जर्मनी क्या हमेशा के लिए बदल जाएगा...

अनवर जमाल अशरफ
म्यूनिख और इसके आसपास के इलाकों में लगातार हमलों ने पूरी दुनिया का ध्यान जर्मनी की तरफ खींचा है और लगने लगा है कि जर्मनी अब एक सुरक्षित देश नहीं रह गया है। हफ्तेभर के अंदर देश के सबसे धनी और मशहूर प्रांत बवेरिया ने तीन हमले देखे। इसकी वजह से जर्मनी के अंदर भी लोगों में सदमा और खौफ है। क्या जर्मनी इन हमलों के बाद हमेशा के लिए बदल जाएगा।
इन हमलों से ठीक पहले फ्रांस के नीस शहर पर हमला हुआ। उससे पहले ब्रुसेल्स में। यानी यूरोप लगातार हमले झेल रहा है, लेकिन जर्मनी की घटनाएं फ्रांस या बेल्जियम से अलग तरह थीं। सरकार इन्हें 'आतंकवादी' हमलों की श्रेणी में नहीं रख रही है और न ही इन्हें इस्लामिक स्टेट (आईएस) से जोड़ा जा रहा है, पर दहशत फैलाने के लिए ये हमले काफी हैं। खासकर तब, जब इन सारे हमलों के जिम्मेदार शरणार्थी या विदेशी मूल के नागरिक हैं।
 
यूरोप जिस दौर से गुजर रहा है, उसमें तार्किकता पीछे छूट गई है। विदेशी, प्रवासी, शरणार्थी, ईरानी मूल का जर्मन, तुर्क मूल का जर्मन या ऐसे तमाम शब्दों के मायने एक जैसे हो गए हैं। विदेश से आने वाला हर शख्स अब शक की नजर से देखा जाने लगा है, खासकर अगर वह मुस्लिम राष्ट्र से आया है। अगर वह मध्य पूर्व से आया है, तब तो उस पर ज्यादा शक की गुंजाइश बन जाती है।
 
खुले द्वार की नीति पर सवाल : इराक, अफगानिस्तान और सीरिया जैसे देशों के लोग गृहयुद्ध से जान बचाकर पश्चिम देशों में पहुंच रहे हैं। जर्मनी ने 'खुले द्वार की नीति' के तहत 10 लाख से ज्यादा शरणार्थियों को पनाह दी। इसकी वजह से पिछले साल तक चांसलर एंजेला मर्केल की पूरी दुनिया में वाहवाही हुई। म्यूनिख और बर्लिन के रेल स्टेशनों पर लोगों ने 'जर्मनी में आपका स्वागत है' की तख्तियां लेकर शरणार्थियों का स्वागत किया। लेकिन अब तख्तियों के शब्द 'मैर्केल को हटना होगा' में बदल गए हैं।
 
नए साल की पूर्व संध्या पर कोलोन के यौन उत्पीड़न के मामले से लेकर म्यूनिख के शॉपिंग मॉल के हमले तक ने लोगों का नजरिया बदल दिया है। यह बात पीछे छूट गई है कि म्यूनिख का हमलावर जर्मनी में पैदा हुआ, जर्मन नागरिक था, जिसकी मानसिक स्थिति बहुत अच्छी नहीं थी। दहशत के इस माहौल में वह सिर्फ ईरानी मूल का हमलावर बन गया है।
 
बदलेगा शरणार्थी कानून : जर्मनी में शरणार्थियों के लिए जगह बनाने और उनके खिलाफ सख्त कानून की वकालत करने वालों के बीच की खाई बढ़ती जा रही है। बदलते घटनाक्रमों के बाद पहली श्रेणी के लोगों की संख्या भी घट रही है। भले ही जर्मन सरकार ने इस सवाल पर फौरन टिप्पणी से इनकार कर दिया हो लेकिन उसे अब शरणार्थी नीति में बदलाव करना होगा। इस पर चर्चा भी शुरू हो गई है।
 
पहले यूरोपीय संघ ने जर्मनी का साथ नहीं दिया और अब खुद जर्मनी के अंदर भी इस मुद्दे पर चांसलर मर्केल का समर्थन कम होता जा रहा है। राहत की बात यह है कि इस साल पिछले वर्षों के मुकाबले कम शरणार्थी जर्मनी पहुंचे, क्योंकि बाल्कन देशों के रास्ते यूरोप पहुंचने वाली सीमा बंद कर दी गई है। नतीजा यह हुआ है कि इस साल गर्मियों में प्रति माह औसत 16000 लोग ही जर्मन सीमा में प्रवेश कर पाए, जो पिछले साल की तुलना में बहुत कम है।
 
