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आपातकाल को क्यों याद रखना चाहिए?

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अनिल जैन

25 जून 1975 आजाद भारत के इतिहास की वह तारीख है, जब तत्कालीन हुकूमत ने देश में आपातकाल लागू कर लोकतंत्र और नागरिक आजादी को बंधक बना लिया था। पूरे 42 साल हो गए हैं उस दौर को, लेकिन उसकी काली यादें अब भी लोगों के जेहन में अक्सर ताजा हो उठती हैं। उन यादों को जिंदा रखने का काफी कुछ श्रेय उन लोगों को जाता है, जो आज देश की हुकूमत चला रहे हैं। उनका अंदाज-ए-हुकूमत लोगों में आशंका पैदा करता रहता है कि देश एक बार फिर आपातकाल की ओर बढ़ रहा है। 
 
2 साल पहले आपातकाल के 4 दशक पूरे होने के मौके पर उस पूरे कालखंड को शिद्दत से याद करते हुए भारतीय जनता पार्टी के वरिष्ठ नेता और देश के पूर्व उपप्रधानमंत्री लालकृष्ण आडवाणी ने भी देश में फिर से आपातकाल जैसे हालात पैदा होने का अंदेशा जताया था। 
 
आडवाणी ने एक अंग्रेजी अखबार को दिए साक्षात्कार में देश को आगाह किया था कि लोकतंत्र को कुचलने में सक्षम ताकतें आज पहले से अधिक ताकतवर हैं और पूरे विश्वास के साथ यह नहीं कहा जा सकता कि आपातकाल जैसी घटना फिर दोहराई नहीं जा सकतीं। बकौल आडवाणी, 'भारत का राजनीतिक तंत्र अभी भी आपातकाल की घटना के मायने पूरी तरह से समझ नहीं सका है और मैं इस बात की आशंका से इंकार नहीं करता कि भविष्य में भी इसी तरह से आपातकालीन परिस्थितियां पैदा कर नागरिक अधिकारों का हनन किया जा सकता है। आज मीडिया पहले से अधिक सतर्क है, लेकिन क्या वह लोकतंत्र के प्रति प्रतिबद्ध भी है? कहा नहीं जा सकता। सिविल सोसायटी ने भी जो उम्मीदें जगाई थीं, उन्हें वे पूरी नहीं कर सकी हैं। लोकतंत्र के सुचारु संचालन में जिन संस्थाओं की भूमिका होती है, आज भारत में उनमें से केवल न्यायपालिका को ही अन्य संस्थाओं से अधिक जिम्मेदार ठहराया जा सकता है।' 
 
आपातकाल कैसा था और उसके मायने क्या हैं? दरअसल, यह उस पीढ़ी को नहीं मालूम, जो 70 के दशक में या उसके बाद पैदा हुई है और आज या तो जवान है या प्रौढ़ हो चुकी है। लेकिन उस पीढ़ी को यह जानना जरूरी है और उसे जानना ही चाहिए कि आपातकाल क्या था?
 
60 और 70 के दशक में विपक्षी दलों के कार्यकर्ताओं खासकर समाजवादियों के बीच सरकार विरोधी दो नारे खूब प्रचलित थे। एक था- 'लाठी-गोली-सेंट्रल जेल, जालिमों का अंतिम खेल' और दूसरा था- 'दम है कितना दमन में तेरे, देखा है और देखेंगे- कितनी ऊंची जेल तुम्हारी, देखी है और देखेंगे।' दोनों ही नारे आपातकाल के दौर में खूब चरितार्थ हुए। विपक्षी दलों के तमाम नेता-कार्यकर्ता, सरकार से असहमति रखने वाले बुद्धिजीवी, लेखक, कलाकार, पत्रकार आदि जेलों में ठूंस दिए गए थे। यही नहीं, तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की रीति-नीति का विरोध करने वाले सत्तारुढ़ कांग्रेस के भी कुछ दिग्गज नेता जेल की सींखचों के पीछे भेज दिए गए थे। 
 
दरअसल, बिहार और गुजरात के छात्र आंदोलनों ने इंदिरा गांधी की हुकूमत की चूलें हिला दी थीं और उसी दौरान समाजवादी नेता राजनारायण की चुनाव याचिका पर आए इलाहाबाद हाईकोर्ट के फैसले ने आग में घी काम किया था। इसी सबसे घबराकर इंदिरा गांधी ने अपनी सत्ता बचाने के लिए देश पर आपातकाल थोपा था। 
 
इंदिरा गांधी इतनी सशंकित और भयाक्रांत हो चुकी थीं कि आपातकाल लागू करने से कुछ घंटे पहले ही उन्होंने अपने विश्वस्त और पश्चिम बंगाल के तत्कालीन मुख्यमंत्री सिद्धार्थशंकर रे से मंत्रणा के दौरान आशंका जताई थी कि वे अमेरिकी राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन की 'हेट लिस्ट' में हैं और कहीं ऐसा तो नहीं कि निक्सन उनकी सरकार का भी उसी तरह तख्तापलट करवा दें, जैसा कि उन्होंने चिली के राष्ट्रपति सल्वादोर अलेंदे का किया है। 
 
