आजादी के बाद देश पर सर्वाधिक समय (लगभग 55 साल) तक शासन करने वाली कांग्रेस पार्टी इस समय अपने अस्तित्व के संकट से जूझ रही है। पिछले 2 लोकसभा चुनावों में दर्दनाक और ऐतिहासिक हार का सामना करने के साथ ही पिछले 8 साल के दौरान 1-1 करके वे सभी राज्य उसके हाथ से निकल चुके हैं, जहां उसकी सरकारें थीं। इस समय जिन 2 राज्यों में उसकी सरकारें हैं, उनकी आबादी देश की कुल आबादी का लगभग महज 8 फीसदी है। इस दारुण अवस्था में पहुंच जाने के बावजूद यह पार्टी अभी भी वक्ती तकाजे के मुताबिक अपने को बदलने के लिए तैयार ही नहीं है।
याद नहीं आता कि पिछले 8 साल में विपक्ष में रहते हुए कांग्रेस ने जनता से जुड़े सवालों या इस सरकार की जनविरोधी और संविधान विरोधी कारगुजारियों या राष्ट्रीय सुरक्षा को लेकर सरकार की नाकामियों के खिलाफ कभी सड़कों पर उतर कर कोई आंदोलन किया हो। लेकिन इन दिनों अपने पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी की प्रवर्तन निदेशालय यानी ईडी के सामने पेशी के खिलाफ पूरी कांग्रेस आंदोलित है।
गौरतलब है कि राहुल गांधी कांग्रेस और जवाहरलाल नेहरू द्वारा स्वाधीनता संग्राम के दौरान शुरू किए गए अखबार 'नेशनल हेरॉल्ड' से जुड़े कथित घोटाला मामले में पिछले सोमवार को ईडी के सामने पेश हुए। इस पेशी के खिलाफ 3 दिनों तक पार्टी के तमाम दिग्गज नेताओं और कार्यकर्ताओं ने दिल्ली सहित देश के प्रमुख शहरों की सड़कों पर विरोध प्रदर्शन किया।
चूंकि यह सरकार अपने विरोध में उठने वाली हर आवाज को अलोकतांत्रिक और अमानवीय तरीके से दबाती रही है, इसलिए स्वाभाविक रूप से वह कांग्रेस के इस विरोध प्रदर्शन का भी पुलिस के जरिए सख्ती से दमन कर रही है। सोमवार को दिल्ली में पुलिस द्वारा की गई बदसुलूकी और अनावश्यक बलप्रयोग से पूर्व गृहमंत्री पी. चिदंबरम, सांसद प्रमोद तिवारी को गंभीर चोटें आई हैं। पार्टी के संगठन महासचिव केसी वेणुगोपाल के साथ भी पुलिस ने मारपीट की और उनके कपड़े फाड़ डाले। इसके अलावा भी कई लोगों को चोटें आई हैं। कांग्रेस का आरोप है कि बुधवार को पुलिस ने अकबर रोड स्थित कांग्रेस मुख्यालय में घुसकर कार्यकर्ताओं पर लाठीचार्ज किया।
बहरहाल, सवाल है कि सड़कों पर अपने नेता के समर्थन में इस शक्ति प्रदर्शन के कांग्रेस को क्या हासिल हुआ? यह तथ्य किसी से छुपा हुआ नहीं है कि मौजूदा सरकार विपक्षी दलों और उनके नेताओं को डराने या परेशान करने के लिए सीबीआई, ईडी, आयकर आदि केंद्रीय एजेंसियों और अन्य संवैधानिक संस्थाओं का दुरुपयोग करने में कोई कोताही नहीं बरत रही है। इन संस्थाओं के अधिकारी भी सत्ता-शीर्ष पर बैठे नेताओं के घरेलू नौकरों की तरह व्यवहार कर रहे हैं। इसी वजह से इन संस्थाओं की साख भी पूरी तरह चौपट हो चुकी है।
यह भी उजागर तथ्य है कि विपक्षी नेताओं को जांच की आड़ में परेशान करने और उन्हें फंसाने वाले अफसरों को सरकार किस तरह पुरस्कृत कर रही है। ईडी के संयुक्त निदेशक राजेश्वर सिंह तो विपक्षी नेताओं की जांच करते-करते उत्तरप्रदेश के विधानसभा चुनाव में भाजपा के उम्मीदवार बनकर विधायक भी बन गए।
कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी और राहुल गांधी के खिलाफ भी नेशनल हेरॉल्ड से जुड़े कथित घोटाले को लेकर सरकार ने पिछले कुछ वर्षों से ईडी, आयकर आदि केंद्रीय एजेंसियों को लगा रखा है। फिर भी यह कोई आम जनता से जुड़ा मुद्दा नहीं है। इसलिए बेहतर तो यही होता कि इस मामले में पूरी पार्टी को झोंकने के बजाय सिर्फ राहुल गांधी ही स्टैंड लेते और ईडी के दफ्तर जाकर बैठ जाते और जांच अधिकारी से कहते कि मैं यहां बैठा हूं, करिए जांच और जो कुछ पूछना हो मुझसे पूछिए... 2 घंटे, 2 दिन या 2 हफ्ते, जितना चाहोगे मैं यहां बैठा रहूंगा और यहां से तभी जाऊंगा, जब या तो मुझ पर आरोप तय करके मामला कोर्ट में पेश करोगे या अगर जांच में कुछ नहीं मिलता है तो मुझे लिखकर दोगे कि जांच में कुछ नहीं मिला, जांच खत्म हुई।
दूसरे विपक्षी नेताओं ने भी केंद्रीय एजेंसियों से निबटने के लिए इसी तरह के फॉर्मूले अपनाए हैं, जैसे पश्चिम बंगाल में तृणमूल कांग्रेस की नेता और मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के मंत्रियों को सीबीआई ने गिरफ्तार किया तो वे कोलकाता में सीबीआई के दफ्तर पहुंच गई थीं और 6 घंटे तक वहीं बैठी रहीं। इस दौरान राज्य की पुलिस उनके साथ मौजूद रही और पार्टी कार्यकर्ता सीबीआई के खिलाफ नारेबाजी करते रहे। ममता के इस रवैये से सीबीआई की मुहिम की हवा निकल गई।
इसी से मिलता-जुलता फॉर्मूला राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (एनसीपी) के नेता शरद पवार ने अपनाया। महाराष्ट्र में ईडी ने 25 हजार करोड़ रुपए के एक कथित बैंक घोटाले में शरद पवार और उनके भतीजे अजित पवार सहित कई लोगों पर मुकदमे दर्ज किए। इस मुकदमे की सूचना मिलते ही शरद पवार ने ऐलान किया कि वे मुंबई स्थित ईडी दफ्तर जाएंगे और अपना पक्ष रखेंगे। हालांकि ईडी ने पवार को नोटिस जारी नहीं किया था, लेकिन पवार ने बलार्ड एस्टेट स्थित ईडी के कार्यालय जाने के फैसला किया।
यह मामला सितंबर 2019 का है। इसके थोड़े दिन बाद ही महाराष्ट्र में विधानसभा के चुनाव होने वाले थे जिसकी वजह से माहौल में सियासी हलचल पहले से थी। ईडी कार्यालय जाने की पवार की घोषणा के बाद हजारों की संख्या में एनसीपी कार्यकर्ता ईडी कार्यालय के सामने जमा होने की तैयारी करने लगे। माहौल ऐसा बन गया कि ईडी को ई-मेल भेजकर पवार से कहना पड़ा कि उन्हें कार्यालय आने की जरूरत नहीं है।
राज्य की तत्कालीन भाजपा सरकार अलग परेशान हुई और कानून व्यवस्था की स्थिति ठीक रखने के लिए मुंबई पुलिस कमिश्नर खुद पवार के घर गए और उन्हें मनाया कि वे ईडी कार्यालय न जाएं। बाद में उस मामले का क्या हुआ, पता नहीं। लेकिन फिर सुनने को नहीं मिला कि पवार के खिलाफ ईडी कोई कार्रवाई करने जा रही है।
