भारत में अभी भी पकौड़े और चाय में बहुत स्कोप है साहब

डॉ. नीलम महेंद्र
'साधु ऐसा चाहिए जैसा सूप सुभाय। सार-सार को गहि रहै थोथा दे उड़ाय।।' कबीरदासजी भले ही यह कह गए हों, लेकिन आज सोशल मीडिया का जमाना है, जहां किसी भी बात पर ट्रेडिंग और ट्रोलिंग का चलन है। कहने का आशय तो आप समझ ही चुके होंगे।
 
 
जी हां, विषय है मोदीजी का वह बयान जिसमें वे 'पकौड़े बेचने' को रोजगार की संज्ञा दे रहे हैं। हालांकि इस पर देशभर में विभिन्न प्रतिक्रियाएं आईं लेकिन सबसे अधिक ध्यान आकर्षित किया देश के पूर्व वित्तमंत्री पी. चिदंबरम के बयान ने जिसमें वे इस क्रम में भीख मांगने को भी रोजगार कह रहे हैं।
 
 
विपक्ष में होने के नाते उनसे अपनी विरोधी पार्टी के प्रधानमंत्री के बयानों का विरोध अपेक्षित भी है और स्वीकार्य भी किंतु देश के पूर्व वित्तमंत्री होने के नाते उनका विरोध तर्कयुक्त एवं युक्तिसंगत हो, इसकी भी अपेक्षा है। यह तो असंभव है कि वे रोजगार और भीख मांगने के अंतर को न समझते हों लेकिन फिर भी इस प्रकार के स्तरहीन तर्कों से विरोध केवल राजनीति के गिरते स्तर को ही दर्शाता है।
 
 
सिर्फ चिदंबरम ही नहीं, देश के अनेक नौजवानों ने पकौड़ों के ठेले लगाकर प्रधानमंत्री के इस बयान का विरोध किया। हार्दिक पटेल ने तो सभी हदें पार करते हुए यहां तक कहा कि इस प्रकार की सलाह तो एक चाय वाला ही दे सकता है। वैसे 'आरक्षण की भीख' के अधिकार के लिए लड़ने वाले एक 24 साल के नौजवान से भी शायद इससे बेहतर प्रतिक्रिया की अपेक्षा नहीं थी।
 
दरअसल, जो लोग इस प्रकार की बयानबाजी कर रहे हैं, वे यह भूल रहे हैं कि इस धरती के हर मानव का सिर उठाकर स्वाभिमान से अपनी जीविका कमाना केवल उसका अधिकार ही नहीं है जिसके लिए वो सरकार को जिम्मेदार मानते हैं बल्कि यह तो उसका स्वयं अपने और अपने परिवार के प्रति उसका दायित्व भी है। 'गरीब पैदा होना आपकी गलती नहीं है लेकिन गरीब मरना आपका अपराध है : बिल गेट्स'- माइक्रोसॉफ्ट के अध्यक्ष एवं पर्सनल कम्प्यूटर क्रांति के अग्रिम उद्यमी के ये शब्द अपने भीतर कहने के लिए कम लेकिन समझने के लिए काफी कुछ समेटे हैं।
 
 
यह बात सही है कि हमारे देश में बेरोजगारी एक बहुत ही बड़ी समस्या है लेकिन पूरे विश्व में एक हमारे ही देश में बेरोजगारी की समस्या हो, ऐसा नहीं है। लेकिन यहां हम केवल अपने देश की बात करते हैं। तो सबसे मूल प्रश्न यह है कि स्वामी विवेकानंद के इस देश का नौजवान आज आत्मनिर्भर होने के लिए सरकार पर निर्भर क्यों है? वो युवा जो अपनी भुजाओं की ताकत से अपना ही नहीं बल्कि देश का भविष्य भी बदल सकता है, वो आज अपनी क्षमताओं, अपनी ताकत, अपनी योग्यता, अपने स्वाभिमान सभी कुछ ताक पर रखकर एक चपरासी तक की सरकारी नौकरी के लिए लाखों की संख्या में आवेदन क्यों करता है? जिस देश में जाति व्यवस्था आज भी केवल एक राजनीतिक हथियार नहीं बल्कि समाज में अमीर-गरीब से परे ऊंच-नीच का आधार है, उस देश में ब्राह्मण, राजपूत, ठाकुर आदि जातियों तक के युवकों में सरकारी चपरासी तक बनने की होड़ क्यों लग जाती है?
 
ईमानदारी से सोचकर देखिए कि यह समस्या बेरोजगारी की नहीं, मक्कारी की है जनाब, क्योंकि आज सबको हराम की दाढ़ लग चुकी है। सबको बिना काम व बिना मेहनत के सरकारी तनख्वाह चाहिए और इसलिए प्रधानमंत्री का यह बयान उन लोगों को ही बुरा लगा, जो बेरोजगार बैठकर सरकार और अपने नसीब को तो कोस सकते हैं, जाति और धर्म का कार्ड खेल सकते हैं लेकिन गीता पर विश्वास नहीं रखते, कर्म से अपना और अपने देश का नसीब बदलने में नहीं, देश को कोसने में समय बर्बाद कर सकते हैं।
 
 
शायद बहुत कम लोग जानते होंगे कि रिलायंस समूह, जो कि आज देश का सबसे बड़ा औद्योगिक घराना है, उसकी शुरुआत पकौड़े बेचने से हुई थी। जी हां, अपने शुरुआती दिनों में धीरूभाई अंबानी सप्ताहांत में गिरनार की पहाड़ियों पर तीर्थयात्रियों को पकौड़े बेचा करते थे! स्वयं गांधीजी कहते थे कि कोई भी काम छोटा या बड़ा नहीं होता, सोच होती है।
 
आज जरूरत देश के नौजवानों को अपनी सोच बदलने की है। आज समय इंतजार करने का नहीं उठ खड़े होने का है। एक दिन में कोई टाटा-बिड़ला नहीं बनता और न ही बिना संघर्ष के कोई अदानी या अंबानी बनता है। बिल गेट्स, धीरूभाई अंबानी, जमशेदजी टाटा जैसे लोगों ने अपनी अपनी सरकारों की ओर ताकने के बजाय खुद अपने लिए ही नहीं, बल्कि देश में लाखों लोगों के लिए रोजगार के अवसर पैदा कर दिए।
 
 
तो आवश्यकता है देश के वर्तमान परिप्रेक्ष्य में प्रधानमंत्री की बात समझने की, न कि तर्कहीन बातें करने की। इस बात को समझने की कि 'जीतने वाले कोई अलग काम नहीं करते बल्कि उसी काम को 'अलग तरीके' से करते हैं', शिव खेड़ा।
 
वैसे भी अगर इस देश का एक नौजवान पकौड़े बेचकर विश्व के पटल पर अपनी दस्तक दे सकता है और एक चाय वाला प्रधानमंत्री बन सकता है तो विशेष बात यह है कि भारत में अभी भी पकौड़े और चाय में बहुत स्कोप है।
 
 
और मोदीजी के विरोधियों को एक सलाह कि वे 'मोदी-विरोध' जरा संभलकर करें, क्योंकि मोदी भारतीय चाय, खिचड़ी और योग को विश्व में स्वीकार्यता दिलाने का श्रेय पहले ही ले चुके हैं और अब उनके विरोधी भारतीय पकौड़ों को भी वैश्विक पहचान दिलाने का श्रेय उन्हीं के नाम करने पर तुले हैं।
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