1974 के जिस बिहार आंदोलन ने देश में दूसरी आजादी को स्थापित किया, उसकी कल्पना जयप्रकाश नारायण की अगुआई के बिना नहीं की जा सकती है। इस आंदोलन में तब की सत्ताधारी कांग्रेस और वामपंथी दलों के अलावा तकरीबन समूचे राजनीतिक परिदृश्य ने साथ दिया था।
दिलचस्प यह है कि 4 नवंबर 1974 की पटना की रैली ना करना करने देने के लिए तत्कालीन इंदिरा सरकार ने हर हथकंडा अपनाया। जेपी पर लाठीचार्ज भी हुआ। इसकी पूरे देश ने निंदा की, सिवा मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी और भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के। और तो और कांग्रेस कार्यसमिति के तत्कालीन मुखर सदस्य चंद्रशेखर, जो बाद में प्रधानमंत्री भी बने, की अगुआई में जेपी के आंदोलन के समर्थन में पचास कांग्रेसी सांसद उतर आए।
जेपी ने उन दिनों इन सांसदों को बातचीत के लिए बुलाया था। इससे नाराज इंदिरा गांधी ने चंद्रशेखर समेत अपने तमाम नेताओं को भी गिरफ्तार किया था। और तो और जेपी की चार नवंबर की रैली के जवाब में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी और कांग्रेस के तत्कालीन अध्यक्ष देवकांत बरुआ की अगुआई में दिल्ली में भी रैली हुई। यहां यह बता देना जरूरी है कि असम के रहने वाले देवकांत बरुआ ने तब इंदिरा इज इंडिया का नारा दिया था।
देश की दूसरी आजादी की लड़ाई के विरोध में जो कम्युनिस्ट पार्टियां जेपी का विरोध कर रही थीं, उनकी विचारधारा से जेपी एक दौर में काफी प्रभावित रहे थे। शिकागो में पढ़ाई करते वक्त 1923 में युवा जेपी का संपर्क पोलैंड निवासी एक यहूदी अब्राहम लेंडी से हुआ था, जो अमेरिकी कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्य थे। लेंडी और उनकी टीम कुछ साल पहले तक रूस में जारी जारशाही के खिलाफ अमेरिका में कम्युनिस्ट आंदोलन चला चुके थे।
द स्टेट्समैन के संपादक रहे अजित भट्टाचार्य ने जेपी की जीवनी लिखी है। जेपी शीर्षक से प्रकाशित इस जीवनी के मुताबिक लेंडी के चलते ना सिर्फ जेपी शिकागो की मार्क्सवादी स्टडी सर्किल से जुड़े, बल्कि ‘पूंजी’ के तीनों भागों के साथ ही फ्रेडरिक एंगेल्स समेत वहां तब तक उपलब्ध कम्युनिस्ट साहित्य भी पढ़ लिया। लेंडी के ही जरिए जेपी की मुलाकात अमेरिका के उन दिनों के मशहूर मजदूर नेता मैनुअल गोमेज से भी हुई। जेपी ने वहां हड़ताल आयोजित करने में गोमेज की मदद भी की थी।
शिकागो में कम्युनिस्ट स्टडी सर्किल एक टेलर की दुकान पर चलता था, जहां सक्रिय सभी कम्युनिस्ट कार्यकर्ता और नेता मिलते थे। वहां एक प्रवासी रूसी व्यक्ति भी आता था, जो रूसी अखबारों और पत्रिकाओं से जरूरी कम्युनिस्ट साहित्य का रूसी भाषा से अंग्रेजी में अनुवाद करके स्थानीय अखबारों के साथ ही पुस्तिकाएं छपवाता था। वहीं पर लेंडी के सहयोग से जेपी ने मानवेंद्र नाथ राय के भारत के बारे में विचारों और कामों से परिचय हासिल किया। लेंडी से संपर्क में आने के बाद जेपी मानने लगे थे कि अमेरिकी पूंजीवादी राजनीतिक व्यवस्था का एकमात्र इलाज मार्क्सवाद ही है।
मानवेंद्र नाथ राय के साहित्य से परिचित होने के बाद जेपी मानने लगे थे कि राय ने भारत को लेकर कहीं बेहतर वैज्ञानिक कार्य किया है। अजित भट्टाचार्य ने लिखा है, “इसका माध्यम बने वे पर्चे (राय के लिखे हुए), जिनमें गांधीजी के असहयोग आंदोलन को बेकार साबित किया गया था। एमएन राय ने कहीं ज्यादा वैज्ञानिक तरीके से भारत की गड़बड़ियों का विश्लेषण किया था। इस पर्चे में उन्होंने भारत के भविष्य की ऐतिहासिक आधार पर बेहतर तस्वीर पेश की थी। एक भारतीय का लेनिन का साथी होने और कम्युनिस्ट इंटरनेशनल को अपने विचारों से प्रभावित करने एवं क्रांति को प्रेरित करने के लिए चीन से लेकर मैक्सिको तक की यात्रा करने के चलते जेपी की नजरों में एमएन राय हीरो बन चुके थे।”
