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शहादत की याद का विशिष्ट दिन

अमर शहीद भगतसिंह, सुखदेव और राजगुरु याद में

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अनिल त्रिवेदी

भारत की आजादी के आंदोलन में आजादी के क्रांतिकारी योद्धा अमर शहीद भगतसिंह, सुखदेव और राजगुरु द्वारा दी गई अविस्मरणीय आहुति का दिन है 23 मार्च। इसी दिन समाजवादी आंदोलन की चिरस्मरणीय विभूति डॉ. राममनोहर लोहिया का भी जन्मदिवस है। डॉ. लोहिया ने अपने जीवन में कभी भी अपना जन्मदिवस नहीं मनाया।

तेईस मार्च अमर शहीद भगतसिंह, सुखदेव और राजगुरु की अमर शहादत का दिन। भारत की आजादी के आंदोलन में आजादी के क्रांतिकारी योद्धाओं द्वारा दी गई अविस्मरणीय आहुति का दिन। तेईस मार्च समाजवादी आंदोलन की चिरस्मरणीय विभूति डॉ. राममनोहर लोहिया का भी जन्मदिवस है।

डॉ. लोहिया ने अपने जीवन में कभी भी अपना जन्मदिवस नहीं मनाया। जीवन भर जीवन के हर पल देश में समता लाने और विपन्नता तथा गैर बराबरी के खिलाफ निरंतर मन, वचन और कर्म से अलख जगाते रहे। देश के गरीबों, शोषितों के अरमानों में रंग भरने के लिए व्यवस्था, समाज और शोषण के साम्राज्य को ललकारते रहे और देश के युवजनों, परिवर्तनधर्मा लोगों को देश के लिए जीते रहने का शाश्वत मंत्र देते रहे। इस तरह तेईस मार्च देश के लिए सिद्धांतों, आजादी, क्षमता और इंकलाब के लिए निरंतर मरने-जीने वाले आजादी के क्रांतिकारी योद्धाओं के विचारों को आगे बढ़ाने के लिए अपनी जिंदगी से समय निकालने का दिन है।

अमर शहीद भगतसिंह और डॉ. राममनोहर लोहिया भारत के क्रांतिकारी समाजवादी आंदोलन के प्रखर दृष्टा, विचारक, संगठन, प्रेरक के साथ ही आजादी के आंदोलन के महान योद्धा होने के साथ, अपने विचारों की प्रतिबद्धता के कारण अपनी पूरी जिंदगी को ही भारत की कोटि-कोटि जनता को स्वाधीनता के साथ समानता के जीवन मूल्यों को अपनाने के लिए प्रेरित करने वाली भारत के लोकजीवन की ऐसी अनोखी विभूतियाँ रही हैं, जिनके वैचारिक स्पर्श मात्र से भारत में समाजवादी अरमानों को साकार करने का सपना सँजोने वाले युवजनों को जो वैचारिक प्रेरणा और ऊर्जा मिलती है, वह भारत के स्वाधीनता आंदोलन के गर्भ से निकली समाजवादी विचारधारा की शाश्वत ऊर्जा या प्रेरणा रही है।

शहीद भगतसिंह ने वैचारिक प्रतिबद्धता के साथ देश की आजादी और समाजवादी समाज रचना के लिए लोकमानस को गहराई से झकझोरते हुए अपने जीवन की आहुति दी। आजादी के लिए जीवन की कुर्बानी दी जा सकती है 'पर सिद्धांतों की कुर्बानी नही' ऐसा अमर एवं प्रेरक संदेश अपनी शहादत से दिया। फाँसी का फंदा चूमने को आतुर 23 वर्ष के नौजवान भगतसिंह ने वहाँ खड़े डिप्टी कमिश्नर की ओर मुड़कर कहा था- 'मजिस्ट्रेट महोदय, आप भाग्यशाली हैं कि आज अपनी आँखों से यह देखने का अवसर पा रहे हैं कि भारत के क्रांतिकारी किस प्रकार प्रसन्नतापूर्वक अपने सर्वोच्च आदर्श के लिए मृत्यु का आलिंगन कर सकते हैं।'

शहीद भगतसिंह के जीवनमूल्य इस बात के सशक्त सबूत हैं कि परिवर्तनधर्मा क्रांतिकारी राजनीति, विचार, दर्शन और लोकसंघर्ष के साथ जुड़कर एक तेजस्वी संस्कृति और नीतिशास्त्र की आधारशिला रखती है। उनके जीवन में क्रांतिकारी निष्ठा एक तेजस्वी सांस्कृतिक संवेदना, भावना और अनुभूतियों से संबंधित थी और जीवन मूल्यों का यह अनोखा जीवंत समन्वय उनके दैनंदिन जीवनक्रम तथा परस्पर संबंधों में दिखाई पड़ता था।

भगतसिंह और उनके अन्य साथियों का आपस में सुंदर संबंध, उनकी विनम्रता और अन्यों के लिए उनकी गहरी संवेदनशीलता और चिंता के अनगिनत उदाहरण शहीदे आजम के छोटे, पर महासागर से भी ज्यादा आंदोलित जीवनक्रम में हमें दिखाई पड़ते हैं। एक बार बाबा सोहनसिंह भकना (भारतीय गदर पार्टी के नेता) ने भगतसिंह से उनके रिश्तेदारों के बारे में पूछा तो भगतसिंह ने उत्तर दिया- 'बाबाजी मेरा खून का रिश्ता तो शहीदों के साथ है जैसे खुदीराम बोस और करतारसिंह सराया। हम एक ही खून के हैं। हमारा खून एक ही जगह से आया है और एक ही जगह जा रहा है।

