आज भारत के किसान खेती में अपना कोई भविष्य नहीं देखते हैं। उनके लिए खेती-किसानी बोझ बन गया है। हालात ये हैं कि देश का हर दूसरा किसान कर्जदार है। राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण के आंकड़े बताते हैं कि यदि कुल कर्ज का औसत निकाला जाए तो देश के प्रत्येक कृषक परिवार पर औसतम 47 हजार रुपए का कर्ज है।
इधर मौजूदा केंद्र सरकार की तुगलकी हिकमतें भी किसानों के लिए आफत साबित हो रही हैं। नोटबंदी ने किसानों की कमर तोड़कर रख दी है। आंकड़े बताते हैं कि नोटबंदी के चलते किसानों को कृषि उपज का दाम 40 फीसदी तक कम मिला। जानकार बताते हैं कि खेती-किसानी पर जीएसटी का विपरीत प्रभाव पड़ेगा, इससे पहले से ही घाटे में चल रहे किसानों की लागत बढ़ जाएगी।
मोदी सरकार ने 2022 तक किसानों की आमदनी दुगनी कर देने जैसे जुमले उछालने के अलावा कुछ खास नहीं किया है। आज भारत के किसान अपने अस्तित्व को बनाए और बचाए रखने के लिए अपने दोनों अंतिम हथियारों का इस्तेमाल कर रहे हैं जिसके दांव पर उनकी जिंदगियां लगी हुई हैं। एक हथियार गोलियां-लाठियां खाकर आदोलन करने का है, तो दूसरा आत्महत्या यानी खुद को खत्म कर लेने का।
दरअसल, यह केवल किसानों का नहीं बल्कि पूरे कृषि क्षेत्र का संकट है। यह एक 'कृषि प्रधान' देश की 'कृषक प्रधान' देश बन जाने की कहानी है। 1950 के दशक में भारत के जीडीपी में कृषि क्षेत्र का हिस्सा 50 प्रतिशत था। 1991 में जब नई आर्थिक नीतियां लागू की गई थीं तो उस समय जीडीपी में कृषि क्षेत्र का योगदान 34.9 प्रतिशत था, जो अब वर्तमान में करीब 13 प्रतिशत के आसपास आ गया है जबकि देश की करीब आधी आबादी अभी भी खेती पर ही निर्भर है।
नई आर्थिक नीतियों के लागू होने के बाद से सेवा क्षेत्र में काफी फैलाव हुआ है जिसकी वजह से आज भारतीय अर्थव्यवस्था विश्व की चुनिंदा अर्थव्यवस्थाओं में शुमार की जाने लगी है, लेकिन सेवा क्षेत्र का यह बूम उस अनुपात में रोजगार का अवसर मुहैया कराने में नाकाम रहा है। नतीजे के तौर पर आज भी भारत की करीब दो-तिहाई आबादी की निर्भरता कृषि क्षेत्र पर बनी हुई है। इस दौरान परिवार बढ़ने की वजह से छोटे किसानों की संख्या बढ़ी है जिनके लिए खेती करना बहुत मुश्किल एवं नुकसानभरा काम हो गया है और कर्ज लेने की मजबूरी बहुत आम बात हो गई है।
एनएसएसओ के 70वें दौर के सर्वेक्षण के अनुसार देश के कुल 9.02 करोड़ काश्तकार परिवारों में से 7.81 करोड़ (यानी 86.6 फीसदी) खेती से इतनी कमाई नहीं कर पाते जिससे कि वे अपने परिवार के खर्चों को पूरा कर सकें। खेती करने की लागत लगातार बढ़ती जा रही है जिससे किसानों के लिए खेती करना लगातार मुश्किल होता जा रहा है।
दरअसल, खेती का सारा मुनाफा खेती संबंधी कारोबार से जुड़ी कंपनियां कूट रही हैं। भारत के कृषि क्षेत्र में पूंजी अभी भी सीधे तौर पर दाखिल नहीं हुई है। अगर इतनी बड़ी संख्या में आबादी लगभग जीरो प्रॉफिट पर इस सेक्टर में खपकर इतने सस्ते में उत्पाद दे रही है तो फौरी तौर पर इसकी जरूरत ही क्या है?
