शांति-अशांति, विचार और विचारधारा ये सब मनुष्य के मन में सनातन काल से चलने वाली हलचलें हैं। जैसे प्रकाश में प्राकृतिक प्रवाह के रूप में गति और विस्तार सनातन काल से है, वैसे ही मन और शरीर में भी गति और प्रवाह निरंतर है। अशांत मन शांति को तलाशता है। शांत मन सारी हलचलों को बीज रूप में अपने आप में समाये रखता है। शांति की तलाश का विचार भी मनुष्य के अशांत मन में आया, यानी अशांति के विस्तार के बाद फिर से मूल शांत स्वरूप में आने की सनातन चाह सहज प्राकृतिक क्रम है। शांति मन की प्रकृति पर सनातन अवस्था है जिसमें अशांति का भाव आते ही मन में अशांति से शांति की और जाने का विचार अपने-आप आ जाता है। शांति जीवन के सनातन प्रवाह का बीज है।
सनातन धर्म और विचार सदैव मनुष्य के मन में बीज रूप में ही रहे हैं और रहते आए इसी से सनातन की संज्ञा भी पा गए और समूची धरती के हर हिस्से में अपनी-अपनी तरह से अभिव्यक्त हुए। एक विचार यह भी आया, जो सबको यानी जीव मात्र को स्वत: शांति दे, वह सनातन भाव या सनातन विचार और जो मन में अशांति का भाव लाए, वह सांप्रदायिक विचार। मन, वचन व कर्म को शांत, संयत और प्रकृति से स्वत: ही एकाकार रखे, वह सनातन सत्य विचार और धर्म।
जो विचार मन, वचन और कर्म को निरंतर अशांत स्थिति में ले जाए, वह संस्थागत सांप्रदायिक विचार। शांति हलचलविहीन चित्त की सनातन अवस्था है, जो जीव को प्रकृति से स्वत: ही एकरूप कर देती है। चित्त में शांति जीवनी शक्ति के चैतन्य स्वरूप का जीवंत उदाहरण है। अशांतचित्तता जीवन की चेतना के प्रवाह में अवरोध है। अवरोध क्षणभंगुर ही होते हैं, तभी तो अशांति सनातन नहीं होती। जीव, जीवन का साकार स्वरूप है जिसका एक जीवन क्रम है- जन्म और मृत्यु का अंतहीन सिलसिला।
जन्म साकार है, मृत्यु निराकार में समा जाना है। जन्म होते ही नए-नए विचार की सनातन यात्रा मन में प्रारंभ होती है। हर नए मनुष्य के मन में सनातन विचार प्रवाह स्वयं स्फूर्त रूप से निरंतर होता है। शांति और विचार प्राकृतिक चेतना के प्रवाह हैं। जब विचार को निश्चित स्वरूप में एक विचारधारा के रूप में ढाला जाता है तो अंतहीन मत-मतांतरों की उत्पत्ति होकर विचार के प्राकृतिक प्रवाह में अवरोध से अशांति, असंतोष और अप्राकृतिक संस्थागत व्यवहार की क्षणिक उत्पत्ति होती है। मेरे-तेरे का सांप्रदायिक विचार और संगठनात्मक या संस्थागत व्यवहार मन के विस्तार को संकुचित करने की कोशिश में लग जाता है।
अशांत मन और सांप्रदायिक विचार मनुष्यों के प्राकृतिक स्वरूप को यांत्रिक जड़ता में बदल डालता है। विचारवान मनुष्य का यांत्रिक कठपुतली में बदल जाना मनुष्य की संभावना का असमय खत्म हो जाना है। विचारधाराओं ने विचार को बांधकर मनुष्य को विचार के आधार पर न जाने कितने स्वरूपों में बांटकर मनुष्यों की सनातन ऊर्जा की खपत तेरे-मेरे की संकुचित सोच में खर्च करने का अशांतिमूलक भूल-भुलैया खड़ा कर डाला। शांति और विचार ही सनातन धर्म की प्राकृतिक सभ्यता को निरंतर जारी रखता है। सनातन समय से मानवीय जीवन-मूल्यों की निरंतर उपस्थिति प्रत्येक मनुष्य के मन में बनी रही है। विचार ही इस दुनिया का सनातन सत्य है।
