हरिवंश राय बच्चन : मधुशाला के रचयिता का साहित्यिक योगदान

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harivansh rai bachchan 27 नवंबर को साहित्य जगत के महत्वपूर्ण हस्ताक्षर रहे हिंदी के प्रसिद्ध कवि और लेखक हरिवंश राय बच्चन का जन्मदिवस है। उनका जन्म 27 नवंबर 1907 को इलाहाबाद में हुआ था। एक लेखक के तौर पर वे सरलता और सहजता के साथ गद्य और पद्य दोनों विधाओं में लेखनी चलाकर साहित्य जगत की ऊंचाइयों पर पहुंचे। हिन्दी काव्यप्रेमियों में हरिवंश राय बच्‍चन सबसे अधिक प्रिय कवि रहे हैं और उनकी 1935 में प्रकाशित सर्वप्रथम कविता 'मधुशाला' आज भी लोकप्रियता के सर्वोच्च शिखर पर है।
 
डॉ. हरिवंश राय बच्चन उनका जन्म एक मध्यमवर्गीय परिवार में हुआ। उनकी प्रारंभिक शिक्षा सरकारी और कायस्थ पाठशाला में हुई, उसके बाद की पढ़ाई गवर्नमेंट कॉलेज इलाहाबाद और काशी हिंदू विश्वविद्यालय में हुई थी। उनका विवाह सन् 1926 में 19 वर्ष की उम्र में श्यामा बच्चन से हुआ था और श्यामा बच्चन जी की मृत्यु टीबी के कारणसन् 1936 में हुई। बाद में उनकी मृत्यु के 5 साल बाद 1941 में हरिवंशराज बच्चन ने रंगमंच तथा गायन से जुड़ी एक पंजाबी तेजी सूरी से विवाह किया।

इसी समय उन्होंने 'नीड़ का निर्माण फिर' जैसे कविताओं की रचना की। वह 1941 से 1952 तक इलाहाबाद विश्वविद्यालय में अंग्रेजी के प्रवक्ता रहे। उन्होंने 1952 से 1954 तक इंग्लैंड में रह कर कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय से पीएचडी की डिग्री प्राप्त की। वहां उन्होंने कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय से डब्ल्यूबी येट्स के काम पर शोध कर पीएचडी की डिग्री प्राप्त की तथा यह उपलब्धि हासिल करने वाले वे पहले भारतीय रहे। 
 
कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय से अंग्रेजी साहित्य में डॉक्टरेट की उपाधि लेने के बाद उन्होंने हिंदी में साहित्य सृजन का फैसला लेकर आजीवन हिंदी साहित्य को समृद्ध करने में लगे रहे। हरिवंश राय जी ने कुछ महीनों तक आकाशवाणी के इलाहाबाद केंद्र में भी काम किया। वह 16 वर्ष तक दिल्ली रहे और बाद में 10 वर्ष तक विदेश मंत्रालय में हिंदी विशेषज्ञ के पद पर भी रहे।

उन्हें 6 वर्ष तक राज्यसभा में विशेष सदस्य के रूप में भी मनोनीत किया गया था। वर्ष 1972 से 1982 तक अपने दोनों पुत्र अमिताभ और अजिताभ के पास दिल्ली और मुंबई में रहे। उनके पुत्र अमिताभ बच्चन एक प्रसिद्ध अभिनेता हैं। बाद में दिल्ली जाकर वहां के गुलमोहर पार्क के 'सोपान' में रहने लगे जहां वे हिंदी काव्य और साहित्य की सेवा में लगे रहे।
 
harivansh rai bachchan हरिवंशराय बच्चन जी ने अपने लेखन में कई कविताएं, आत्मकथा और अन्य कई विविध रचनाएं लिखीं, जिनमें खास तौर 'क्या भूलूं क्या याद करूं (1969), नीड़ का निर्माण फिर (1970), बसेरे से दूर (1977), दशद्वार से सोपान तक (1965) और बच्चन रचनावली के नौ खंड जो उन्होंने 1983 में लिखे थे।

