बॉलीवुड में लड़कियों की दोस्ती और उनकी मौज-मस्ती पर बहुत कम फिल्में बनी हैं और 'वीरे दी वेडिंग' इस कमी को पूरा करती है। इस फिल्म की चार लड़कियां बिंदास लाइफ जीती हैं और रूढ़िवादी विचारों के खिलाफ उनके बगावती तेवर हैं।
कालिंदी पुरी (करीना कपूर), अवनि शर्मा (सोनम कपूर), साक्षी सोनी (स्वरा भास्कर) और मीरा सूद (शिखा तलसानिया) की दोस्ती बचपन से है। जवां होने के बाद सबकी अलग-अलग कहानियां है। अवनि एक वकील है और उसकी मां उसके लिए लड़का ढूंढ रही है। लड़कों को लेकर उसकी अपनी पसंद है।
साक्षी के पिता ने करोड़ों रुपये खर्च कर उसकी शादी की, लेकिन शादी के कुछ महीनों बाद अब वह अपने पति से अलगाव चाहती है। मीरा ने भाग कर एक गोरे से शादी की है और उसके घर वाले उसके इस फैसले से नाराज है।
सिडनी में रहने वाली कालिंदी की जिंदगी में ऋषभ मल्होत्रा (सुमित व्यास) नामक बेहतरीन लड़का है, लेकिन वह शादी करने से घबराती है क्योंकि उसका बचपन अपने माता-पिता के झगड़ों में बीता है। उसका मानना है कि पति बनते ही प्रेमी बदल जाता है। काफी सोच समझ कर वह शादी के लिए हां कहती है।
सभी सहेलियां उसकी शादी के लिए दिल्ली में जमा होती हैं और भव्य शादी की तैयारियां शुरू होती हैं। रस्मो-रिवाज और ढेर सारे रिश्तेदार देख कालिंदी घबरा जाती है और शादी करने से इंकार कर देती है।
इन चारों लड़कियों के माध्यम से दिखाया गया है कि शादी और बच्चों का लड़कियों पर कितना ज्यादा प्रेशर है। वे अपनी मर्जी के लड़के से शादी नहीं कर सकती। शादी नहीं करना चाहती हैं तो उन पर शादी का दबाव डाला जाता है। फिर पहले बच्चे का दबाव, फिर दूसरे का दबाव। कोई लड़की यदि अपनी मर्जी से पति से अलग होना चाहे तो उसके चरित्र पर अंगुली उठाई जाती है।
कालिंदी के कैरेक्टर के जरिये लड़कियों के शादी के प्रति कन्फ्यूज नजरिये को दिखाया गया है। वे तय नहीं कर पातीं कि वे शादी करें या नहीं।
फिल्म के लेखक निधि मेहरा और मेहुल सूरी ने बहुत सारी बातों को अपनी कहानी में समेटा है। इसमें गॉसिप करने वाली आंटियां हैं, जो सारी बातें करने के बाद बोलती हैं, छोड़ो हमें क्या करना है, एक गे कपल है जिसे देख कोई चौंकता नहीं है, मम्माज़ बॉय है, सेक्स को लेकर बातें करने वाली लड़कियां हैं। हर किरदार की अपनी समस्या है और इसे पूरे डिटेल्स के साथ लिखा गया है।
इन सभी बातों को मसालेदार तरीके से कहा गया है। फिल्म आपको लगातार हंसाती रहती है और कहानी भी आगे बढ़ती रहती है। अंत में कहानी समेटने में लेखक कुछ नया नहीं सोच पाए और सुखद अंत के साथ फिल्म को समाप्त करने में ही उन्होंने भलाई समझी। अचानक सारी उलझनें सुलझ जाती हैं। लेखक थोड़ी और गहराई में जा सकते थे।
निर्देशक के रूप में शशांक की मेहनत नजर आती है। उन्होंने कई छोटे-छोटे सीन रचे हैं और फिल्म को बोझिल नहीं होने दिया। जहां फिल्म ठहरती हुई महसूस होती है वहीं पर वे मनोरंजक दृश्यों के जरिये फिल्म को पटरी पर ले आते हैं।
फिल्म की मुख्य किरदार महिलाएं हैं, लेकिन उन्होंने फिल्म को फेमिनिस्ट नहीं होने दिया। खोखली नारीवाद की बातें या पुरुषों को कमतर करने की कोशिश नहीं की है। इसके बजाय उन्होंने अपने महिला कैरेक्टर्स पर भरपूर काम किया है। उन्हें स्टीरियोटाइप नहीं बनने दिया है।
ऐसे बोल्ड और बिंदास फीमेल कैरेक्टर्स संभवत: पहली बार हिंदी फिल्मों में दिखाई दिए हैं। साथ ही एक साधारण कहानी को उन्होंने अपने आधुनिक किरदारों और प्रस्तुतिकरण के जरिये एक अलग लुक दिया है। फिल्म में कई प्रोडक्ट्स को प्रमोशन के लिए दिखाया गया है जो आंखों को चुभते हैं।
फिल्म के संवाद ऐसे हैं जैसे कि दोस्त आपस में बात करते हैं- 'ले ली', 'दे दी', 'चढ़ जा', 'अपना हाथ जगन्नाथ' आदि-आदि।
फिल्म की स्टारकास्ट बढ़िया है। शादी को लेकर कन्फ्यूज लड़की के रोल में करीना कपूर का काम अच्छा है। सोनम कपूर, स्वरा भास्कर और शिखा तलसानिया अपनी-अपनी जगह अच्छी हैं। नीना गुप्ता, मनोज पाहवा सहित सपोर्टिंग कास्ट ने भी अपना काम ठीक से किया है।
वीरे दी वेडिंग 'महिला सशक्तिरकण' जैसे नारे की बजाय इस बात के इर्दगिर्द ज्यादा है कि 'व्हाय शुड बॉयज़ हेव ऑल द फन?'
बैनर: अनिल कपूर फिल्म्स कंपनी, बालाजी टेलीफिल्म्स लि.