दूसरा रिश्ता आप लोगों से है, जिन्होंने हमें प्रेरणा दी और जिनके साथ काल कोठरियों में हमने पसीना बहाया है। तीसरे रिश्तेदार वे होंगे, जो इस खून-पसीने से तैयार हुई जमीन में नई पीढ़ी के रूप में पैदा होंगे और मिशन को आगे बढ़ाएँगे।'
भगतसिंह हर परिस्थिति में क्रांतिकारी, राजनीति और व्यापक समझदारी को अपने जीवन के हर दौर में अपनाते थे। अपने माता-पिता से गहरे लगाव, प्रेम एवं आत्मीयता के बावजूद 30 सितंबर 1930 को भगतसिंह के पिता सरदार किशनसिंह ने ट्रिब्यूनल को एक आवेदन देकर बचाव पेश करने के लिए अवसर की माँग की।

उन्हें व कुछ अन्य देशभक्तों को लगता था कि शायद भगतसिंह और उनके साथियों को बचाया जा सकता है, पर भगतसिंह और साथीगण की नीति एवं दिशा एकदम स्पष्ट थी। वे मानते थे अँगरेज सरकार का उद्देश्य बदला लेना था और मुकदमा केवल एक नाटक है। सजा को टालना किसी भी हालत में संभव नहीं। स्थिति का मजबूती से मुकाबला करना समय की जरूरत है। यदि थोड़ी भी कमजोरी दर्शायी तो जनचेतना में अंकुरित इंकलाब के बीज का उदय नहीं हो पाएगा। वह जन्म से पहले ही दम तोड़ देगी।

पिता की अर्जी से भगतसिंह की भावनाओं को चोट पहुँची, पर अपनी भावनाओं को रोकते हुए भगतसिंह ने पिताजी को लिखा- 'पिताजी, मैं बहुत दुःख का अनुभव कर रहा हूँ कि मुझे भय है, आप पर दोषारोपण करते हुए या इससे बढ़कर आपके इस काम की निंदा करते हुए कहीं सभ्यता की सीमाएँ न लाँघ जाऊँ और मेरे शब्द ज्यादा सख्त न हो जाएँ। लेकिन मैं स्पष्ट शब्दों में अपनी बात अवश्य कहूँगा।

यदि कोई अन्य व्यक्ति मुझसे ऐसा व्यवहार करता तो मैं उसे गद्दारी से कम न मानता, लेकिन आपके संदर्भ में मैं इतना ही कहूँगा कि यह एक कमजोरी है, निचले स्तर की कमजोरी। यह एक ऐसा समय था, जब सबका इम्तिहान हो रहा था। मैं यह करना चाहता हूँ कि आप इस इम्तिहान में नाकाम हो रहे हैं। मैं जानता हूँ कि आप भी इतने ही देशप्रेमी हैं जितना कि कोई और व्यक्ति हो सकता है।

मैं चाहता हूँ कि इस संबंध में जो उलझनें पैदा हो गई हैं, उसके विषय में जनता को असलियत का पता चल जाए। इसलिए आपसे मैं प्रार्थना करता हूँ कि आप जल्द से जल्द चिट्ठी प्रकाशित कर दें। (भगतसिंह और उनके साथियों के दस्तावेज पृष्ठ 327)

3 मार्च 1931 को भगतसिंह अपने परिजनों से आखिरी बार मिले। उस दिन की मुलाकात में माता-पिता थे, दादाजी थे, चाची और दो छोटे भाई थे। भगतसिंह अब केवल चंद रोज के मेहमान हैं, यह सोचकर सबका मन उदास था। आँसू रोके नहीं रुक रहे थे। सरदार अर्जुनसिंह भगतसिंह के दादाजी, जिनकी गोद में भगतसिंह ने अपना बचपन बिताया था, पास आए और भगतसिंह के सिर पर हाथ फेरा। वे कुछ बोलना चाहते थे, लेकिन बोल नहीं पाए। पर भगतसिंह हमेशा की भाँति पूर्णतः शांत एवं प्रसन्नचित थे। उनकी माँ ने उनसे कभी कहा था कि फाँसी का आदेश सुनकर उनका वजन घटना नहीं चाहिए। आज भगतसिंह ने माँ को यह खबर सुनाई कि सजा सुनाए जाने के बाद उनका वजन बढ़ा है। फिर मुस्कराते हुए वे माँ से बोले- 'लाश लेने आप मत आना। कुलवीर को भेज देना। कहीं आप रो पड़ीं तो लोग कहेंगे कि भगतसिंह की माँ रो रही हैं।'

भगतसिंह ने शायद अपने जीवन की सबसे उन्मुक्त हँसी उस दिन हँसी थी, जिस दिन वे फाँसी पर चढ़ने वाले थे। जेल के साथियों ने भगतसिंह से अंतिम बिदाई लेते समय पूछा था कि जब तुम मरने जा रहे हो, तब हम यह जानना चाहते हैं कि तुम्हें इसका अफसोस है या नहीं। प्रश्न सुनकर पहले तो भगतसिंह ने ठहाका लगाया और फिर कहा- 'यदि जीवन देकर मैं देश के कोने-कोने तक इंकलाब जिंदाबाद का नारा पहुँचा सका तो मैं समझूँगा कि मुझे अपने जीवन का मूल्य मिल गया।

23 मार्च का दिन देश में आजादी, क्षमता और स्वराज्य लाने वाले इंकलाबियों की शहादत और जीवन जीने की भावना को आत्मसात कर आगे आकर निरंतर शहीदों के अरमानों का भारत साकार करने के कदम मजबूती एवं संकल्प के साथ बिना रुके या थके उठाते रहने का दिन है। (लेखक समाजवादी चिंतक हैं।)

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