इसके अलावा में उनके विविध लेखन और कविताओं में तेरा हार (1932), बचपन के साथ क्षण भर (1934), मधुशाला (1935), मधुबाला (1936), मधुकलश (1937), निशा निमंत्रण (1938), खय्याम की मधुशाला (1938), एकांत संगीत (1939), आकुल अंतर (1943), सतरंगिनी (1945), हलाहल (1946), बंगाल का काव्य (1946), खादी के फूल (1948), सूत की माला (1948), मिलन यामिनी (1950), सोपान (1953), प्रणय पत्रिका (1955), धार के इधर-उधर (1957), मैकबेथ (1957), जनगीता (1958), आरती और अंगारे (1958), बुद्ध और नाचघर (1958), ओथेलो (1959), उमर खय्याम की रुबाइयां (1959), कवियों के सौम्य संत: पंत (1960), आज के लोकप्रिय हिन्दी कवि: सुमित्रानंदन पंत (1960), आधुनिक कवि (1961), नेहरू: राजनैतिक जीवन चित्र (1961), त्रिभंगिमा (1961), चार खेमे चौंसठ खूंटे (1962), नए-पुराने झरोखे (1962), अभिनव सोपान (1964), चौसठ रूसी कविताएं (1964), दो चट्टानें (1965), बहुत दिन बीते (1967), कटती प्रतिमाओं की आवाज (1968), डब्लू बी यीट्स एंड औकल्टिज्म (1968), मरकट द्वीप का स्वर (1968), नागर गीत) (1966), बचपन के लोकप्रिय गीत (1967), हैमलेट (1969), उभरते प्रतिमानों के रूप (1969), भाषा अपनी भाव पराए (1970), पंत के सौ पत्र (1970) प्रवास की डायरी (1971), जाल समेटा (1973)' टूटी छूटी कड़ियां (1973), मेरी कविताई की आधी सदी (1981), सोहं हंस (1981), आठवें दशक की प्रतिनिधि श्रेष्ठ कविताएं (1982), मेरी श्रेष्ठ कविताएं (1984) आदि लेखन और कविताओं में हरिवंश राय बच्‍चन की सबसे लोकप्रिय कविता 'मधुशाला' रही। 
 
साहित्य जगत के प्रमुख स्तंभ माने जाने वाले डॉ. हरिवंश राय बच्चन का सांस लेने में दिक्कत की लंबी बीमारी के बाद 96 वर्ष की उम्र में उनके जुहू स्थित आवास 'प्रतीक्षा' में 18 जनवरी 2003 को निधन harivansh rai bachchan death हुआ था। यहां पढ़ें उनकी सबसे लोकप्रिय कविता- 
 
'मधुशाला' harivansh rai bachchan poem
 
मदिरालय जाने को घर से
चलता है पीनेवाला,
'किस पथ से जाऊं?'
असमंजस में है वह भोलाभाला;
अलग-अलग पथ बतलाते सब
पर मैं यह बतलाता हूं-
'राह पकड़ तू एक चला चल,
पा जाएगा मधुशाला'।
 
पौधे आज बने हैं साकी
ले-ले फूलों का प्याला,
भरी हुई है जिनके अंदर
परिमल-मधु-सुरभित हाला,
मांग-मांगकर भ्रमरों के दल
रस की मदिरा पीते हैं,
झूम-झपक मद-झंपित होते,
उपवन क्या है मधुशाला!
 
एक तरह से सबका स्वागत
करती है साकीबाला,
अज्ञ-विज्ञ में है क्या अंतर
हो जाने पर मतवाला,
रंक-राव में भेद हुआ है
कभी नहीं मदिरालय में,
साम्यवाद की प्रथम प्रचारक
है यह मेरी मधुशाला।
 
छोटे-से जीवन में कितना
प्यार करूं, पी लूं हाला,
आने के ही साथ जगत में
कहलाया 'जानेवाला',
स्वागत के ही साथ विदा की
होती देखी तैयारी,
बंद लगी होने खुलते ही
मेरी जीवन-मधुशाला!
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