ऐसे में सवाल यह है कि जो जेपी मार्क्सवाद के इतने करीबी बन गए थे, उनके आंदोलन को मार्क्सवादियों ने क्यों नहीं समर्थन दिया और उसके खिलाफ में वे हद से भी आगे निकल गए। इसका जवाब खोजने से पहले हमें यह जान लेना चाहिए कि जेपी जब मार्क्सवाद से प्रभावित हुए थे, तब तक सोवियत संघ से स्टालिन की ज्यादतियों की खबरें नहीं आ रही थीं। दूसरी बात यह है कि जेपी ने मार्क्स का भले ही गहरे तक अध्ययन किया, लेकिन वे गांधी और उनकी राह को नहीं भूले।
बहुत कम लोगों को पता है कि जब जेपी समाजशास्त्र से एमए कर रहे थे, तभी ओहियो विश्वविद्यालय में उन्हें असिस्टेंट प्रोफेसर की नौकरी मिल गई थी। कम्युनिस्टों से मोहभंग को लेकर उनके ही शिष्य रहे डी ओजोर ने अपनी राय 1969 में वाशिंगटन में दिए एक इंटरव्यू में दी है। ओजोर ने यह इंटरव्यू गांधी विद्या संस्थान के नागेश्वर प्रसाद को मार्च 1968 में दिया था।
इस इंटरव्यू के कुछ अंश अजित भट्टाचार्य ने अपनी पुस्तक में उद्धृत भी किया है। ओजोर ने कहा था, “मेरे (ओजोर) और उनके (जेपी) के बीच एक बार दिलचस्प बहस हुई। इस बहस में उन्होंने माना कि मार्क्सवाद से बेहद प्रभावित होने के बावजूद जितने भी कम्युनिस्ट लोगों से वे मिले, उनसे वे प्रभावित नहीं हुए।
उन्होंने मुझसे बताया था कि उन्हें सबसे ज्यादा निराशा कम्युनिस्टों की नैतिकता, चरित्र और निष्ठा से हुई। उन्होंने कम्युनिस्टों को जैसा देखा, उससे वे उन लोगों को नापसंद करते थे। बौद्धिक तौर पर वे मार्क्सवाद के फंदे में फंस चुके थे, लेकिन वे गहरे तक नैतिक भावना वाले व्यक्ति थे। इससे वे कभी बाहर नहीं निकल सके। असल में वे कभी-भी एक भौतिकवादी के रूप में रूपांतरित नहीं हो सके।”
इसी इंटरव्यू में ओजोर ने आगे बताया है, “और तो और जिस व्यक्ति ने उन्हें (जेपी को) विंस्कोंसिन और शिकागो में साम्यवाद का पाठ पढ़ाया, उसमें ऐसी नैतिकता नहीं थी। उसे अपने परिवार के देखभाल की कोई परवाह नहीं थी। उसमें सेक्स को लेकर भी नैतिकता नहीं थी। जेपी कहा भी करते थे कि जिसने उन्हें बौद्धिक स्तर पर सबसे ज्यादा प्रभावित किया, उसी ने उन्हें नैतिकता के स्तर पर सबसे ज्यादा निराश किया। जब कम्युनिस्ट लोगों को उन्होंने सामान्य व्यक्ति के तौर पर देखा और उनमें सत्ता की घोर लिप्सा देखी, तब उन्हें काफी निराशा हुई।”
विंस्कोंसिन और शिकागो में मार्क्सवाद का गहन अध्ययन करने वाले जेपी मार्क्सवादियों के व्यक्तिगत जीवन की निष्ठाहीनता और सत्ता लिप्सा से इतना निराश हुए कि उन्होंने ताजिंदगी कभी मार्क्सवादी लोगों को लेकर सहज नहीं हो पाए। ओजोर के शब्दों में कहें तो क्रांतिकारी दर्शन के अध्ययन के बावजूद वे गांधीवादी शुद्धता से कभी मुक्त नहीं हो पाए।
यह कहना ज्यादा क्रूर होगा कि भारतीय वामपंथ के सभी अनुयायी भी ऐसे ही होंगे, जैसा जेपी ने महसूस किया। लेकिन जेपी के अनुयायी आज अगर सबसे ज्यादा सहज हैं तो वाम विचारधारा के साथ। आज वे सांप्रदायिकता के बहाने भाजपा पर भी खूब हमले कर रहे हैं। 74 के आंदोलन में जेपी पर ऐसे ही आरोप कांग्रेस और भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की ओर से लगे थे। तब जेपी ने उस आरोप का जो जवाब दिया था, उसे भी देखना चाहिए।
अजित भट्टाचार्य की जीवनी पुस्तक के मुताबिक जेपी ने कहा था, “जो संप्रदायवाद के विषय में भाषण देते हैं, वे खुद निर्लज्ज संप्रदायवादी हैं। कुछ लोग अपने को अहिंसक बताते हैं, वे हिंसक संगठनों का पक्ष लेते हैं। कई जो भ्रष्टाचार के विरुद्ध बातें करते हैं, वे भ्रष्ट लोगों का सहयोग कर रहे हैं।” जन्मदिन पर दूसरी आजादी के नायक के इस रूप को भी याद करना जरूरी है।