विडंबना देखिए कि एक तरफ श्यामरुद्र जैसे लोग लंबे समय के बाद मीडिया का ध्यान आकर्षित कर पाते हैं, दूसरी तरफ रेडीफ डॉट कॉम के सीईओ अजीत बालाकृष्णन फरमाते हैं पिछले दस सालों के इंटरनेट यूजर के आंकड़ों को प्रमाण मानकर कहा जा सकता है कि यूजर भारतीय भाषाओं को नहीं चाहते। जबकि वहीं हॉ. गणेश देवी जैसे विद्वानों का कहना है कि आम और तमाम धारणाओं के विपरीत हिन्दी का वर्चस्व प्रशंसनीय होकर बढ़ रहा है।
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भारत की लुप्त होती भाषाओं पर व्यापक सर्वेक्षण, संवर्धन और संरक्षण तथा दस्तावेजीकरण करने का उन्होंने स्वैच्छा से बीड़ा उठाया है। इसी सर्वेक्षण के माध्यम से उनका कहना है कि हिन्दी आम धारणा को तोड़ती हुई तेजी से आगे बढ़ रही है।
वास्तविकता यह है कि इंटरनेट पर हिन्दी और अन्य भारतीय भाषाओं के पाठकों की उल्लेखनीय वृद्धि हुई है यह संभव है कि अंगरेजी की तुलना में उनका प्रतिशत कम हो लेकिन इससे हिन्दी के तेजी से बढ़ते पाठकों का महत्व कम नहीं हो जाता दूसरी बात यह तथ्य अपने आप में कमजोर है कि हिन्दी में अंगरेजी के मुकाबले सामग्री नहीं है।
यह हो सकता है कि हिन्दी की वेबसाइट्स अपनी स्तरीय सामग्री को अंगरेजी की तरह चमका कर पेश नहीं कर पा रही हो लेकिन हिन्दी के पक्ष में यह बात तो कतई स्वीकार्य नहीं है कि इंटरनेट पर हिन्दी में बेहतरीन सामग्री नहीं है।