विचारवान मनुष्य ही सनातन समय से अपने जीवन में आई सारी चुनौतियों का सामना करना सीख पाया है। आज के काल में मनुष्य सभ्यता में यांत्रिक समाधान का एक विचार नए स्वरूप में उभरा है। मनुष्य की मदद हेतु या मनुष्य की शक्ति के विस्तार हेतु यंत्रों से मदद लेने का लंबा सिलसिला मनुष्य सभ्यता में निरंतर चलता रहा है। पर अब यांत्रिक सभ्यता का विस्तार इस गति से मनुष्य के जीवन में रच-बस रहा है कि मनुष्य खुद ही यांत्रिक सभ्यता का एक अंश हो गया है। मानवीय संवेदनाओं की बुनियाद पर खड़ी सनातन सभ्यता में जड़वत यांत्रिक सभ्यता जिस रूप में मनुष्यों में जो घुसपैठ करती जा रही है, वह एक बड़ी चुनौती है जिसका समाधान आज के काल के मनुष्यों को विचार और प्रचार के मूल स्वरूप में खोजना होगा।
प्रचार मनुष्य के विचार को प्रचार से प्रभावित कर अंधानुकरण की दिशा में ले जाता है जबकि विचार मनुष्यों को सनातन काल से स्वतंत्रचेता स्वरूप में ही बने रहने की स्वतंत्र ऊर्जा निरंतर प्रदान करते हैं। विचार का सनातन प्रवाह और मशीन से विचार का प्रायोजित संचार- ये आज के काल का सर्वथा नया आयाम है। एक जड़ यंत्र किस बड़े स्वरूप में बिना एक-दूसरे से आपस में मिले ही एक-दूसरे को किस हद तक अशांत या समृद्धशाली कर सकता है, यह आज के काल का नया दृश्य है, जो समूची मानव सभ्यता के सामने आ खड़ा हुआ है। सनातन रूप से स्वतंत्र विचार की जगह संकुचित और प्रायोजित प्रचार तंत्र ने कुछ मनुष्यों में एक नए भ्रम को जन्म दिया है।
आज का मनुष्य विचार से कम और प्रचार से जल्दी प्रभावित हो जाता है, यह भ्रम आज फैलने लगा है। आज सशरीर या प्रत्यक्ष रूप से विचार-विनिमय के बजाय यांत्रिक उपकरण या तकनीक द्वारा विचार का संचार कर मनुष्य को प्रभावित करने के नाते नए-नए उपकरण मनुष्य को सुलभता से उपलब्ध होते जा रहे हैं। हमारी धरती में जहां मनुष्य नहीं है, वहां प्राकृतिक रूप से शांति है। किसी किसम का कोलाहल नहीं मिलता। एकदम नीरवता हर कहीं व्याप्त होती है। आनंददायक अनुभव से मुलाकात होती है और हम आंतरिक और बाह्य शांति में डूब जाते हैं। हर मनुष्य में अपनी चेतना का भाव मूलत: मिलता है, पर हम सब अपनी चेतना को अन्य समकालीन जीवों की चेतना से एकाकार नहीं कर पाते, इसी से मन में असंतोष या अशांति का भाव पैदा होता है और हम सब शांति की खोज यात्रा के आजीवन यात्री हो जाते हैं।
धरती से आकाश तक जो हवा, पानी और प्रकाश का विस्तार है, वह सब हमारे अंदर भी उसी रूप में मौजूद है। तीनों कभी किसी से भेद नहीं करते, तीनों की अनंत और सनातन ऊर्जा है। तीनों का अपना-अपना पर सम्मिलित सनातन धर्म है। तीनों ने मिलकर सनातन समय से जीवन को निरंतर जीवन चक्र दिया। विचार और शांति दोनों ही निराकार हैं। अशांत स्थिति सनातन न होकर किसी तात्कालिक अवरोध, लोभ-लालच और चाहना के वशीभूत अविवेकी मन की क्षणिक हलचल है।
धर्म-कर्म और विचार-विमर्श सनातन काल से मनुष्य की अंतहीन हलचलें हैं, जो मनुष्य को जीवन जीने का मूल आधार प्रदान करती है। मन और शरीर की आधारभूमि ही जगत में जीवन का सनातन प्रवाह है जिसे कोई मनुष्य या विचार बांध नहीं पाता। हर विचार बिंदु में वैसी ही बीज शक्ति होती है, जैसी पानी की बूंद में जीवनी शक्ति है। जैसे असंख्य बूंदें मिलकर साकार महासागर अभिव्यक्त करती हैं,
वैसे ही निराकार विचार, साकार मनुष्यों में जीवन की सनातन चेतना को, हर मनुष्य के विचार प्रवाह को सनातन शांति के बीज स्वरूप में बनाए रखता है। अशांत स्थिति के अवरोध क्षणिक हलचलों को पैदा जरूर करते हैं, परंतु अवरोध अल्पकालीन ही होते हैं जबकि शांति चित्त की सनातन आधारभूमि है। चित्त में शांति ही जगत में जीवन का सनातन बीज स्वरूप है।
(इस लेख में व्यक्त विचार/विश्लेषण लेखक के निजी हैं। 'वेबदुनिया' इसकी कोई ज़िम्मेदारी नहीं लेती है।)