उन्हें इस बात की भी शंका थी कि उनके मंत्रिमंडल में शामिल कुछ लोग सीआईए के एजेंट हो सकते हैं। उनके शक और डर का आलम यह था कि उन्होंने उस समय के उत्तरप्रदेश के कांग्रेसी मुख्यमंत्री हेमवती नंदन बहुगुणा के बंगले पर भी जासूसी के लिए आईबी का डीएसपी रैंक का अधिकारी तैनात कर दिया था।
 
आपातकाल की घोषणा के साथ ही सभी नागरिकों के मौलिक अधिकार निलंबित कर दिए गए। अभिव्यक्ति का ही नहीं, लोगों के पास जीवन का अधिकार भी नहीं रह गया। 25 जून की रात से ही देशभर में विपक्षी नेताओं-कार्यकर्ताओं की गिरफ्तारी का दौर शुरू हो गया। जयप्रकाश नारायण, मोरारजी देसाई, चौधरी चरणसिंह, मधु लिमये, अटलबिहारी वाजपेयी, बीजू पटनायक, लालकृष्ण आडवाणी, मधु दंडवते आदि तमाम विपक्षी नेता मीसा यानी आंतरिक सुरक्षा कानून के तहत गिरफ्तार कर लिए। जो लोग पुलिस से बचकर भूमिगत हो गए, पुलिस ने उनके परिजनों को परेशान करना शुरू कर दिया। किसी के पिता को, तो किसी की पत्नी या भाई को गिरफ्तार कर लिया गया। गिरफ्तारी का आधार तैयार करने के लिए तरह-तरह के मनगढ़ंत और अविश्वसनीय हास्यास्पद आरोप लगाए गए। 
 
इलाहाबाद विश्वविद्यालय के हिन्दी विभागाध्यक्ष डॉ. रघुवंश को रेल की पटरियां उखाड़ने का आरोप लगाकर गिरफ्तार किया गया जबकि हकीकत यह थी कि उनके दोनों हाथ भी ठीक से काम नहीं करते थे। इसी तरह मध्यप्रदेश के एक बुजुर्ग समाजवादी कार्यकर्ता पर आरोप लगाया गया कि वे टेलीफोन के खंभे पर चढ़कर तार काट रहे थे। 
 
प्रख्यात कवयित्री महादेवी वर्मा को उनकी लिखी बहुत पुरानी एक कविता का मनमाना अर्थ लगाकर गिरफ्तार करने की तैयारी इलाहाबाद के जिला प्रशासन ने कर ली थी। लेकिन जब श्रीमती गांधी को उनके करीबी एक पत्रकार ने यह जानकारी देने के साथ ही याद दिलाया कि महादेवीजी पंडित नेहरू को अपने भाई समान मानती थीं, तब कहीं जाकर श्रीमती गांधी के हस्तक्षेप से उनकी गिरफ्तारी रुकी। 
 
बात गिरफ्तारी तक ही सीमित नहीं थी, जेलों में बंद कार्यकर्ताओं को तरह-तरह से शारीरिक और मानसिक यातनाएं देने का सिलसिला भी शुरू हो गया। कहीं-कहीं तो निर्वस्त्र कर पिटाई करने, पेशाब पिलाने, उन्हें खूंखार अपराधी और मानसिक रूप से विक्षिप्त कैदियों के साथ रखने और उनकी बैरकों सांप-बिच्छू और पागल कुत्ते छोड़ने जैसे हथकंडे भी अपनाए गए। ऐसी ही यातनाओं के परिणामस्वरूप कई लोगों की जेलों में ही मौत हो गई, तो कई लोग गंभीर बीमारियों के शिकार हो गए। सोशलिस्ट पार्टी की कार्यकर्ता रहीं कन्नड़ फिल्मों की अभिनेत्री स्नेहलता रेड्डी का नाम ऐसे ही लोगों में शुमार है जिनकी मौत जेल में हो गई थी। 
 
समाजवादी नेता जॉर्ज फर्नांडीस आपातकाल की घोषणा होते ही भूमिगत हो गए थे और उन्होंने अपने कुछ अन्य भूमिगत सहयोगियों की मदद से तानाशाही का मुकाबला करने का कार्यक्रम बनाया था। सरकार उनके इस अभियान को लेकर बुरी तरह आतंकित थी, लिहाजा जॉर्ज की गिरफ्तारी के लिए दबाव बनाने के मकसद से उनके भाई लॉरेंस और माइकल फर्नांडीस को पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया। उनसे जॉर्ज का सुराग लगाने के लिए उन्हें जेल में बुरी तरह से यातनाएं दी गईं। 
 
कई मीसाबंदियों ने अपने-अपने राज्यों के हाईकोर्ट में बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका दायर की थी, लेकिन सभी स्थानों पर सरकार ने एक जैसा जवाब दिया कि आपातकाल में सभी मौलिक अधिकार निलंबित हैं और इसलिए किसी भी बंदी को ऐसी याचिका दायर करने का अधिकार नहीं है। जिन हाईकोर्टों ने सरकारी आपत्ति को रद्द करते हुए याचिकाकर्ताओं के पक्ष में निर्णय दिए, सरकार ने उनके विरुद्ध न केवल सुप्रीम कोर्ट में अपील की बल्कि उसने इन याचिकाओं के पक्ष में फैसला देने वाले न्यायाधीशों को दंडित भी किया। 
 