इसी के साथ ही किसानी और खेती से जुड़े कारोबार तेजी से फल-फूल रहे हैं। उर्वरक, खाद, बीज, कीटनाशक और दूसरे कृषि कारोबार से जुड़ीं कंपनियां सरकारी रियायतों का फायदा भी लेती हैं। यूरोप और अमरिका जैसे पुराने पूंजीवादी मुल्कों के अनुभव बताते हैं कि इस रास्ते पर चलते हुए अंत में छोटे और मध्यम किसानों को उजड़ना पड़ा है, क्योंकि पूंजी का मूलभूत तर्क ही अपना फैलाव करना है जिसके लिए वो नए क्षेत्रों की तलाश में रहता है।
भारत का मौजूदा विकास मॉडल उसी रास्ते पर फर्राटे भर रहा है जिसकी वजह से देश के प्रधानमंत्री और सूबाओं के मुख्यमंत्री दुनियाभर में घूम-घूमकर पूंजी को निवेश के लिए आमंत्रित कर रहे हैं। इसके लिए लुभावने ऑफर प्रस्तुत दिए जाते हैं जिसमें सस्ती जमीन और मजदूर शामिल हैं। भविष्य में अगर विकास का यही रास्ता रहा तो बड़ी पूंजी का रुख गांवों और कृषि की तरफ मुड़ेगा ही नहीं और उसके बाद बड़ी संख्या में लोग कृषि क्षेत्र छोड़कर दूसरे सेक्टर में जाने को मजबूर किए जाएंगे। उनमें से ज्यादातर के पास मजदूर बनने का ही विकल्प बचा होगा। यह सेक्टोरियल ट्रांसफॉर्मेशन बहुत ही दर्दनाक और अमानवीय साबित होगा।
मोदी सरकार इस दिशा में आगे बढ़ भी चुकी है। इस साल अप्रैल में नीति आयोग ने जो 3 वर्षीय एक्शन प्लान जारी किया है उसमें 2017-18 से 2019-20 तक के लिए कृषि में सुधार की रूपरेखा भी प्रस्तुत की गई है। इस एक्शन प्लान में कृषि क्षेत्र में सुधार के लिए जिन नीतियों की वकालत की गई है, उसमें न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) को सीमित करना, अनुबंध वाली खेती (कॉन्ट्रेक्ट फार्मिंग) के साथ जीएम बीजों को बढ़ावा देना और इस क्षेत्र में निजी कंपनियों के सामने मौजूद बाधाओं को खत्म करने जैसे उपाय शामिल हैं। कुल मिलाकर पूरा जोर कृषि क्षेत्र में निजी क्षेत्र की भूमिका बढ़ाने पर है। यह दस्तावेज एक तरह से भारत में 'कृषि के निजीकरण' का रोडमैप है।
हमारे राजनीतिक दलों के लिए किसान एक ऐसे चुनावी मुद्दे की तरह है जिसे वे चाहकर भी इसलिए भी नजरअंदाज नहीं कर सकते, क्योंकि यह देश की करीब आधी आबादी की पीड़ा है, जो अब नासूर बन चुका है। विपक्ष में रहते हुए तो सभी पार्टियां किसानों के पक्ष में बोलती हैं और उनकी आवाज को आगे बढ़ाती हैं लेकिन सत्ता में आते ही वे उसी विकास के रास्ते पर चलने को मजबूर होती हैं, जहां खेती और किसानों की कोई हैसियत नहीं है।
सरकारें आती-जाती रहेंगीं लेकिन मौजूदा व्यवस्था में किसान अपने वजूद की लड़ाई लड़ने के लिए अभिशप्त है। सतह पर आंदोलन भले ही शांत हो गया लगता हो लेकिन किसानों का दर्द, गुस्सा और आक्रोश अभी भी कायम है।