कश्मीर को भारत का स्वर्ग कहने वालों की जुबान भी एक बार कांप जाती है जब उनके जेहन में दर्द उभरता है कश्मीरी पंडितों का। विस्थापन, निर्वासन, पलायन या निष्कासन जैसे शब्दों से अवांछित नाता जोड़ते कश्मीरी पंडितों की वेदना को समझ पाना कतई आसान नहीं है। निर्वासन को विवश कश्मीरी पंडित समाज दो दशक से भी अधिक समय से 19 जनवरी को निष्कासन दिवस मनाता है।
कितना कड़वा होगा वह दिन, जब खूबसूरत वादियों में बसी अपनी रंगीन दुनिया को अपने ही हाथों से तबाह किया होगा। कितने मजबूर होकर टूटे होंगे दिल, जब अपने ही बरसों के बसाए आशियाने को तिनके-तिनके बिखरते देखा होगा।
कितना कच्चा हो जाता होगा उनका कलेजा जब यादों की सुरम्य झील में रह-रह कर उनका अपना ही 'शिकारा' थिरक उठता होगा। शीतल बर्फ की उजली सफेद घाटियों के मरमरी दृश्य जब आंखों में धुंआ बनकर उमड़ते होंगे तब कितनी अव्यक्त अश्रुधाराएं कहीं भीतर ही भीतर ठिठक कर रह जाती होगी।
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कैसा संत्रास है यह कि कोई अपनी ही धरा से बरसों से बेदखल है और राजनीति अपने काले धंधों से ही फुरसत नहीं पा रही। कितने लोग हैं जो इस दर्द और मर्म को समझ पा रहे हैं? क्या हमें 19 जनवरी 1990 की तारीख की कलुषता याद है? इस दिन लाखों कश्मीरी हिंदुओं को अपनी जमीन, अपना घर हमेशा के लिए छोड़ कर अपने ही देश में 'रिफ्यूजी' होना पड़ा था। नहीं याद होगा हमें कि दो दशक पहले कैसे क्रूर आतंकवाद के चलते घाटी से 350,000 से अधिक कश्मीरी पंडितों को पलायन करना पड़ा था।
आज तक वे कश्मीरी पंडित वापस अपने घरौंदों में लौटने के लिए छटपटा रहे हैं, अपने परों को फड़फड़ा रहे हैं लेकिन वहां ना कोई वादा है, ना कोई सुरक्षा, ना कोई योजना है ना कोई व्यवस्था।
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वे घाटी में लौटने को बेताब हैं, लेकिन उन्हें समायोजित करने के लिए कम से कम तीन उपनगरों की स्थापना होना जरूरी है। ताकि वे फिर से अपनी ही जड़ों को अपनी ही जमीन में विश्वास के साथ सिंचित कर सकें। फिर लहलहा सकें उनके सपने, और मुस्कुरा सकें उनके अपने। क्या कहीं कोई कान हैं इतने तत्पर कि कश्मीरी पंडितों की करूण आवाज पर खड़े हो सके?
आखिर किसके भरोसे लौटें वे अपने ही सेब और केसर से महकते आंगन में? निर्वासन की घोर पीड़ा झेलते इन मासूम नागरिकों के लिए क्यों नहीं नजर आती कोई गंभीर चिंता??