आपका वह ख़त जो आपने कानपुर से भेजा था, पहुँचा। बाबू साहिब के सैर-ओ-सफ़र का हाल और आपका लखनऊ जाना और वहाँ के शुअ़रा से मिलना, सब मालूम हुआ। अशआ़र जनाब रिंद के पहुँचने के एक हफ्ता के बाद दुरुस्त हो गए और इस्लाह और इशारे और फ़वायद जैसा कि मेरा शेवाहै, अ़मल में आया।
Aziz Ansari
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जब तक कि उनका या तुम्हारा ख़त न आवे और इक़ामतगाह मालूम न हो, मैं वे काग़ज जरूरी कहाँ भेजूँ और क्यों कर भेजूँ? अब जो तुम्हारे लिखने से जाना कि 19 फरवरी तक अकबराबाद आओगे, तो मैंने यह ख़त तुम्हारे नाम लिखकर लिफ़ाफ़ा कर रखा है। आज उन्नीसवीं है, परसों इक्कीसवीं को लिफ़ाफ़ा आगरा को रवाना होगा।
बाबू साहिब को मैंने ख़त इस वास्ते नहीं लिखा कि जो कुछ लिखना चाहिए था, वह ख़ात्मा-ए-औराक़-ए-अशआ़र पर लिख दिया है। तुमको चाहिए कि उनकी ख़िदमत में मेरा सलाम पहुँचाओ और सफ़र के अंजाब और हसूल-ए-मराम की मुबारकबाद दो और औराक़-ए-अशआ़र गुज़रानो और यह अर्ज करो कि जो इबारत खात्मे पर मरक़ूम है, उसको ग़ौर से देखिए और भूल जाइए। बस तमाम हुआ वह पयाम कि जो बाबू साहब की ख़िदमत में था।
अब फिर तुमसे कहता हूँ कि वह जो तुमने उस शख्स 'कोली' का हाल लिखा था, मालूम हुआ। हरचंद एतराज़ तो उनका लग्व और पुरसिश उनकी बेमज़ा हो, मगर हमारा यह मंसब नहीं कि मोतरिज़ को जवाब न दें या सायल से बात न करें। तुम्हारे शेर पर एतराज़, और इस राह से कि वह हमारा देखा हुआ है, गोया हम पर है। इससे हमें काम नहीं कि वे मानें या न मानें, कलाम हमारा अपने नफ़स में माकूल व उस्तवार है। जो ज़बांदां होगा, वह समझ लेगा।
ग़लत फ़हम व कज अंदेश लोग न समझें न समझें। हमको तमाम ख़लक़ की तहज़ीब व तलक़ीन से क्या इलाक़ा? तालीम व तलक़ीन वास्ते दोस्तों के और यारों के हैं, न वास्ते अग़ियार के। तुम्हें याद होगा कि मैंने तुम्हें बारहा समझाया है कि खुद ग़लती पर न रहो और गै़र की ग़लती से काम न रखो। आज तुम्हारा कलाम वह नहीं कि कोई उस पर गिरिफ्त कर सकें।