लेकिन यह समाधान नहीं है। यूरोप, खासकर जर्मनी में पहले से ही दसियों लाख शरणार्थी हैं, जिन्हें समाज में मिलाने का काम नहीं हो पा रहा है। सरकारी एजेंसियों ने भी माना है कि बिलकुल अलग पृष्ठभूमि से आने वाले लोगों को जर्मन या यूरोपीय संस्कृति में मिलाना आसान काम नहीं। 
 
शरणार्थियों के लिए नौकरी की आसान शर्तें लागू करने की बात कही गई है, ताकि शरणार्थियों को भत्ता देने के राजकीय बोझ को कम किया जा सके। इसके साथ ही शरणार्थियों के लिए भाषा और इंटीग्रेशन कोर्स अनिवार्य कर दिया गया है, ताकि उन्हें समाज का हिस्सा बनाया जा सके। इन कोर्सों से इनकार करने वालों की शरण रद्द की जा सकती है। इस साल कई जर्मन प्रांतों ने शरणार्थियों को निष्कासित करना भी शुरू कर दिया है।
 
कड़ी होगी सुरक्षा : बवेरिया जर्मनी के सबसे धनी प्रांतों में गिना जाता है, जिसका विदेशियों के साथ मेलजोल का लंबा इतिहास रहा है। यह एक प्रमुख पर्यटन केंद्र है और हर साल यहां लाखों लोग आते हैं। यह शरणार्थियों के लिए जर्मनी का प्रवेश द्वार भी है। म्यूनिख के रास्ते लाखों शरणार्थियों ने जर्मन सीमा में शरण पाई है, लेकिन लगातार तीन हमलों के बाद बवेरिया एहतियात से कदम उठा रहा है। 
 
सितंबर में यहां मशहूर 'अक्टूबर फेस्ट' होने वाला है, जहां बीयर के शौकीन पूरी दुनिया से पहुंचते हैं। राज्य सरकार ने अभी से कह दिया है कि इस मेले में किसी को भी रकसैक लेकर जाने की इजाजत नहीं होगी। यह इस बात का इशारा है कि जर्मनी में सुरक्षा के उपाय कड़े किए जाएंगे। फिलहाल यहां के एयरपोर्टों में यात्रियों के अलावा दूसरे लोगों को भी काफी अंदर तक जाने की इजाजत है, जबकि ट्रेनों में सवारी करते वक्त किसी तरह की सुरक्षा जांच नहीं होती। हो सकता है कि आने वाले दिनों में ये नियम बदले जाएं।
 
मर्केल का भविष्य : राजनीतिक नजरिए से यह पूरा मामला चांसलर मर्केल के सियासी भविष्य से जुड़ा हुआ है। यूरोपीय संघ और शरणार्थियों का विरोध करने वाली पार्टी एएफडी जर्मनी में तेजी से उभर रही है और उसे समर्थन देने वालों की संख्या बढ़ रही है। एएफडी ने इन हमलों का राजनीतिक फायदा उठाने की भी कोशिश की है। हमलों के बाद उसके नेता ट्वीट कर रहे हैं, 'हम हमेशा से कहते आए हैं कि अनियंत्रित प्रवास खतरनाक हो सकता है।'
 
लगातार तीन बार की चांसलर मैर्केल को अभी यह तय करना है कि क्या वे अगले साल (2017) भी चुनाव लड़ेंगी। जवाब उनकी शरणार्थी नीति की सफलता पर निर्भर करेगा। अगर वे इसे किसी तरह काबू कर पाने में कामयाब होती हैं, तो उन्हें एक बार फिर पद मिल सकता है और वह हेलमुट कोल (सबसे लंबे समय तक के जर्मन चांसलर) की बराबरी कर सकती हैं। लेकिन खुदा ना खास्ता, अगर नीस या ब्रुसेल्स जैसी कोई घटना जर्मन सीमा के अंदर हो जाती है, तो उसके साथ ही मर्केल का राजनीतिक जीवन भी समाप्त हो जाएगा।

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