भारत के नए संसद भवन की छत पर स्थापित अशोक स्तंभ इन दिनों काफी चर्चा में है। एक तबका इसका विरोध कर रहा है तो दूसरा इसका समर्थन भी कर रहा है। एक तबके का मानना है कि अशोक स्तंभ के शेर का मुंह पहले बंद था अब खुला है। यह शेर खूंखार है, इसे सौम्य होना चाहिए। इस बात को लेकर सोशल मीडिया पर कमेंट बॉक्स में लड़ाइयां देखने को मिल रही हैं। अपनी बात सही साबित करने के लिए अजब-गजब तर्क-कुतर्क देखने को मिल रहे हैं।
वैसे यदि भारत के लोकतंत्र को बारीकी से देखें तो विपक्ष का काम ही हर नीति का विरोध करना है। सत्ता पक्ष का कोई भी उत्तम कार्य विपक्ष के चश्मे से खराब ही दिखता है। लगता है कि भारत में यह रिवाज है कि विपक्ष में रहते जिस चीज का विरोध करते हैं सत्ता में आते ही वह मास्टरस्ट्रोक लगने लग जाती है।
आखिर क्या है इस राष्ट्रीय प्रतीक का इतिहास : अब इसी मुद्दे को सियासी बनाया जा रहा है कि शेर का मुंह इतना खूंखार क्यों है तो सोचा विरोध करने के पहले जान लेते हैं कि हमारे इस राष्ट्रीय प्रतीक का इतिहास क्या है। फिर सोचेंगे कि गलत किया है या सही। हमने इसके बारे में थोड़ी पड़ताल की तो पाया कि मूल अशोक स्तम्भ तो संग्रहालय में रखा हुआ है और उसकी जीभ बाहर है और दांत दिख रहे हैं। वैशाली में भी एक अशोक स्तम्भ है, पर इस पर मात्र एक ही शेर है। इसे ध्यान से देखा तो शेर के नुकीले दांत दिख रहे थे। फिर सांची के प्रसिद्ध स्तूप के द्वार पर बने इस सिंहों का मुंह देखा तो इसमें शैली भिन्न दिखी पर शेर तो खूंखार ही दिख रहे थे। अब क्या इन सिंहों का भी विरोध किया जाएगा?
फिर प्रश्न आया कि आखिर अशोक तो अहिंसा के मार्ग पर चलने लगे थे तो फिर इस सिंह के द्वारा प्रचार-प्रसार का क्या उद्देश्य? ऐसे में खोजने पर पाया कि सिंह बौद्ध धर्म का अंग है। सिंह को बुद्ध के सामान बताया गया है। पाली गाथाओं के अनुसार बुद्ध को शाक्य सिंह और नरसिंह तो बताया ही गया है, साथ ही इस धर्म में बुद्ध के उपदेशों को सिंहगर्जना भी समझा जाता है। यह सिंह तो बुद्ध के उपदेश देने के रूप में दृष्टिमान है।
विदेशी मठों में सिंहों का महत्व : अब धुंधला सा चित्र थोड़ा साफ़ दिखने लगा था। इसी कड़ी में सोचा की विदेशों में भी बुद्ध फैला है तो वहां भी क्या शेरों का महत्व है? तो पाया कि थाईलैंड में बौद्ध मठों में शेर पाले जाते हैं। वियतनाम में बौद्ध मठों में भी दहाड़ते हुए खूंखार शेर हैं। साथ ही चीन के शाओलिन गुरुकुल, जहां कुंग फू की शिक्षा दी जाती है, वहां अंदर बुद्ध की मूर्ति है और परिसर में एक खूंखार शेर की मूर्ति है।
इन सब से एक बात तो समझ आ रही थी कि दुनिया के हर कोने में शेर और बुद्ध में संबंध है और इसका बहुत महत्व भी है। सिंह को बुद्ध के शांति, अहिंसा और लोक कल्याण का उपदेश देने के रूप में बताया जाता रहा है। पर देश, काल, समय और परिस्थिति के कारण इसका अर्थ बदलता गया।
एक और तर्क यह सूझा कि वह शेर है, तो दहाड़ेगा ही, म्याऊं-म्याऊं तो करेगा नहीं। भले ही वह हंस रहा हो, उसका मुंह बंद हो, पर इससे यह तो विद्यमान रहेगा ही कि वह एक शेर है जो कभी भी दहाड़ सकता है, इससे उसकी वृत्ति बदल तो नहीं जाएगी!!
कोई भी कला हो वह समय के अनुसार बदल जाती है। उस युग के बदलाव ही उस कला के कारक होते हैं। ऐसे में उचित यह होता है कि उसके मूल अर्थ को जाने बजाए इसके कि वह कैसा और क्या दिख रहा है, हमारा ध्यान इस ओर होना चाहिए कि आखिर अशोक स्तंभ का क्या अर्थ है और हम उसका पालन कैसे कर सकते हैं। न कि इस ओर कि उसका किसके द्वारा अनावरण हुआ है और वह कैसा दिख रहा है और किस बहाने से इसका विरोध करें।
लोकतंत्र में विरोध करने की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता होती है। पर इसका अर्थ यह नहीं की हर छोटी बात के हम विरोधी हो जाएं, ऐसे में हम ट्रोलर कहलाते हैं। फिर एक बात यह भी है कि हमें पूरी बात जानकर ही विरोध करना चाहिए, तो इस विषय में पहले हमें स्वयं से पूछना चाहिए कि क्या हमें पता था कि सिंह क्या उपदेश दे रहे थे?
आज अशोक स्तंभ देश की नई संसद भवन के ऊपर विराजमान होकर देश की शोभा बढ़ा रहा है। ऐसे में हमें यह सोचना चाहिए कि विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र की 'कुटिया' से चारों ओर बुद्ध के लोक कल्याण, प्रेम, त्याग और 'अप्प दीपो भव' का संदेश जा रहा है, ना कि यह सन्देश कि शेर दहाड़ते हुए कैसा दिख रहा है.......