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ग़ालिब का ख़त- 28

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पीर-ओ-मुर्शि
Aziz AnsariWD
ग़ुलाम की क्या ताक़त कि आपसे ख़फ़ा हो। आपको मालूम है कि जहाँ आपका ख़त न आया, मैंने शिकवा लिखना शुरू किया। हाँ, यह पूछना चाहिए कि अब के गिला की निगारिश क्यों मुल्तवी रही। सुनिए, मिर्जा़ यूसुफ़ अ़ली ख़ाँ अलीगढ़ से आए।

उनसे पूछा गया, हमारे भाई साहिब, मिले थे। उन्होंने कहा,'साहिब! न वे वहाँ हैं, न मुंशी अब्दुल लतीफ़, यानी दोनों साहिब दौरा में साहिब मजिस्ट्रेट के साथ हाथरस गए हैं।' अब आप ही कहिए कि मैं ख़त किसको लिखता और कहाँ भेजता। मुंत‍ज़िर था कि आपका ख़त आए तो उसका जवाब लिखूँ। कल हज़रत का नवाज़िशनामा आया। आज जवाब लिखा। आप ही फ़रमाइए कि मैं आपसे ख़फा हूँ या नहीं।

बादशाह का हाल क्या पूछते हो। और अगर तुमने पूछा है तो मैं क्या लिखूँ। दस्त (मोकूफ़) हो गए, मगर कभी-कभी आ जाते हैं। तप जाती रही। मगर गाह-गाह हरारत हो आती है। हिचकी उस शिद्दत की नहीं रही। गाह-गाह छाती जलती रहती है और डकार-सी आती है।

  यह सफ़र मेरे दिल ख़ाह और मुआफ़िक मिज़ाज था, और है मगर ग़ौर करो कि क्या इत्तिफ़ाक हुआ। अगर और सूरत भी हो जाती, तो भी मैं अब तक तुम्हारे पास होकर बांदा को रवाना हो जाता। क्या करूँ।      
हवादार पलंग के बराबर लगा देते हैं और हज़रत को पलंग पर से हवादार पर बिठा देते हैं। इस हैयत से बरामद भी होते हैं। क़िला-ही-क़िला में फिरकर फिर महल में दाख़िल हो जाते हैं। यूँ तसव्वुर कीजिए और मशहूर भी यूँ ही है कि मर्ज़ आता रहा और ज़ोफ़ बाकी है।

बहरहाल, जब तक सलामत रहें, ग़नीमत है। लेकिन वह मेरा मुद्दा कि गुसल-ए-सेहत करें और नज़रें लें और मैं रुख़सत लूँ और ब-सलीब-ए-डाक बांदा को जाऊँ। देखिए, कब तक हासिल हो। डाक का लुत्फ़ आधा रह गया। यानी वह आम कहाँ और बरसात कहाँ।

मगर ख़ैर, कोल में भाई का मिलना और बच्चों का देखना और बांदा में भाइयों का मिलना और बच्चों का देखना, देखा चाहिए, कब मुयस्सर हो। इस बूढ़ी दाढ़ी पर अपने फ़र्जन्द को दम क्या दूँगा। भाई, ख़ुदा की क़सम।

यह सफ़र मेरे दिल ख़ाह और मुआफ़िक मिज़ाज था, और है मगर ग़ौर करो कि क्या इत्तिफ़ाक हुआ। अगर और सूरत भी हो जाती, तो भी मैं अब तक तुम्हारे पास होकर बांदा को रवाना हो जाता। क्या करूँ। इस सूरत में रुख़सत नहीं माँगी जाती और रुख़सत लिए बग़ैर जाना नहीं हो सकता।

21 अगस्त 1853 असदुल्ला

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