अब कोई होली मनती है का! होली तो मनाते थे कक्काजी। कक्काजी हमारे गांव के मुखिया थे। तो बात कर रहे थे होली की। कक्काजी की होली खास होती थी खास।
एक होली पर कक्काजी नया रंग खरीदकर लाए। उन्होंने सोचा कि यह नया रंग दूसरों को चुपड़ देंगे तो सामने वाला ही इस रंग का मजा लेगा फिर अपन को मालूम कैसे पड़ेगा कि यह नया रंग कैसा है, तो उन्होंने नया रंग लिया और पहले खुद के चेहरे पर ही लगा लिया। यह नया रंग क्या था कि काला रंग था। एकदम काला। कक्काजी का तो चेहरा ही पहचान में नहीं आया।
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उन्होंने कहा-अरे तेरे कि, यह कौन सा भैंसिया रंग दय दीना हमका। सभी ने सुना और इस नए काले रंग का नाम भैंसिया रंग पड़ गया और तबसे आज तक काले रंग को हम सभी भैंसिया रंग कहते आ रहे हैं।
उस दिन पूरे लोग कक्काजी को पहचान नहीं सके। कक्काजी भी आइना देखकर खुद को नहीं पहचान पाए। होली के बाद पूरे पांच दिनों तक उनका रंग नहीं उतरा। आखिर उतरता कैसे, भैंसिया रंग इतनी जल्दी उतरता है क्या! आज तक भैंस का रंग नहीं उतरा जो! उस दिन लोग कक्काजी को देखकर हंसते और कक्काजी खुद को देख-देखकर।