भूमि का पहला सीन आता है जब संजय दत्त और शेखर सुमन बैठ कर शराब पी रहे हैं। कहने को तो ये कॉमिक सीन है, लेकिन खीज पैदा करता है। फिर आता है दूसरा सीन। संजय दत्त की जवान बेटी अदिति राव हैदरी घर लौटती है। संजय दत्त अपने हाथों से उसे खाना खिलाते हैं। भावुकता पैदा करने वाला यह सीन अत्यंत ही नकली है।
इन दो सीक्वेंसेस को देखने के बाद आप महूसस कर लेते हैं कि अगले कुछ घंटे टार्चर होने वाला है और आपकी इस 'उम्मीद' को निर्देशक उमंग कुमार बिलकुल भी नहीं तोड़ते। उमंग कुमार ने 'मैरी कॉम' जैसी बेहतरीन फिल्म बनाई थी, लेकिन 'भूमि' जैसी सी-ग्रेड फिल्म देखने के बाद लगता है कि कहीं 'मैरीकॉम' पर उनका नाम तो चस्पा नहीं कर दिया था।
भूमि एक रिवेंज ड्रामा है। बेटी से बलात्कार होता है। बाप कानून की शरण में जाता है, लेकिन अपराधी सबूतों के अभाव में छूट जाते हैं। फिर बाप-बेटी कानून अपने हाथ में लेकर बलात्कारियों को सबक सिखाते हैं। कुछ महीने पहले इसी तरह की कहानी 'काबिल' में देखने को मिली थी, जो लचर फिल्म थी, लेकिन 'भूमि' तो इस मामले में और आगे (या पीछे?) निकल गई।
जूते-चप्पल बेचने की दुकान वाला अरुण सचदेवा (संजय दत्त) अपनी बेटी भूमि (अदिति राव हैदरी) के साथ रहता है। भूमि को एक लड़का चाहता है, लेकिन वह उसे पसंद नहीं करती। भूमि की शादी एक डॉक्टर से तय हो जाती है। शादी के ठीक एक दिन पहले वह लड़का अपने दो अन्य साथियों के साथ भूमि का बलात्कार करता है। इस कारण भूमि की शादी टूट जाती है। भूमि को वे जान से मारने की कोशिश भी करते हैं, लेकिन भूमि बच जाती है। अदालत में भूमि हार जाती है और इसके बाद बदले की अपनी कहानी शुरू होती है।
इस तरह की कहानी पर तीस-चालीस साल पहले फिल्म बना करती थी और इस घटिया कहानी पर आज के दौर में फिल्म बनाना 'साहस' का काम है। फिल्म में आगे क्या होने वाला है, गेम खेला जाए तो हर बार आप जीतेंगे।
स्क्रीनप्ले में भी खामियां हैं। भूमि शादी के ठीक एक दिन पहले कुछ घंटों के लिए गायब हो जाती है, लेकिन उसकी कोई खोज खबर नहीं ली जाती। पहली बार उसके साथ नशे की हालत में बलात्कार किया जाता है और ये दरिंदे कौन है उसे याद नहीं रहते, लेकिन विलेन इतने मूर्ख कि उसके सामने दोबारा आ जाते हैं कि ले हमको पहचान ले।
जिन्होंने ये सोच कर संजय दत्त के नाम पर टिकट खरीद ली कि 'बाबा' खूब मारामारी करेगा, वे भी निराश होते हैं। फिल्म के 80 प्रतिशत हिस्से में संजय हाथ पर हाथ धरे बैठे रहते हैं। फिर आखिरी में अपराधियों को सबक सिखाते हैं और वे यह सब आसानी से कर लेते हैं। अचानक दादागिरी दिखाने वाले दरिंदे संजू बाबा को देख थर-थर कांपने लगते हैं। कहने की बात यह है कि सब कुछ लेखक की मर्जी से चलता है।
निर्देशक के रूप में उमंग कुमार बिलकुल प्रभावित नहीं करते। उनका सारा ध्यान सिर्फ इस बात पर रहा कि सीन कैसे खूबसूरत लगे, भले ही लॉजिक हो या न हो। मसलन भूमि को झाड़ियों में टार्च लेकर लोग खोजते हैं। परदे पर सीन अच्छा लगता है, लेकिन एक जैसी टॉर्च लेकर सब आसपास ढूंढते रहते हैं कि उनकी समझ पर तरस आता है। भूमि को याद करते हुए उसके पिता घर में जमीन पर रोते हैं। उनके आसपास सूखी पत्तियां दिखती हैं। निर्देशक ने यह सूखी पत्तियों को पिता की हालत से जोड़ने की कोशिश की है, लेकिन सूखी पत्तियां आई कहां से? इसका कोई जवाब नहीं है।
फिल्म कई बार पिछड़ी मानसिकता को दिखाती है, खासतौर महिलाओं के बारे में। इस तरह के संवाद और दृश्यों से बचना चाहिए था। 'लड़कियों के पिता तो गूंगे होते हैं' जैसे संवादों से आखिर क्या साबित करने की कोशिश की गई है।
संजय दत्त ने अपनी वापसी के लिए इस फिल्म को चुना है, जो दर्शाता है कि उन्होंने कभी सोच समझ कर फैसले नहीं किए हैं। वे थके हुए लगे। फिल्म में एक जगह उन्हें कसरत करते दिखाया गया है, ताकि अंत में उनकी फाइटिंग को जस्टिफाई किया जा सके, लेकिन बात नहीं बन पाई। इमोशनल और कॉमेडी संजय कभी नहीं कर पाए और यहां भी उनकी यही कमी बरकरार रही।
अदिति राव हैदरी का काम ठीक-ठाक रहा, लेकिन उनके किरदार को ठीक से उभरने नहीं दिया। शरद केलकर सब पर भारी रहे और खलनायक के रूप में अपनी छाप छोड़ने में सफल रहे। शेखर सुमन निराश करते हैं। संगीत के मामले में भी फिल्म कमजोर है।