असुरक्षा बोध से बुरी तरह ग्रस्त श्रीमती गांधी को उस दौर में अगर सर्वाधिक विश्वास किसी पर था तो वे थे उनके छोटे बेटे संजय गांधी। संविधानेत्तर सत्ता केंद्र के तौर पर उभरे संजय गांधी आपातकाल के पूरे दौर में सरकारी आतंक के पर्याय बन गए थे। सबसे पहले उन्होंने दिल्ली को सुंदर बनाने का बीड़ा उठाया। इस सिलसिले में उनके बदमिजाज आवारा दोस्तों की सलाह पर दिल्ली को सुंदर बनाने के नाम पर लाल किला और जामा मस्जिद के नजदीक तुर्कमान गेट के आसपास की बस्तियों को बुलडोजरों की मदद से उजाड़ दिया गया जिससे बड़ी तादाद में लोग बेघर हो गए। कुछ लोगों ने प्रतिरोध करने की कोशिश की तो उन्हें गोलियों से भून दिया गया।
 
अपनी प्रगतिशील छवि बनाने के लिए संजय गांधी ने उस दौर में इंदिरा गांधी के 20 सूत्री कार्यक्रम से इतर 5 सूत्री कार्यक्रम पेश किया था जिसके प्रचार-प्रसार में पूरी सरकारी मशीनरी झोंक दी गई थी। उस बहुचर्चित 5 सूत्री कार्यक्रम में सबसे ज्यादा जोर परिवार नियोजन पर था। 
 
इस कार्यक्रम पर अमल के लिए पुरुषों और महिलाओं की नसबंदी के लिए पूरा सरकारी अमला झोंक दिया गया था। अपने राजनीतिक आकाओं को खुश करने के लिए जिला कलेक्टरों और अन्य प्रशासनिक अधिकारियों पर ज्यादा से ज्यादा लोगों की नसबंदी करने का ऐसा जुनून सवार हुआ कि वे पुलिस की मदद से रात में गांव के गांव घिरवाकर लोगों की बलात् नसबंदी कराने लगे। आंकड़े बढ़ाने की होड़ के चलते इस सिलसिले में बूढ़ों-बच्चों, अविवाहित युवक-युवतियों तक की जबरन नसबंदी करा दी गई। सर्वत्र त्राहि-त्राहि मच गई थी, लेकिन कहीं से भी प्रतिरोध की कोई आवाज नहीं उठ रही थी। 
 
इस प्रकार उस कालखंड की ऐसी हजारों दारुण कथाएं हैं। कुल मिलाकर उस दौर में हर तरफ आतंक, अत्याचार और दमन का बोलबाला था। सर्वाधिक परेशानी का सामना उन परिवारों की महिलाओं, बच्चों और बुजुर्गों को करना पड़ा जिनके घर के कमाने वाले सदस्य बगैर किसी अपराध के जेलों में ठूंस दिए गए थे। 
 
आखिरकार पूरे 21 महीने बाद जब चुनाव हुए तो जनता ने अपने मताधिकार के जरिए इस तानाशाही के खिलाफ शांतिपूर्ण ढंग से ऐतिहासिक बगावत की और देश को आपातकाल के अभिशाप से मुक्ति मिली, लेकिन उन 21 महीनों में जो जख्म देश के लोकतंत्र को मिले उनमें से कई जख्म आज भी हरे हैं। 
 
यह सच है कि आपातकाल के बाद से अब तक लोकतांत्रिक व्यवस्था तो चली आ रही है, हालांकि सरकारों की जनविरोधी विरोधी नीतियों के प्रतिरोध का दमन करने की प्रवृत्ति अभी भी कायम है। लेकिन किसी भी सरकार ने नागरिक अधिकारों के हनन का वैसा दुस्साहस नहीं किया है, जैसा आपातकाल के दौरान इंदिरा गांधी और उनकी सरकार ने किया था। 
 
कुल मिलाकर भारत में लोकतंत्र मजबूत हो रहा है और इसकी वजह जनता में बढ़ती लोकतांत्रिक चेतना है। जनता ज्यादा मुखर हुई है और नेताओं से ज्यादा जवाबदेही की अपेक्षा रखती है। 70 के दशक तक केंद्र के साथ ही ज्यादातर राज्यों में भी कांग्रेस का शासन था इसलिए देश पर आपातकाल आसानी से थोपा जा सका था। अब ऐसी निर्द्वंद्व सत्ता होना तकरीबन नामुमकिन है। 
 
लेकिन यह नहीं भूलना चाहिए कि लोकतांत्रिक मूल्यों और नागरिक अधिकारों का अपहरण हर बार बाकायदा घोषित करके ही किया जाए, यह जरूरी नहीं है। वह लोकतांत्रिक आवरण और कायदे-कानूनों की आड़ में भी हो सकता है।

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