन्‍दुस्‍तान की शिनाख्‍त करता है, बल्‍कि यह वो दस्‍तावेज है जो अतीत के भारतीय परिवेश, उसकी पृष्‍ठभूमि से लेकर वर्तमान और भविष्‍य की राजनीति के खतरों के बारे में भी आगाह करता है। जिसकी कहानी के किरदारों में न सिर्फ हिन्‍दू, मुसलमान और सिख हैं, बल्‍कि वो आम आदमी भी है, जो किसी न किसी 'धर्म का नशा' किए हुए है।

इस नॉवेल के प्‍लॉट या इसकी कहानी के बारे में बात करना एक सतही विमर्श होगा, इसके विपरीत हमें इसकी कहानी के उस पार छिपे गहरे स्‍याह अर्थों में झांकना होगा। इसे पढ़ते हुए जब हमें महसूस होता है कि हम इसमें निहित किसी अर्थ के आसपास पहुंच गए हैं तो यह एक सिरहन सी पैदा कर देता है। इस सिरहन से हम सबको गुजरना चाहिए, ताकि हम आने वाले खतरों को पहचान सकें।

बहरहाल, इतने डिटेल्‍ड दस्‍तावेज को कुछ शब्‍दों के दायरे में लेकर उस पर बात नहीं की जा सकती, बेहतर होगा पाठक अपने अर्थों के साथ इसकी गहराई में उतरें और उस ज़हरखुरानी को महसूस करें जिससे खुद लेखक निर्मला भुराड़िया इसे लिखते हुए गुजरीं होंगी।

पुस्‍तक : ज़हरखुरानी
लेखक : निर्मला भुराड़िया
पृष्‍ठ संख्‍या : 335
प्रकाशक : सामयिक प्रकाशन
मूल्‍य : 595

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