सोचने वाली बात है कि 25 हजार करोड़ रुपए के कथित घोटाले में एफआईआर में नाम होने के बावजूद पवार को पेश नहीं होना पड़ा लेकिन एक ऐसे कथित घोटाले में, जिसमें कोई पैसा इन्वॉल्व नहीं है, उसमें सोनिया गांधी को अपनी बीमारी के चलते ईडी के समक्ष पेश होने के लिए कुछ दिन की मोहलत मांगनी पड़ी और राहुल गांधी ईडी के सामने पेश हुए। ईडी ने राहुल गांधी को 2 जून को पेश होने के लिए नोटिस जारी किया था लेकिन तब वे विदेश में थे। इसी आधार पर उनकी ओर से ईडी से दूसरा समय मांगा गया तो ईडी ने 13 जून को पेश होने के लिए कहा और वे लगातार 3 दिन तक पेश हुए।
सवाल है कि सोनिया और राहुल ने भी क्यों नहीं नोटिस मिलते ही खुद पहल की और पवार की तरह तत्काल ईडी कार्यालय पहुंचने का ऐलान किया? यह ठीक है कि सोनिया गांधी बीमार हैं, लेकिन राहुल के लिए विदेश से लौट आना कोई मुश्किल काम नहीं था। वे लौटते और 2 जून को ही अपने सारे दस्तावेजों के साथ ईडी के कार्यालय पहुंचने का ऐलान करते। इससे उनके बेकसूर होने की धारणा बनती। अभी तो ऐसा लग रहा है कि वे दोषी हैं और इसलिए ईडी ने उनको तलब किया है।
कांग्रेस कह रही है कि राजनीतिक बदले की भावना से कार्रवाई की जा रही है लेकिन कांग्रेस के नेता इस मामले को सड़कों पर अपने शक्ति प्रदर्शन के बावजूद राजनीतिक शक्ल नहीं दे पाने में नाकाम रहे। अगर कांग्रेस ने भी शरद पवार या ममता बनर्जी के फॉर्मूले को अपनाया होता तो मामला सटीक तरीके से राजनीतिक रूप लेता और सरकार को पसीना आ जाता। कहने की आवश्यकता नहीं कि सरकार को बैकफुट पर लाने का एक बड़ा मौका कांग्रेस ने गंवा दिया। राहुल गांधी के समर्थन में कांग्रेस के नेताओं और कार्यकर्ताओं ने जो शक्ति प्रदर्शन किया, वह महज अपने नेता की भक्ति का प्रदर्शन साबित हुआ जिससे जनता का या जनता के सरोकारों का रत्तीभर जुड़ाव नहीं है।
बहरहाल, कांग्रेस ने तय किया है कि 23 जून को ईडी के समक्ष सोनिया गांधी की पेशी से पहले और भी बड़ा प्रदर्शन किया जाएगा। हालांकि कांग्रेस नेता सोनिया की पेशी को लेकर आशंकित हैं। कोरोना संक्रमित होने के बाद उनकी तबीयत और बिगड़ी है जिसकी वजह से उन्हें अस्पताल में दाखिल कराया गया है। अगर वे ठीक भी हो जाती हैं तो पता नहीं वे इस स्थिति में होंगी या नहीं कि ईडी के सामने पेश होकर घंटों तक पूछताछ का सामना कर सके। हो सकता है कि सोनिया गांधी की पेशी के लिए ईडी से और समय मांगा जाए। लेकिन जब भी उनकी पेशी होगी तो कांग्रेस बड़ा प्रदर्शन करेगी।
लेकिन सवाल यह भी है कि अगर ईडी ने राहुल गांधी को गिरफ्तार किया तो क्या होगा? लंबी पूछताछ के बाद नेताओं और आरोपियों को गिरफ्तार करने का ईडी का रिकॉर्ड है इसीलिए कांग्रेस नेता इस आशंका से भी इंकार नहीं कर रहे हैं। अगर ऐसा हुआ तो पूरी राजनीति ही बदल जाएगी। तब सिर्फ दिल्ली में ही नहीं, बल्कि देशभर में कांग्रेस इसी तरह का प्रदर्शन करेगी।
मगर सवाल यही है कि सबसे बडी विपक्षी पार्टी का फर्ज निभाते हुए कांग्रेस महंगाई, बेरोजगारी जैसे आम जनता से जुड़े सवालों, सरकार के संविधान विरोधी फैसलों और देश के सरकारी संसाधनों को बेलगाम तरीके से निजी हाथों में सौंपने के खिलाफ कब सड़कों पर उतरेगी?
(इस लेख में व्यक्त विचार/ विश्लेषण लेखक के निजी हैं। इसमें शामिल तथ्य तथा विचार/ विश्लेषण 'वेबदुनिया' के नहीं हैं और 'वेबदुनिया' इसकी कोई जिम्मेदारी नहीं लेती है।)